अलाउद्दीन दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन का भतीजा व दामाद था। निरक्षर होते हुए भी उसनें सामारिक प्रवृत्ति एवं प्रतिभा का अभाव नहीं था। अपने चाचा जलालुद्दीन के सिहासनारूढ़ होते ही उसने अमीर-इतुजक का पद प्राप्त किया। कुछ समय बाद ही वह कड़ा-मानिकपुर का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया। सन् 1292 ई0 में सुल्तान की आज्ञा से उसने मालवा पर आक्रमण किया और भिलसा नगर को जीतकर वहाँ से बहुत-सा धन तथा बहुमूल्य वस्तुएँ लूट लाया। इससे प्रसन्न होकर सुल्तान ने उसे कड़ा के अतिरिक्त अवध का भी गर्वनर बना दिया।
1294 ई0 में उसने देवगिरि पर आक्रमण किया और वहाँ से विपुल सम्पत्ति लेकर कड़ा लौट गया। इस असाधारण विजय से अलाउद्दीन मदान्ध हो गया, अब वह दिल्ली के सिंहासन को प्राप्त करने की अभिलाषा करने लगा. फलतः 19 जुलाई 1296 ई0 को अपने चाचा जलालुद्दीन के साथ विश्वासघात करके कड़ा के निकट उसकी हत्या करवा दी और स्वयं दिल्ली का सुल्तान बन बैठा।
अलाउद्दीन की प्राम्भिक कठिनाइयाँ
दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने के उपरान्त अलाउद्दीन ने अपने आपको संकटमय परिस्थितियों से घिरा हुआ पाया। पर इल्तुतमिश की भाँति अलाउद्दीन ने भी शक्ति तथा दृढ़ संकल्प के साथ इन कठिनाइयों का सामना किया
(1) सबसे पहले अपनी प्रजा को प्रसन्न करने तथा अपने घृणित अपराध को भुलाने के हेतु अलाउद्दीन ने देवगिरि से लाई गई अपार सम्पत्ति को पानी की तरह वितरित किया। जनता उसके विश्वासघात तथा अकृतज्ञता को भूल गई और उसकी उदारता की प्रशंसा करने लगी। उसने जलाली अमीरों को पुरस्कार देकर तथा पद-वृद्धि कर शान्त किया।
(2) अलाउद्दीन के शासनकाल में मंगोलों के कई भीषण आक्रमण हुए। उसके आक्रमणों को रोकने के लिए उसने सीमान्त प्रदेशों की किलेबन्दी की और सैनिक दल नियुक्त किये, दुर्गों का जीर्णोद्धार किया और नये दुर्ग बनवाये। मंगोलों का अन्तिम आक्रमण सन् 1307 ई० में हुआ। मंगोलों का नेता परास्त हुआ और मारा गया। सहस्रों मंगोलों का वध कर दिया गया तथा बन्दी मङ्गोल हाथी के पाँव तले कुचलवा दिये गये। इसका परिणाम यह हुआ कि इसके बाद मंगोलों ने कभी हिन्दुस्तान का नाम अपने ओठों पर नहीं आने दिया और सीमान्त प्रदेशों में विचरण करने का साहस नहीं किया। देश में शान्ति छा गई और अब सुल्तान को अन्य देशों को विजय करने का अवकाश मिल गया।
अलाउद्दीन की विजयें
अलाउद्दीन एक महात्वाकांक्षी शासक था। अपने शासन काल के प्रारम्भ में अनेक सफलताएँ पाने के कारण उसकी आकांक्षाएँ और भी उद्दीप्त हो गईं। वह नया धर्म चलाने तथा सिकन्दर महान् की भाँति विश्व को जीतने का स्वप्न देखने लगा। वूल्जले हेग का कहना है कि यही से ‘सल्तनत का साम्राज्यवादी युग’ प्रारम्भ होता है।
दक्षिण भारत की विजय
भारत पर अधिकार कर लेने के बाद सुल्तान ने दक्षिण की ओर ध्यान दिया। अलाउद्दीन दक्षिण की विपुल सम्पत्ति को हस्तगत करना चाहता था। इसके अतिरिक्त दक्षिण विजय के राजनीतिक एवं धार्मिक कारण भी थे। दक्षिण प्रदेशों पर चढ़ाई करने वाला वह पहला मुसलमान बादशाह था। उस समय दक्षिण में चार शक्तिशाली हिन्दू राज्य थे।
1. देवगिरि की विजय (1307-1308 ई०)-
देवगिरि के शासक रामचन्द्र ने सन् 1294 ई० में अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली थी परन्तु उसने तीन साल से दिल्ली को कर नहीं भेजा था। अतः सुल्तान के आदेश से गुलाम सेनापति काफूर ने देवगिरि पर चढ़ाई कर दी। राजा युद्ध में हारा और बन्दी बनाकर दिल्ली भेज दिया गया। लूटेरों के हाथ गुजरात के शासक कर्णदिव की पुत्री देवलदेवी लग गई, जिसे दिल्ली ले जाकर उसका खिज्र खाँ के साथ ब्याह कर दिया। अलाउद्दीन ने रामचन्द्र के साथ अच्छा व्यवहार किया और उसका राज्य उसे लौटा दिया। रामचन्द्र ने अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली।
(2) बारंगल की विजय (1309-1310 ई०)-
