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सिद्धांत निर्माण की प्रक्रिया को समझाइए

सिद्धांत निर्माण की प्रक्रिया को समझाइए

 

रॉबर्ट के. मर्टन ने समाजशास्त्रीय के सिद्धान्त निर्माण के निम्नलिखित स्तरों का उल्लेख किया है –

 

(1) पद्धति का चयन –

समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के निर्माण में शोध के लिए सबसे पहले यह निश्चित किया जाता है कि किन पद्धतियों के माध्यम से तथ्यों का संग्रह किया जाये। पद्धतियों का चयन या चुनाव उपकल्पना की प्रकृति पर आधारित होता है। समस्या के लिए तथ्यों को एकत्र करना आवश्यक होता है। तथ्यों को एकत्र करना जिस विधि से सरल हो जाता है, उसी पद्धति का चयन किया जाता है।

 

(2) सामान्य समाजशास्त्रीय उन्मेष –

अध्ययन करने के पहले सामान्य समाजशास्त्रीय स्वयंसिद्धों का प्रयोग किया जाता था उसके सन्दर्भ में समस्या का विवेचन किया जाता है।

 

(3) अवधारणाओं का विश्लेषण –

किसी भी शोध कार्य में कुछ न कुछ प्रत्ययों अथवा अवधारणाओं का प्रयोग किया जाता है। इन प्रत्ययों के अर्थ और संदर्भ का ठीक प्रकार से विश्लेषण एवं स्पष्टीकरण होना चाहिए। ऐसा करने से भ्रमों की उत्पत्ति नहीं होती है। बहतु से शब्द इस प्रकार के होते हैं कि बोलचाल की भाषा में उनका अर्थ लगाया जाता है तथा विज्ञान में कुछ और लगाया जाता है। इस प्रकार एक ही शब्द भिन्न-भिन्न विज्ञानों में भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकता है। इस प्रकार प्रत्ययों या अवधारणाओं विश्लेषण से श्रमों का निवारण हो जाता है।

 

(4) विषय-सामग्री का प्रदर्शन –

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की प्रतिस्थापना के यह जरूरी है कि एकत्रित आँकड़ों या विषय सामग्री का प्रदर्शन (व्याख्या) की जाये। विषय सामग्री समस्या के लिए प्रमाणों के रूप में प्रयोग की जाती है।

 

(5) सामान्यीकरण –

तथ्यों के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्ष या सामान्य नियम होते हैं, उन्हें निरूपित किया जाता है। इस प्रक्रिया को सामान्यीकरण कहते हैं। सामान्यीकरण प्रायः सार्वभौमिक होते हैं। मर्टन ने मध्य सीमा सामान्यीकरण का विचार पेश किया है।

 

(6) सैद्धान्तीकरण –

सामान्यीकरण के तर्कों के द्वारा परखा जाता है। सामान्यीकरण तर्क संगत पाये जाते हैं तथा उनमें तर्क साम्य होता है तो वह सिद्धान्त रूप में पेश किया जाता है। सिद्धान्त निर्माण की प्रक्रिया को सिद्धान्तीकरण कहा जाता है।

