जाॅन लाॅक के ज्ञान के स्तर(Degrees of Knowledge)
जाॅन लॉक के अनुसार ज्ञान के तीन स्तर हैं-
१. आन्तर प्रत्यक्ष ज्ञान (Intuitive knowledge)
२. बाह्य प्रत्यक्ष ज्ञान (Sensitive knowledge)
३. परोक्ष ज्ञान (Demonstrative knowledge)
आन्तर-प्रत्यक्ष ज्ञान सहज तथा स्वयंसिद्ध ज्ञान है, इसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं| तात्पर्य यह है कि ज्ञान तो प्रत्ययों की पारस्परिक संगति है। कभी-कभी हमें इस पारस्परिक संगति का भान सद्यः हो जाता है, अर्थात इसकी संगति के लिये दसरे किसी की अपेक्षा नहीं रहती। इसकी सत्यता स्वतः प्रकट होती है, इसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। जैसे आँखों को रूप का ज्ञान स्वतः होता है उसी प्रकार बुद्धि को सद्यः ज्ञान की सत्यता का अनुभव स्वतः होता है। उदाहरणार्थ, उजला काला नहीं है, वृत्त त्रिभुज नहीं है, तीन दो से ज्यादा है तथा दो और एक का योग है। ये सभी ज्ञान स्वतः सिद्ध हैं, क्योंकि ये सन्देह रहित है तथा इनकी निश्चयात्मकता अपने से ही उत्पन्न होती है। इन्हें स्वतः सिद्ध कहा जा सकता है।
जाॅन लॉक इसे प्रथम स्तर की सत्यता स्वीकार करते हैं, क्योंकि इसकी परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं। इनकी प्रामाणिकता स्वतः है।- ज्ञान की सत्यता का दूसरा स्तर प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष (Indirect) है। इसकी सत्यता का तर्क (Reasoning) के द्वारा निदर्शन (Demonstrate) किया जाता है। इसे परोक्ष इसलिये माना गया है कि इसमें किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। तात्पर्य यह है कि प्रत्ययों की पारस्परिक संगति की सिद्धि के लिए हम तर्क का सहारा लेते हैं। हमारी बुद्धि को इसकी सत्यता का भान तो होता है, परन्तु किसी माध्यम से अर्थात्, तर्क से इसकी सत्यता सिद्ध होती है।
उदाहरणार्थ, त्रिभुज की तीन भुजाओं तथा दो भुजाओं में किसका योग बड़ा होगा इसका ज्ञान हमें स्वत: नहीं हो सकता? इसके लिये हमें किसी अन्य त्रिभुज की तीन भुजाओं तथा दो भुजाओं के योग की परीक्षा करनी पड़ेगी, तभी हम उचित निष्कर्ष निकाल सकते हैं। अतः इसकी सत्यता के लिये तर्क (Reasoning) की। आवश्यकता है। इसे निगमनात्मक तर्क की प्रणाली भी कहा गया है। गणित शास्त्र में इस प्रकार के निदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। परोक्ष ज्ञान तथा आन्तर प्रत्यक्ष ज्ञान में निम्नलिखित भेद हैं-
१. आन्तर-प्रत्यक्ष ज्ञान स्वतः है तथा परोक्ष ज्ञान परतः है। तात्पर्य यह है कि परोक्ष ज्ञान की सत्यता के लिये अन्य ज्ञान की आवश्यकता है।
२. परोक्ष ज्ञान के लिए सन्देह की पूर्व विद्यमानता अनिवार्य है। यदि सन्देह पहले न हो तो परीक्षा की आवश्यकता ही क्या है? परन्तु प्रत्यक्ष में सन्देह का स्थान नहीं।
