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स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण समाज में परिवर्तन

ग्रामीण समाज में होने वाले परिवर्तन के विभिन्न पक्ष

परिवर्तन के कारकों और परिवर्तन की विधियों के अध्ययन के बाद अब हम ग्रामीण सामुदायिक जीवन के विभिन्न पहलुओं में हो रहे परिवर्तन का सिंहावलोकन करेंगे। यह परिवर्तन निम्नलिखित क्षेत्रों में स्पष्टतः देखा जा सकता है-

(1)जाति व्यवस्था –

ब्रिटिश शासन में गांवों में जाति व्यवस्था को बड़ा धक्का लगा। ब्रिटिश आर्थिक नीति तथा नये कानूनों के कारण विभिन्न जातियों अपने परम्परागत व्यवसाय को छोड़कर अन्य व्यवसाय करने लगी । बहुत से ब्राह्मण और क्षत्रिय भी खेती करने लगे। अस्पृश्य जाति के लोग कृषक दास बनते गये। जातीय पंचायतों का नियंत्रण ढीला पड़ने लगा। आजकल यह देखा जाता है कि गांव में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति से ही निश्चित न होकर उसके अपने व्यक्तित्व, आर्थिक स्थिति और कामों से भी निश्चित होती है । यद्यपि उच्च जाति के होने से ब्राह्मण को लोग नमस्कार करते हैं, क्योंकि धनिक शूद्र नीच जाति होकर भी कम सम्मान नहीं पाता । कहीं कही तो उसका सम्मान निधन ब्राह्मण से भी अधिक होता है। सरकारी कानूनों का सहारा पाकर नीचि जातियाँ अब अपने को नीचा नहीं समझतीं ।

दक्षिण भारत में कहीं-कहीं शूद्र जातियाँ ब्राह्मणों के स्पर्श को अपवित्रता मानती हैं । ब्राह्मण को उनके मुहल्ले में पहुंच जाने पर उसको झाडुओं से पीटा जाता है। कहीं-कहीं तो उनके छुए हुए स्थान को शुद्ध करने के लिए गोबर से लीपा भी जाता है । इस प्रकार से आजकल सभी जातियाँ अपना-अपना संगठन कर सुदृढ़ होती दिखलाई पड़ती हैं । निहित स्वार्थों के कारण जातिवाद बढ़ रहा है । हाल में चुनावों में यह देखा गया कि अधिकतर लोगों ने जाति के सदस्य को ही वोट दिया । राजनैतिक दलों ने भी ऐसे व्यक्तियों को टिकट दिया जिनकी जाति का उस चुनाव क्षेत्र में बहुमत था । पिछले चुनावों में ऐसा ही हुआ था और चुने हुए व्यक्तियों ने अपनी जाति को लाभ पहुंचाने की भरसक चेष्टा भी की थी । इस प्रकार राजनैतिक तथा अन्य स्वार्थों के कारण जातिवाद बढ़ता जाता है। सरकार और गैर सरकारी सभी तरह के कारखानों, दफ्तरों, विद्यालयों तथा अन्य कार्यों में अधिकतर अधिकारी गण अपने जाति, भाइयों को ही नौकरी देना बहुत जरूरी समझते है।

(2)जजमानी प्रथा –

इस प्रकार जाति व्यवस्था के विषय में तो निर्बलता और सबलता दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ दिखलाई पड़ती हैं । परन्तु जजमानी व्यवस्था निश्चित रूप से टूट रही है । जजमानी व्यवस्था जजमान द्वारा जमीन के शोषण पर आधारित थी। स्वतंत्र भारत में सभी नागरिकों के समान अधिकार घोषित किये जाने और सरकार की ओर से पिछड़े वर्गों में धीरे-धीरे आत्म सम्मान की भावना आती जा रही है आर उनके अन्य जातिया से जजमानी के सम्बन्ध टटते जा रहे हैं । दूसरे, गांवों में भी अब सेवाओ के बदले। मुद्रा देने का चलन होने से भी जजमानी व्यवस्था को धक्का लगा है । तीसरे, जाति की शक्ति क्षीण होने और व्यवसाय जाति पर आधारित न जाने के कारण भी सम्बन्ध टूट रहे हैं । फिर नगरों के पास के लोग नगरों में जाकर नौकरियाँ करने, यातायात की सुविधायें बढ़ जाने से ग्रामीण क्षेत्रों में भी गतिशीलता बढ़ रही है। कारकों से भी जजमानी व्यवस्था को धक्का लगा है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि से जजमानी प्रथा बिल्कुल ही उठ गयी हो । ग्रामीण समुदायों के हाल के सभी अप में उनमें जजमानी प्रथा दिखलाई पड़ी है यद्यपि उसके निर्बल होते जाने के चिन्ह  अधिकतर अध्ययनों में देखे गये हैं।