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त और शोध में अन्तःसम्बन्ध

किसी भी सिद्धान्त का ठीक प्रकार से विश्लेषण तभी किया जा सकता है जब  प्रयोग सिद्ध शोध द्वारा उसकी विश्वसनीयता की जांच की जा सके। समाज विज्ञानों में शोध एवं सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण भमिका होती है। सैद्धान्तिक ज्ञान के अभाव में शोध करना अत्यधिक कठिन हो जाता है। सिद्धान्त सामाजिक विज्ञान का आधार स्तम्भ है और शोध इस आधार स्तम्भ को मजबूती देता है। समाज वैज्ञानिक के मन में जब कोई कल्पना पैदा होती है तो वह अपनी शोध पद्धतियों के द्वारा उस कल्पना का परीक्षण करता है, परीक्षण पूरे होते जाते हैं। वैसे-वैसे कल्पना की विश्वसनीयता या आत्मविश्वसनीयता सिद्ध होती जाती है। सिद्धान्त शोध कार्य के लिए नयी समस्या नया क्षेत्र, नया दृष्टिकोण उपलब्ध कराते हैं । सामाजिक विज्ञान में जो नये शोध किये जा रहे हैं वह पहले से विद्यमान सिद्धान्तों के आधार पर ही हो रहे हैं। उदाहरणार्थ कार्लमार्क्स के वर्ग सिद्धान्त के आधार पर समाज में उत्पन्न संघर्ष का अध्ययन करना। प्रकार्यवादी सिद्धान्त के आधार पर वर्तमान समय में समाज भारत में अनेक शोध किये जा रहे हैं। इस सम्बन्ध में स्टैफेन एवं वासवी का कथन है कि “सिद्धान्त शोध के मार्गदर्शक का कार्य करता है। सैद्धान्तिक ज्ञान के आधार पर शोधकर्ता कम परिश्रम कम खर्च में अधिक क्षमता से अपना शोध कार्य परा कर सकता है।”

सिद्धान्त और शोध का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिस प्रकार शोध कार्य सिद्धान्त पर आधारित है, उसी प्रकार सिद्धान्त भी शोध पर आधारित है। सिद्धान्त को  वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए उसका परीक्षण एवं पुनः परीक्षण का कार्य शोध कार्य द्वारा  ही सम्भव होता है। इस प्रकार सिद्धान्त एवं शोध एक दसरे पर निर्भर हैं। जिस तरह शोध  में सिद्धान्त की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है उसी तरह सिद्धान्त के लिए शोध भी महत्त्वपूर्ण होता है।

See also  कार्ल मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धांत की विवेचना

सिद्धान्त शोध का आधार होता है। इसके पक्ष में निम्नांकित तर्क दिये जा सकते हैं –

1.सिद्धान्त शोध की उपयोगिता में वृद्धि करता है।

2. सिद्धान्त शोध के मार्गदर्शक का कार्य करता है तथा शोध को ज्ञान सामग्री की जानकारी देकर उसे मार्ग निर्देशित  करता है।

3.शोध जितने अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त पर आधारित होता है उसका निष्कर्ष उतना ही अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

4. शोध उन क्षेत्रों की जानकारी प्रदान करता है जिनमें नये शोधों की आवश्यकता होती है।

5. सिद्धान्त शोध की प्रासंगिकता को स्पष्ट करने में सहायता प्रदान करता है।

6. शोध का क्षेत्र असीमित होता है।

7.सिद्धान्त शोध के उद्देश्य क्षेत्र पद्धति एवं साधनों को निर्धारित शोध के क्षेत्र को सीमित कर देता है। सिद्धान्त शोध कार्य के लिए नवीन तथ्यों को प्रकट करता है। सिद्धान्त का महत्त्व तथ्यों के सम्बन्ध में अवबोध विकसित करने का तथा नये तथ्यों को प्रकाशित करने के कारण होता है।

8.सिद्धान्त शोध की विश्वसनीयता तथा वैधता को प्रमाणित करने में सहायता देता है।

9.सिद्धान्त व्याख्याओं के आधार घटनाओं के घटकों की भविष्यवाणी करता। जिसके आधार पर नवीन शोधों का मार्ग प्रशस्त होता है अर्थात सिद्धान्त भविष्यवाणी के द्वारा नये शोधों की शुरुआत करता है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सिद्धान्त का शोध कार्य में अत्यधिक महत्त्व है तथा सिद्धान्त शोध कार्य को प्रोत्साहन देता है।

शोध में सिद्धान्त का महत्त्व

 

शोध में सिद्धान्त के महत्त्व को सिद्ध करने के लिए मर्टन ने निम्नांकित छह आधारों का उल्लेख किया है-