३. परोक्ष ज्ञान आन्तर-प्रत्यक्ष है। परोक्ष ज्ञान के सत्य की परीक्षा में अनेक चरण हैं, जैसे तर्क (Reasoning), निदर्शन (Demonstration) आदि। परन्तु प्रत्येक चरण अपने में पूर्ण नहीं। प्रत्येक चरण में आन्तर प्रत्यक्ष की आवश्यकता पड़ती है। तात्पर्य यह है कि यदि परोक्ष-स्तर में सन्देह उत्पन्न हो तो उसका निवारण सद्यः ज्ञान के स्वतः प्रमाण से ही होगा, परन्तु स्वतः प्रमाण की परीक्षा के लिये अन्य की आवश्यकता नहीं।
ज्ञान का तीसरा स्तर बाह्य प्रत्यक्ष का है। बाह्य-प्रत्यक्ष से लॉक का तात्पर्य बाह्य जगत् के पदार्थों का ज्ञान है जिसका हमें प्रत्यक्ष होता है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि विशेष पदार्थों का हमें इन्द्रियजन्य ज्ञान प्राप्त होता है, अतः विशेष पदार्थों की सत्ता अवश्य है। यह सत्य है कि कभी-कभी हमें बाह्य पदार्थों के बिना भी ऐसा ज्ञान होता है, स्वप्न में भी वस्तु की प्रतीति होती है जिनका कहीं अस्तित्व नहीं।
अतः बाह्य वस्तु का ज्ञान भ्रामक हो सकता है, परन्तु इससे बाह्य वस्तु की सत्ता का निषेध नहीं हो सकता। ईश्वर और आत्मा के समान बाह्य वस्तु का ज्ञान असन्दिग्ध नहीं, परन्तु बाह्य वस्तु का ज्ञान हमें होता है तथा बाह्य वस्तु की सत्ता भी अवश्य है।। बाह्य वस्तु का ज्ञान हमें संवेदनाओं से प्राप्त होता है, अतः लॉक इसे संवेदनशील (Sensitive) ज्ञान कहते हैं। संवेदनाएँ इन्द्रियों से प्राप्त होती हैं, अतः यह ज्ञान इन्द्रिय-जन्य कहलाता है। बाह्य वस्तु की सत्ता सिद्ध करने के लिये लॉक तर्क भी देते हैं। उनके प्रमाणों का सारांश यह है कि यदि बाह्य वस्तु नहीं होती तो उनकी संवेदनाएँ हमें कैसे प्राप्त होती? हमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि की संवेदनाएँ आँख, कान, मुख आदि से सर्वदा प्राप्त होती रहती हैं।
अतः हमें संवेदनाओं के कारणस्वरूप बाह्य पदार्थ की सत्ता अवश्य स्वीकार करनी पड़ेगी। इसलिए बाह्य प्रत्यक्ष स्तर भी सत् है। यह पूर्णतः सत्य नहीं, परन्तु केवल सम्भाव्य भी नहीं। यहाँ पर एक बात ध्यान देने की है कि लॉक बाह्यानुमेयवादी हैं। इनके अनुसार बाह्य वस्तु की सत्ता तो अवश्य है, परन्तु वह प्रत्यक्षगम्य नहीं। प्रत्यक्ष तो हमें केवल गुणों का ही होता है, अतः बाह्य वस्तु की सत्ता अनुमान गम्य है।
ज्ञान की सीमा(Extent of Knowledge)
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि हमें ज्ञान केवल प्रत्ययों (Ideas) का ही होता है, अर्थात् हमारा ज्ञान प्रत्ययों तक ही सीमित है। प्रत्ययों के बाद हम कुछ भी नहीं जानते, अर्थात् प्रत्ययों की परिधि के बाहर ज्ञान की सीमा का अन्त है। ये प्रत्यय अनुभवात्मक हैं। इनका अनुभव हमें संवेदना तथा स्वसंवेदना नामक दो मार्गों से होता है। अतः दूसरे शब्दों में, प्रत्यय का अभाव ही अज्ञान है। हमें जिस वस्तु या विषय के बाह्य या आन्तरिक प्रत्यय की उपलब्धि नहीं, उसका ज्ञान भी नहीं। हमारी इस अज्ञानता का कारण हमारी अपूर्णता है। मानव पूर्ण नहीं, मानव के इन्द्रियों की शक्ति सीमित है। इन सीमित इन्द्रियों से हमें असीम की उपलब्धि नहीं हो सकती।