(3)परिवार –

यद्यपि गांवों में संयुक्त परिवार अब सम्मान की दृष्टि से देखे जान हैं परन्तु फिर भी अब वे ग्रामीण समुदाय की इकाई नहीं रहे । उनका स्थान एकाकी परिवारी ने ले लिया है। वंश पर आधारित समहों के स्थान पर हितों पर आधारित समूह दृढ होते। जा रहे हैं । व्यक्तिवाद बढ़ने से परिवार छोटे होते जा रहे हैं । सदस्यों का परिवार पर नियंत्रण पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है । शहरों की तरह गांवों में परिवार के अनेक काम अन्य समितियाँ लेने लगी हैं । उदाहरण के लिए जिन गांवों में आटा की चक्की लग गयी है वहां आटा घरों में न पीसा जाकर अधिकतर चक्की पर पिसवाया जाता है । स्त्रियों की शिक्षा बढ़ने से और उनको अनेक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक अधिकार मिलने से उनमें जागृति आ रही है और परिवार में उनकी स्थिति पहले से बेहतर होती जा रही है।

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(4)रीति-रिवाज –

ग्रामीण सामाजिक जीवन के रीति-रिवाजों में बराबर अंतर हो रहा है। जाति के पंचों का सम्मान कम होता जा रहा है । सामाजिक तथा अन्य उत्सवों पर खर्च को कम करने का प्रयास दिखलाई पड़ता है । मृत्यु, नामकरण, सीमांत आदि विभिन्न । संस्कारों के अवसरों पर खर्च घटे हैं । दहेज के कारण विवाह में खर्च बढ़ गये हैं। गांव में पर्दे का रिवाज अब भी काफी है, परन्तु उसका इतनी कठोरता से पालन नहीं किया जाता है । बालकों को पढ़ाने का रिवाज बढ़ता जा रहा है । लड़कियों में भी शिक्षा बढ़ रही है । इधर गांवों  में गांधी चबूतरे बढ़ते जा रहे हैं शिक्षा के प्रसार से अंधविश्वास कम होते जा रहे हैं। ।

(5)खान-पान और वेश-भूषा –

जैसा कि पहले बताया जा चका है कि विभिन्न जातियों में परस्पर खान-पान सम्बन्धी नियम ढीले ग्रपड़ते जा रहे हैं, गांवों में सब्जी, गेहूँ और दूध आदि का उपयोग बढ़ रहा है । यद्यपि शहरो के पास के गांवों में इनमें से अधिकांश शहरों में जाकर बेच दिया जाता है । गांव में उपयोग भी बढ़ता जा रहा है । कम से कम ऊंचे वर्गों में इसका प्रयोग अधिक देखा जा सकता है । गांव में चाय चीनी और तम्बाकू का प्रयोग निश्चय ही पहले से बढ़ा है । गांव में कुछ परिवारों में साल भर में चाय भी जाती है । गांव में वनस्पति घी का प्रयोग भी बढ़ता जा रहा है।

गांव के स्त्री-पुरुष तथा बालकों की वेशभूषा में भी निरन्तर अन्तर आता जा रहा। है। पुरुषों में साफे के स्थान पर गांधी टोपी का रिवाज बढ़ रहा है । लड़कियों को फ्राक अधिक पहनाएँ जाने लगे है । लड़के हाफ पैण्ट भी पहनने लगे हैं । औरतें ब्लाउज पहनने लगी हैं तथा लहंगा का रिवाज कम होता जा रहा है । पहले लोग अधिकतर हाथ का बना। कपड़ा पहनते थे, अब अधिकतर मिल का बुना हआ कपडा इस्तेमाल किया जाता है । गांव की स्त्रियों में कृत्रिम सिल्क के कपड़ों, रोल्ड-गोल्ड के जेवर तथा सस्ते प्रसाधन की खपत भी बढ़ती जा रही है । चांदी के भारी जेवरों का रिवाज कम होता जा रहा है । लडकों में  नंगे सिर रहने का रिवाज भी बढ़ रहा है । पढ़े-लिखे नवयुवक कोट-पैंट पहनते भी देखे। जा सकते हैं । खादी का इतना अधिक प्रचार किये जाने पर गांवों में मोटे कपड़े की खपत कम और बारीक कपड़े की खपत अधिक होती जा रही है।

(6)आवास –

यद्यपि गांवों में आवास की दशा अब भी बहुत खराब है, फिर भी आवास पहले से बेहतर होते जा रहे हैं । गांव में पक्के मकानों की संख्या बढ़ती जा रही है। मकान पहले से अधिक हवादार और साफ दिखलाई पड़ते हैं । मकानों में आराम के साधन पहले से अधिक है जहां-जहां गांवों में बिजली पहुंच गयी है, वहां कुछ समृद्ध घरों में रेडियो और बिजली के पंखे भी देखे जा सकते हैं । मकानों के नक्कासी का रिवाज कम होता जा रहा है क्योंकि इसमें व्यय अधिक होता है । मकान बनाते समय रोशनी और हवा का ध्यान रखा जाता है । अधिकतर नये घरों में रसोई और उनमें धुआँ निकालने की जगह देखी जा। सकती है । कुछ घरों में गुसलखाने भी मिलेंगे। गांव में हाथ के नलों का रिवाज भी बढ़ता जाता है । परन्तु गांव के अब भी अधिकतर घरों में पाखाने नहीं होते और जहां होते भी हैं, उनमें केवल खियाँ ही और वे भी कभी-कभी जाती हैं । पहले घरों में फर्श कच्चे होते थे, अब बहुत से घरों में इंटों के या सीमेंट के फर्श देखे जा सकते हैं । मकानों में सीमेंट का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। मकानों की छतें पहले फस या खपरैल की होती थी ।