1.अध्ययन पद्धति –

प्रत्येक विज्ञान की अपनी एक विशिष्ट अध्ययन पद्धति होती है जिसके द्वारा अनुसंधान कार्य किया जाता है। स्पष्ट अध्ययन पद्धति के अभाव में अनसंधान कार्य संभव नहीं है। मर्टन का कथन है कि “यदि समाजशासीय शोध में हम केवल पद्धति का प्रयोग करके कुछ सामान्य निष्कर्ष निकाल लेते हैं। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त इन निष्कर्षों को वास्तविक दिशा निर्देश करता है।

 

2. सामान्य दृष्टिकोण –

व्यक्ति सामान्य दष्टिकोण के द्वारा शोध की रूपरेखा का निर्माण करते हैं। सामान्य दृष्टिकोण के द्वारा उपकल्पना को निर्मित किया जाता है। यही उपकल्पना शोध का प्रमुख भाग होती है। शोध के द्वारा ही हम यह जान पाते हैं कि दृष्टिकोण वैज्ञानिक है या नहीं।

 

(3) समाजशास्त्रीय अवधारणा की व्याख्या –

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त कुछ अवधारणाओं के द्वारा निर्मित होते हैं । अवधारणाओं के स्पष्ट न रहने पर समाजशास्त्रीय सिद्धान्त मूल्यविहीन हो जाते हैं। उदाहरणार्थ हम पारिवारिक विघटन के अनेकों सिद्धान्तों को ले सकते हैं। इनमें यह एक प्रमुख समस्या है कि हम किस सिद्धान्त को सही माने  अत: किसी भी सिद्धान्त को सत्य सिद्ध करने के लिए शोध की आवश्यकता होती है। शोध के माध्यम से ही समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता एवं तार्किकता को परखा जा सकता है।

 

4. समाजशास्त्रीय निष्कर्ष-

शोध में पहले तथ्यों को इकटठा किया जाता है फिर इन इकटठा किये गये तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष प्राप्त किये जाते हैं। उदाहरण के लिए हम वेश्यावृत्ति की समस्या को ले सकते हैं। इसमें हम सबसे पहले वेश्यावृत्ति से सम्बन्ध रखने वाले तथ्यों को इकटठा करते हैं तत्पश्चात इन तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष प्राप्त करते हैं। समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के द्वारा हम लोगों को अनेक प्रतिस्थापनायें प्राप्त होती हैं। इनके आधार पर हम तथ्यों को इकट्ठा करते हैं। समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों में शोध का एक महत्त्व यह भी होता है कि इसके द्वारा हमको अनेक तर्क वाक्य भी प्राप्त होते हैं।

 

(5) प्रयोगसिद्ध सामान्यीकरण –

सामाजिक मान्यतायें दो तरह की होती है। इनमें एक मान्यता यह है कि हम प्रयोगसिद्ध सामान्यीकरण में दो या दो से अधिक कारकों के मध्य पाये जाने वाले सम्बन्धों की मान्यताओं की जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करते है। समाजशास्त्र में बहुत सी ऐसी मान्यताएं हैं जिन्हें समाजशासीय सिद्धान्तों में शामिल नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए हम आगबन का अमरीकी नगरों का निष्कर्ष तथा हालबैंक का सफेदपोश कर्मचारियों के सम्बन्ध में निष्कर्ष को ले सकते हैं। इन में कोई न कोई तर्क वाक्य अवश्य है जिसको प्रयोगसिद्ध शोध द्वारा प्रमाणित किय सकता है। समाजशास्त्रीय शोध अनेक तर्कवाक्य प्रदान करते हैं, जिन्हें शोध द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है।

See also  समाजशास्त्र की प्रकृति और समाजशास्त्र मुख्य विशेषताएं

 