हमें ज्ञान की प्राप्ति सरल प्रत्ययों के रूप में होती है, परन्तु सरल प्रत्ययों के ग्राहक इन्द्रियों की शक्ति सीमित है। अत: सरल प्रत्यय भी हमें सीमित ही प्राप्त होते हैं। ‘सरल-प्रत्यय के भी अनन्त प्रकार हैं, परन्तु सबकी उपलब्धि मानव को नहीं होती। दूसरी बात यह है कि ज्ञान का स्वरूप तो प्रत्ययों की पारस्परिक संगति है| परन्तु सुदूर तथा अत्यन्त समीपस्थ विषयों की पारस्परिक संगति का पता लगाना कठिन है। हम इन विषयों की संवेदना ही नहीं हो सकती, अतः हम इनकी संगति भी नहीं जान सकते। लॉक के अनसार प्रत्ययों की संगति आदि रूप (Archetype) प्रत्यय पर निर्भर है। सरल प्रत्ययों के तो आदि रूप हैं, परन्तु मिश्र प्रत्यय (Complex ideas) के आदि रूप नहीं होते। अतः इनकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है|
जाॅन लॉक के अनुसार संगति के चार प्रकार हैं : तादात्म्य, भेद, सम्बन्ध साहचर्य, यथार्थ सत्ता। यदि दो प्रत्यय नितान्त भिन्न हैं तो उनका आपस में सम्बन्ध कैसा? यदि सम्बन्ध का निश्चय नहीं हो सकता तो तादात्म्य’ या भेद का भी निश्चय नहीं हो सकता। यदि दो प्रत्ययों में किसी प्रकार का सम्बन्ध भी हो तो अत्यन्त निकटता तथा दूरी के कारण इनका निश्चय नहीं। उदाहरणार्थ, ग्रह (Planets) हमसे बहुत दूर हैं। परमाणु अत्यन्त छोटे पदार्थ हैं। इनकी संवेदनाएँ नहीं हो सकतीं। यदि प्रत्यय संवेदना पर ही निर्भर है तो इनका ज्ञान सम्भव नहीं।
हमें प्रत्ययों की उपलब्धि हो सकती है, पर उनमें सम्बन्ध का पता लगाना कठिन है। उदाहरणार्थ, हमें मूल गुण तथा उप गुण में किसी साहचर्य सम्बन्ध की उपलब्धि नहीं होती। हमें यह पता नहीं कि शरीर के विभिन्न अंगों की आकृति, गति तथा रूप, ध्वनि आदि में क्या सम्बन्ध हैं। हमें अनुभव से किसी स्वर्ण को पिघलाने वाला पदार्थ ही जानते हैं, परन्तु सभी स्वर्ण में पिघलाने की शक्ति का निश्चय नहीं कर सकते। अतः सार्वभौम नियम की सत्यता कैसे?
जाॅन लाॅक के तत्त्व-विचार(Metaphysics)
जाॅन लॉक का तत्त्व-विचार भी उनकी ज्ञान-मीमांसा पर ही आधारित है। जाॅन लॉक के अनुसार ज्ञान के तीन स्तर हैं-आन्तर प्रत्यक्ष (Involve), परोक्ष (Indirect) तथा बाह्य-प्रत्यक्ष (Sensitive)| इन तीन स्तरों से हमें तीन प्रकार के तत्त्व का ज्ञान होता है आत्मा, ईश्वर तथा जगत्। सर्वप्रथम यह आत्मा है। आत्मा के अस्तित्व के लिए हमें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं, यह स्वयं सिद्ध सत्य है। आत्मा ज्ञान नामक गण का आधार या आश्रय है। ज्ञान के अनेक रूप हैं जैसे-चिन्तन, प्रत्यक्ष, संकल्प इत्यादि। इन गुणों की अनुभूति सर्वसाधारण है। अतः आत्मा का अस्तित्व स्वयंसिद्ध सत्य है। जिस प्रकार हम भौतिक गुणों की उपलब्धि होने से भौतिक द्रव्य की सत्ता स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार चिन्तन आदि अति-भौतिक गुणों के आधार पर आध्यात्मिक आत्मा की भी। देकार्त के समान लॉक भी स्वीकार करते हैं कि भौतिक द्रव्य के