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(7)साक्षरता-

गांवों में स्त्री-परुष लडके-लड़कियों सभी में साक्षरता बढ़ रही है। बुनियादी शिक्षा तथा समाज शिक्षा बढ़ती जा रही है । अनेक राज्य प्रत्येक बालक-बालिका के लिए मुफ्त अनिवार्य शिक्षा का आयोजन करने के लिए प्रयत्नशील है । गांव के बहुत से  युवक उच्च शिक्षा प्राप्त करने नगरों में जाने लगे हैं । बड़े-बड़े गांव में केवल हाईस्कूल ही नहीं बल्कि इंटरमीडिएट कालेज भी देखे जा सकते हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक ग्रामीण संस्थाएँ, कृषि कालेज और डिग्री कालेज भी स्थापित किये गये हैं।

(8)आर्थिक क्षेत्र –

गांवों में रहन-सहन का स्तर बढ़ रहा है, जिसमें नयी-नयी चीजों की मांग पैदा हो रही है और फलस्वरूप गांवों में उनकी दुकानें भी खुल रही है । शिक्षित ग्रामीण नवयुवक को नौकरी की ओर अधिक झकाव है । कृषि में नवीन औजारों का प्रयोग बढ़ रहा है । नये औजारों, नये बीज और खेती के नये तरीकों से उपज बढ़ रही  है । गांवों में सरकारी समितियाँ खुलने से छोटे व्यवसायों की दशा में सुधार हुआ है । सहकारी उधार समितियों अनाज बैंकों और सरकारी बैंकों के खुलने से पूंजी दशा पहले से बेहतर है और ऋणग्रस्तता कम है । सरकारी सहायता से कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिला है । प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है परन्तु साथ ही चीजों के दाम भी बढ़े हैं । मध्यवर्तियों के हट जाने से किसानों तथा छोटे व्यवसायियों की दशा सुधरी है।

(8)राजनैतिक क्षेत्र –

पंचायतों की स्थापना से गांवों में राजनैतिक चेतना बढ़ी है। वयस्क मताधिकार से गांव वाले भी सरकार के कार्यों की आलोचना करने लगे हैं । कहीं। गांवों में अखबार भी पहुंचते हैं। अखबार और रेडियो की सहायता से अब गांवों का राजनैतिक ज्ञान बढ़ रहा है । परन्तु राजनीतिक दलों ने गांव में फूट और गटबन्दी भी उत्पन्न की है । देश की आजादी के बाद अब गांव वाले सरकारी कर्मचारियों से उतना नहीं डरते, जितना पहले डरते थे। पंचायतें होने पर इधर गांव में मुकदमेबाजी बढ़ी है । राष्ट्रीय चेतना जाग्रत होने पर भी सामुदायिक भावना कम हई है। सहकारिता बढ़ने पर स्वार्थपरता  या व्यक्तिवाद भी बढ़ता गया।

स्पष्ट है कि भारत के ग्रामीण समदाय में तीव्रता से परिवर्तन होते जा रहे हैं। ग्रामीण लोग जो पहले नागरिक जीवन से पर्याप्त परे व अलग-अलग से रहते थे, अब उनके सामाजिक जीवन में गतिशीलता आती जा रही है । नगरो के पास के ग्रामों में रहन-सहन, खान-पान, जीवन पद्धति आदि में रोमांचकारी परिवर्तन देखने को मिलते हैं और नागरिक जीवन वृहत्परम्पराओं का स्वरूप अधिकॉशतया स्थानीय (Local) ही होती है । अर्थात् इनका प्रचलन विस्तृत और व्यापक नहीं होता है । भारतीय समाज में होली, दीपावली, दशहरा, रक्षाबन्धन आदि के पर्व वस्तुत: वृहतम्परम्पराओं से सम्बन्धित त्योहार होते हैं । जबकि इनके अतिरिक्त अन्यान्य ऐसे स्थानी त्योहार भी कम नहीं है, जिनको लघु परम्पराओं के आधार पर न मनाया जाता हो ।

वृहत्तर भारतीय समाज में स्थानीयकरण और संस्कृतिकरण की प्रक्रिया भी स्थानीय समुदायों को वृहत्परम्परा की दिशा में ले जा रही है जबकि सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप भी लघु परम्पराओं को व्यापक और विस्तत होने के अवसर प्राप्त हो रहे हैं । चूंकि लघु परम्पराएँ प्रत्येक स्थान पर सभ्यता की स्थानीय प्रक्रिया की देन होती है, इसलिए उनसे सम्बन्धित तत्वों का पूर्णतया परित्यक्त तो नहीं किया जाता, अपितु वृहत्परम्परा के विभिन्न तत्वों के साथ तादात्मीकरण अवश्य होता है।

 

 

 

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