(6) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त –

सामाजिक मान्यताओं में दूसरी मान्यता सिद्धान्त है। बहुत से सिद्धान्त ऐसे होते हैं जिन्हें अनेक सिद्धान्तों के निष्कर्ष के रूप में प्राप्त किया जाता है। कुछ सामाजिक सिद्धान्त इस प्रकार के भी होते हैं जिन्हें अनेक सामाजिक तर्क वाक्य से सम्बद्ध किया जा सकता है। इन तर्क वाक्यों का पुनः परीक्षण करने से मौलिक सिद्धान्त की पुष्टि के साथ-साथ नये सिद्धान्त की रचना भी संभव हो जाती है। अतः कहा सकते हैं कि किसी भी सिद्धान्त की रचना के लिए शोध की आवश्यकता अपरिहार्य है।

सिद्धान्त में शोध का महत्त्व

 

मटेन ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों में शोध को निम्नांकित बिन्दुओं द्वारा प्रकट किया हैं-

 

(1)आकस्मिक प्रतिमान –

मर्टन कहते हैं कि कभी-कभी शोध से प्राप्त निष्कर्ष सामाजिक सिद्धान्त के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। वे कहते हैं कि यदा-कदा कुछ ऐसे परिणाम मिल जाते हैं जिनके बारे में हम कोई कोशिश नहीं करते हैं। जब हम उन उपकल्पनाओं का परीक्षण करते हैं तो हमें कई ऐसे तथ्य प्राप्त हो जाते हैं जिनका पूर्व में. कोई अनुमान नहीं किया जाता है। इस प्रकार के नवीन तथ्य एक नवीन सिद्धान्त को विकसित करने या किसी वर्तमान सिद्धान्त को आगे बढ़ाने में सहायता प्रदान करते हैं। इस प्रकार के तथ्यों को आकस्मिक या अप्रत्याशित तथ्य कहा जाता है।

 

(2) सैद्धान्तिक पुनर्निर्माण –

मर्टन का विचार है कि जब तक प्रचलित सैद्धान्तिक धारणा संपूर्ण तथ्यों पर आधारित नहीं होती है तब तक यह संभावना बनी रहती है कि प्रचलित सिद्धान्त को नये रूप में प्रतिष्ठित कर दिया जाये। इस प्रक्रिया में शोध के अंतर्गत हम कुछ नये तथ्यों को सम्मिलित करते हैं। इस प्रकार में नवीन तथ्य अप्रत्याशित आश्चर्यजनक तथा अजूबे होते हैं जिन पर हमने पर्व में कोई विचार नहीं किया था। इसलिए शोध का कार्य है कि वह नवीन तथ्यों के रूप में प्रचलित सिद्धान्तों का विस्तार करे। मर्टन ने मेलिनोवस्की के ट्रोनिएण्ड जनजातियों के अध्ययन तथा अन्य अनेक उदाहरणों के माध्यम से अपने कथन को सिद्ध करने का प्रयास किया है।

 

(3) नवीन सैद्धान्तिक मोड़ –

जब नवीन तथ्यों का विश्लेषण किया जाता है तो उसके द्वारा नये सिद्धान्त की उत्पत्ति की सम्भावना पैदा हो जाती है। इसके साथ-साथ यह आवश्यक भी हो जाता है कि शोध कार्य के लिए नई शोध पद्धति को प्रयोग में लाया जाये। यह भी जरूरी है कि जब नई शोध पद्धतियों का निर्माण किया जाता है तो सिद्धान्तकारों का ध्यान उस पर भी पड़ता है। अतः सिद्ध है कि शोध कार्य प्रचलित सिद्धान्तों को नये रूप में प्रस्तुत करने में अपना योगदान देता है।

 

(4) अवधारणाओं को प्रकट करना –

शोध का मुख्य कार्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की अवधारणाओं को प्रकट करना है। अवधारणाओं को प्रकट करना समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए जरूरी है यह कार्य शोध कार्य के द्वारा ही किया जा सकता है।

 

 

इन्हें भी देखें-

 

 

 

 

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