ज्ञान की अपेक्षा हमें आध्यात्मिक द्रव्य (आत्मा) का अधिक स्पष्ट ज्ञान है। जो द्रष्टा है, श्रोता है। जड़ तत्त्व अचेतन है, उनसे विचार की उत्पत्ति नहीं हो सकती। जड़ का गुण विस्तार है, विचार नहीं। अतः विचार नामक गुण के आश्रय आत्मा को अवश्य स्वीकार करना होगा। यह आत्म-ज्ञान पूर्णतः सुस्पष्ट है, अतः इसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। यह आन्तर-प्रत्यक्ष स्तर का विषय है।
१. ईश्वर तत्त्व- इसे लॉक परोक्ष ज्ञान (Indirect knowledge) का विषय मानते हैं। परोक्ष ज्ञान कहने से लॉक का तात्पर्य यह है कि ईश्वर प्रमाणगम्य है। ईश्वर को लॉक जगत् का कारण स्वीकार करते हैं। हममें शक्ति, ज्ञान आदि गुण स्पष्टतः उपलब्ध होते हैं। इनका स्रोत अवश्य ही इनसे बड़ा होगा। तात्पर्य यह है कि ईश्वर मानव, ज्ञान तथा शक्ति का धाम है। वही मानवीय शक्ति तथा ज्ञान का कारण है। अल्पज्ञ तथा ससीम मानव अपना कारण अपने आप नहीं हो सकता।
मानव की शक्ति और ज्ञान की सीमा है। इस शक्ति और ज्ञान के अनन्त होने की कल्पना ही ईश्वरता का सूचक है। अर्थात् ईश्वर अनन्त ज्ञान तथा अनन्त शक्ति से सम्पन्न है। लॉक ईश्वर-विचार को जन्मजात नहीं (Innate) मानते हैं (जैसा देकार्त आदि मानते हैं)। वरन् हम अपनी शक्ति और ज्ञान के विश्लेषण से ही ईश्वर विचार पर पहुँचते है। ईश्वर-प्रत्यक्ष भी अनुभवात्मक ही है, जन्मजात नहीं।
२. जगत् का जड़ तत्त्व- लॉक जड़ जगत् की सत्ता भी स्वीकार करते हैं। यह बाह्य-प्रत्यक्ष ज्ञान (Sensitive) का स्तर है। हमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि संवेदनाओं का अनुभव प्रतिदिन होता है। इससे स्पष्ट है कि बाह्य वस्तु अर्थात् जड़ जगत् की भी सत्ता है। यदि बाह्य वस्तुएँ न होती तो ये संवेदनाएँ अकारण हो जातीं। इससे बाह्य वस्तुओं की सत्ता सिद्ध होती है। लॉक बाह्य-वस्तु की सत्ता के लिये प्रमाण भी देते हैं-
(क) संवेदनाएँ बाह्य पदार्थ से ही उत्पन्न होती हैं, अर्थात् बाह्य पदार्थ ही सवदनाओं के कारण हैं। किसी इन्द्रिय के अभाव में हमें तत्सम्बन्धी संवेदना भी नहीं होती। उदाहरणार्थ, जिसे आँखें नहीं हैं, उसे रूप की संवेदना नहीं हो सकती, क्योंकि रूप, चक्षुरिन्द्रिय से ग्राह्य है| रूप की संवेदना हमें रूपवान वस्तु से ही प्राप्त हो सकती है, जो बाह्य है।
(ख) संवेदना तथा स्मरण में स्पष्ट अन्तर है, क्योंकि दोनों के प्रत्यय भिन्न-भिन्न हैं। संवेदना के प्रत्यय अधिक स्पष्ट होते हैं, परन्तु स्मरण के क्षीण। यदि दिन के दोपहर में सूर्य की ओर हम देखें तो हमें प्रकाश की स्पष्ट संवेदना होगी, परन्तु सूर्य के स्मरण में यह बात नहीं। इससे बाह्य वस्तु (सूर्य) की सत्ता अवश्य माननी होगी।
(ग) हमारी विभिन्न इन्द्रियों से बाह्य वस्तु की सत्ता की पुष्टि होती है। हम अग्नि की ऊष्णता को देखते हैं, इसे अपने हाथों पर रखकर ऊष्णता-जन्य कष्ट का अनुभव कर सकते हैं। यदि अग्नि कोई बाह्य वस्तु नहीं होती तो इससे कष्ट क्यों होता?
जाॅन लॉक के नैतिक विचार
जाॅन लॉक के नैतिक विचार भी उनके ज्ञान-सिद्धान्त पर आधारित हैं। जाॅन लॉक के अनुसार हमारा सम्पूर्ण ज्ञान अनुभवजन्य है, कोई भी ज्ञान जन्मजात नहीं, अतः नैतिक नियम अनुभवजन्य हैं। नैतिक नियम ईश्वर प्रदत्त नहीं, वरन् सामाजिक परिवेश की देन हैं। जिस समाज की जैसी शिक्षा, प्रथा, वातावरण है उस समाज के नैतिक नियम भी उन्हीं के अनुकूल होते हैं। मनुष्य अपने हित की प्राप्ति तथा अहित के परिहार के लिए स्वयं अपना नियम बनाता है। इन नियमों की शिक्षा भी सामाजिक वातावरण में बाल्यावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है। बड़े होने पर बच्चे इन्हीं नियमों को ईश्वर-प्रदत्त मान लेते हैं।
किसी भी समाज के व्यक्ति स्वभावतः सुखप्राप्ति तथा दुःख-परिहार की ही इच्छा करते हैं। अतः सुख और दुःख ही नैतिकता का मापदण्ड है। सुखकर कार्य ही हमारे लिये आदेय है तथा दुःखकर ही हेय है। चूकि सुख की ओर हम स्वभावतः प्रवृत्त हैं, अतः सुखकर कार्य करना ही नैतिक दृष्टि उचित है। शुभ और अशुभ (Good and evil) का भेद बतलाते हुए लॉक कहते है कि वही कार्य शुभ है जिससे सुख की प्राप्ति हो तथा दुःख का परिहार है। इस विपरीत अशुभ वह है जिससे सुख का ह्रास तथा दुःख की प्राप्ति हो।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि लॉक सुखवादी (Hedonist) हैं, क्योंकि य सुण को श्रेय मानते हैं। सुख प्राप्ति तथा दुःख-परिहार ही हमारा उद्देश्य है। परन्तु यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उपस्थित होता है कि कौन-सा सुख श्रेय है-वैयक्तिक या सामाजिक? जाॅन लाॅक दोनों का उल्लेख करते हैं। सर्वप्रथम वे वैयक्तिक सुख को ही श्रेय मानते हैं, अत: उनका नैतिक सिद्धान्त ‘स्वार्थवादी सुखवाद’ कहलाता है। परन्तु लॉक अपने जन में सद्गुण (Virtue) का भी महत्त्व बतलाते हैं।
सद्गुणी व्यक्ति वह है जो अपने समान ही अन्य को भी सुखी बनाना चाहता है। ईश्वर ने सद्गुण तथा सामान्य सख को एक सूत्र में बाँध दिया है, क्योंकि सद्गुण (सामान्य सुख) से ही सामाजिक सरक्षा सम्भव है| अतः अपने को सुखी बनाकर सबको सुखी बनाना ही सद्गुण है। जाॅन लॉक के अनुसार नैतिक नियम के तीन प्रकार हैं-
१. दैवी नियम (Divine law)-ये नियम ईश्वर द्वारा निर्मित हैं जिन्हें श्रुतियाँ स्पष्ट करती हैं। इन नियमों का पालन करना हमारा पुनीत कर्तव्य है तथा अवहेलना करना पाप है।
२. शासकीय नियम (Civil law)- ये नियम राज्य के कानून हैं। इन नियमों से ही मनुष्य के निर्दोष तथा सदोष होने का निश्चय होता है तथा निर्दोष को दण्ड-मुक्त और अपराधी को दण्ड दिया जाता है। ये नियम शासकीय सुव्यवस्था के लिये हैं।
३. सुयश के नियम (Law of reputation)- इन नियमों का निर्णय सामाजिक सुनाम या दुर्नाम के आधार पर किया जाता है। सद्गुण की प्रशंसा तथा दुर्गुण को कुख्याति होती है। अतः सुनाम या दुर्नाम भी सामाजिक यश, अपयश के सूचक हैं जिनसे सामाजिक नैतिकता बनती है|
शुभ की समस्या
हम पहले विचार कर आए हैं कि जाॅन लॉक के अनुसार सुख ही मानव जीवन का लक्ष्य है। जिस कार्य से सुख की प्राप्ति हो वही कार्य नैतिक है। नैतिक नियमों का पालन केवल हम सुख प्राप्ति की इच्छा से करते हैं। परन्तु यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उपस्थित होता है कि शुभ (Good) क्या है? यदि व्यक्तिगत सुख की प्राप्ति ही मानव सावन का लक्ष्य हो तो समाज में शुभ-अशुभ, पूण्य-पाप का निर्धारण कैसे होगा?
शुभ-अशुभ के निर्धारण में भी लॉक का दृष्टिकोण व्यावहारिक है। हम दिन-प्रतिदिन व्यवहार में शुभ केवल सुख को मानते हैं। जिस कार्य से सुख उत्पन्न हो वही शुभ है तथा जिस कार्य से दुःख उत्पन्न हो वही अशुभ है। हमारे सभी कायों में प्रवृत्तियाँ दो हैं- सुख-प्राप्ति तथा दुःख-परिहार अतः इस प्रवृत्ति के अनुकूल ही शुभ है तथा इसके प्रतिकूल ही अशुभ है। शुभ और अशुभ के लिये कोई सामान्य नियम नहीं। जाॅन लॉक का यह दृष्टिकोण अन्य दार्शनिकों से भिन्न है। पहले ग्रीक-युग में शुभ-अशुभ पर पूरी तरह विचार कर आए हैं।
सुकरात और प्लेटो ने व्यक्तिगत सुख को नहीं, वरन् सामान्य सुख को शुभ बतलाया है। व्यक्तिगत सुख तो इन्द्रिय-जन्य सुख है, सामान्य सुख बौद्धिक होता है। बौद्धिक होने से यह सामान्य, सर्वगत होता है। शुभ का यह स्वरूप सार्वजनीन है। अरस्तू भी इसी शुभ को यथार्थ शुभ मानते हैं। व्यक्तिगत सुख को ही यदि शुभ स्वीकार किया जाय तो सामान्य नैतिक नियमों की स्थापना असम्भव सी हो जाएगी।
समीक्षा
जाॅन लॉक के दर्शन में ज्ञान का समस्या ही सबसे प्रमुख समस्या है। इस समस्या के महत्त्व का कारण आंशिक रूप से बुद्धिवाद की असफलता है। १६वीं शताब्दी में बुद्धिवाद का बोलबाला था। सर्वप्रथम देकार्त ने दर्शन को धर्म से अलग किया। देकार्त के पूर्व ज्ञान की व्याख्या भी धार्मिक मान्यताओं के अनुकूल हुआ करती थी। मध्य युग में बौद्धिक या दार्शनिक ज्ञान तो विश्वास उत्पन्न करने का साधन था।
मध्ययुगीन परम्परा के अनुसार आस्था प्रथम तथा बुद्धि को गौण समझा जाता था। सर्वप्रथम देकार्त ने दर्शन का क्षेत्र धर्म से पृथक् घोषित किया तथा मानवी बुद्धि को गिरजाघर के कारागारों से मुक्त किया। देकार्त के दर्शन में बुद्धि विश्वास का साधन नही, ज्ञान आस्था का सहायक नहीं। इस प्रकार देकार्त ने बुद्धि को विश्वास से अलग किया। बुद्धि प्रधान होने के कारण ही देकार्त का युग बौद्धिक युग कहलाता है जो ध्ययुगीन भावना-प्रधान यग से सर्वतोभावेन पृथक् है। देकार्त गणित के प्रेमी थे।
गणित के अनिवार्य निष्कर्षों के प्रति उनका अधिक आकर्षण था। उनके अनुसार यदि तको प्रणाली को दर्शन में अपनाया जाय तो निश्चित रूप से दार्शनिक विवादों का अन्त हो सकता है। इसलिये उन्होंने गणित की प्रणाली को दार्शनिक प्रणाली मानाा स्पिनोजा पूर्णतः देकार्त के अनुगामी थे। उनका गणित के प्रति विशेष लगाव था। इस लगाव के कारण ही उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ (The Ethics) ज्यामिति का ग्रन्थ प्रतीत होता है।
आलोचकों का कहना है कि स्पिनोजा ने मानव इच्छाओं और भावनाओं को ज्यामिति की रेखा समझ लिया। परन्तु स्पिनोजा ने भी केवल निस्सन्देह तथा अनिवार्य निष्कर्ष की प्राप्ति के लिये ही ऐसा किया। इसी प्रकार लाइबनिटज ने भी सामान्य और शाश्वत सत्यों पर बल दिया। अतः सभी बुद्धिवादी दार्शनिकों के अनुसार गणित का ज्ञान ही आदर्श ज्ञान है। इन दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान अनिवार्य तथा सार्वभौम होता है, परन्तु अनिवार्य तथा सार्वभौम सत्य तो निश्चित रूप से अनुभव-निरपेक्ष होंगे। अनिवार्य सत्य तो जन्म से मनुष्य में विद्यमान रहते हैं।
अनुभव से हम केवल इनका विकास करते हैं। इस प्रकार सभी बुद्धिवादियों ने बौद्धिक ज्ञान अर्थात् अनिवार्य और सार्वभौम ज्ञान को ही प्रमाण माना है। हमें अनिवार्य ज्ञान अनुभव से नहीं प्राप्त हो सकता। हमारा अनुभव तो देश और काल तक सीमित है, परन्तु अनिवार्य सत्य देश और काल के परे होते हैं। हम चाहे कितनी बार भी अनुभव करें सन्देह की मात्रा रहेगी ही। अतः निस्सन्देह ज्ञान को अनुभवातीत मानना होगा।
सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में बुद्धिवादी मान्यताओं की भी परीक्षा प्रारम्भ हुई। बद्धि को भी अनुभव के न्यायालय में उपस्थित होना पड़ा। मानव बुद्धि की सीमा तथा स्वरूप पर विचार होने लगा। सर्वप्रथम लॉक ने ही इस प्रकार के प्रश्न उठाए कि ज्ञान किसे कहते हैं, ज्ञान का स्वरूप क्या है और ज्ञान की सीमा क्या है? इस प्रकार परीक्षा प्रारम्भ होने पर बुद्धिवाद खरा न उतरा।
लॉक ने सर्वप्रथम बुद्धिवाद की असफलताओं की ओर दार्शनिकों का ध्यान आकृष्ट किया तथा सिद्ध किया कि अनुभव से ही यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। इसी कारण लॉक को अनुभववाद का संस्थापक मानते हैं। आगे चलकर अनुभववाद दर्शन और विकास के लिय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इसी कारण लॉक को आगामी विज्ञान का प्रेरणादायक मानते हैं। वैज्ञानिक ज्ञान में निरीक्षण और परीक्षण की आवश्यकता है। इस प्रकार यथार्थ तथा वैज्ञानिक ज्ञान को अनुभवजन्य हैं।
जाॅन लॉक के दर्शन से अनुभववाद का प्रारम्भ तथा कई नयी समस्याओं का जन्म होता है। परन्तु सभी समस्याओं का मूलाधार ज्ञान की समस्या ही है। जाॅन लाॅक अनुसार किसी समस्या के निदान से अधिक महत्त्वपर्ण यह है कि हम समस्या निदान कर सकते हैं या नहीं? अर्थात् हमारी वृद्धि में समस्या को सुलझान कीयोग्यता है या नहीं। अतः वे ज्ञान की परीक्षा के माध्यम से बुद्धि या योग्यता की परीक्षा कर रहे हैं। यह परीक्षा ही जाॅन लॉक का अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों से भेद कराती है तथा नयी मान्यताओं को जन्म देती है।
इसे हम एक उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं हमारे सामने अमुक वस्तु है, इस पर दो प्रकार से विचार कर सकते हैं। प्रथमतः हम वस्तु के तत्त्व पर विचार कर सकते हैं, क्योंकि जब उस वस्तु के तत्त्व का पता लग जाता है तो उस वस्तु को जानने का हम दावा भी करते हैं। यह वस्तु सम्बन्धी तत्त्व मीमांसा (Ontology) है। बुद्धिवादी दार्शनिक देकार्त, स्पिनोजा आदि इसी प्रकार का प्रश्न हमारे सामने उपस्थित करते हैं। दूसरे हम स्वयं ज्ञान के बारे में भी विचार कर सकते हैं, अर्थात् हम यह प्रश्न कर सकते हैं कि हम उस वस्तु सम्बन्धी ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं या नहीं।
यह शुद्ध ज्ञान मीमांसा (Epistemology) का प्रश्न है। लॉक ने इसी प्रकार के प्रश्न को जन्म दिया। यह बुद्धि परीक्षा का प्रश्न है जो आगे चलकर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गया। लॉक से प्रभावित होकर काण्ट ने बुद्धि परीक्षा की तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी बुद्धि सीमित है। अनुभव के परे वस्तु अज्ञात तथा अज्ञेय है, ये यथार्थ ज्ञान के विषय नहीं।
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