1309 ई० में काफूर ने वारङ्गल के काकतीय राजा पर चढ़ाई कर दी। यहाँ का राजा प्रताप रुद्रदेव था। राजा की हार हुई और उसने संधि की प्रार्थना की। काफूर ने भारी सम्पत्ति लेकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
(3) द्वारसमुद्र की विजय (1311 ई० )-
इसके बाद काफूर ने द्वारसमुद्र राज्य पर चढ़ाई कर दी। यहाँ का राजा वीर बल्लाल तृतीय पराजित हुआ और उसने मुसलमानों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
(4) मदुरा की विजय (1311 ई०)-
द्वारसमुद्र से काफूर ने मदुरा के लिए प्रस्थान किया। पाण्डयराज्य की राजधानी मदुरा में जब काफूर पहुंचा तो वहाँ का शासक राजधानी छोड़कर भाग गया। काफूर ने मदुरा को बुरी तरह लूटा । इन विजयों के बाद (1312 ई०) काफूर विपुल सम्पत्ति के साथ दिल्ली लौट आया।
(5) देवगिरि पर पुनः आक्रमण (1312 ई०)-
देवगिरि पर सन् 1312 ई० में पुनः आक्रमण किया गया। उसका कारण यह था कि यहाँ का नया शासक शंकरदेव तुर्को की अधीनता का घोर विरोधी था। उसने वार्षिक कर देना बन्द कर दिया था। फलतः काफूर ने सम्पूर्ण महाराष्ट्र को रौंद डाला। शंकरदेव पराजित हुआ और मारा गया। काफूर ने गुलबर्गा और कृष्ण तथा तुंगभद्रा के बीच के प्रदेशों को हस्तगत कर लिया।
दक्षिण-विजय का परिणाम-
इन विजयों के परिणामस्वरूप लगभग समस्त दक्षिण भारत अलाउद्दीन के अधिकार में आ गया। परन्तु अलाउद्दीन ने दक्षिण के प्रदेशों को अपने साम्राज्य में सम्मिलत नहीं किया। समुद्रगुप्त की भाँति उसने भी दक्षिण के राज्यों को वहाँ के शासकों को ही लौटा दिया था। यह उसकी दूरदर्शिता का परिणाम है। दक्षिण से उसे विपुल सम्पत्ति मिली, जिसका प्रयोग उसने शासन को दृढ़ करने में किया।
विद्रोहों का दमन
अलाउद्दीन के शासन काल के प्रारम्भिक दिनों में षड्यन्त्र एवं राजद्रोह के कारण अशान्ति रही। अतः अपने मित्रों की सलाह से सुल्तान ने राजनैतिक विद्रोहों के कारणों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया और षड्यन्त्रों एवं राजद्रोहों को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किये –
(अ) अमीरों तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों से ‘मिल्क’, ‘इनाम’ तथा ‘वक्फ’ के रूप में दी गई भूमि छीन ली गई। जलाली सरदारों की विपुल सम्पत्ति छीनकर राजकीय सम्पत्ति में सम्मिलित की गई। इस प्रकार इन सरदारों की जड़ एवं शाखाएं काट डाली गईं।
(ब) गुप्तचर विभाग का संगठन किया जिनकी सहायता से सुल्तान अपने कर्मचारियों, प्रजा तथा अमीरों के कार्यों की जानकारी प्राप्त करता था। इससे अमीर आतंकित हो गये।
(स) सुल्तान ने स्वयं मदिरापान को त्याग दिया और दिल्ली में मद्यपान निषेध कर दिया।
(द) सुल्तान ने अमीरों के सामाजिक सम्मेलन बन्द कर दिये।
अलाउद्दीन का शासन-प्रबन्ध
(1) धर्म को राजनीति से अलग करना-
अलाउद्दीन राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धान्त का समर्थक था। उसने राज्य के मामलों में धर्म के आचार्यों का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया। फलतः शासन के कार्यों में उलेमा एवं मौलवियों का हस्तक्षेप समाप्त हो गया।
(2) हिन्दुओं के प्रति व्यवहार-
हिन्दुओं का दमन करने के लिए सुल्तान ने उनके साथ विशेष कठोरता का व्यवहार किया। उसने हिन्दुओं पर ‘जजिया’ के अलावा अन्य कर भी लगाये।
(1) उन्हें उपज का 50 प्रतिशत भूमि-कर के रूप में देना पड़ता था।
(2) चारागाहों, पशुओं पर भी कर लगाये गये।
(3) गृहकर भी वसूल किया जाने लगा। इसका परिणाम सर वूल्जले हेग के शब्दों में यह हुआ कि “सम्पूर्ण राज्य में हिन्दू दुःख और दरिद्रता में डूब गया।”
(3) सैनिक संगठन-
साम्राज्यवादी नीति अपनाने तथा देश की बाह्य आक्रमणों एवम् आन्तरिक विद्रोहों से रक्षा करने के लिए अलाउद्दीन ने एक स्थायी सेना का संगठन किया। सैनिकों की भर्ती योग्यता के आधार पर की जाती थी। सैनिकों को नियमित रूप से नकद वेतन दिया जाने लगा और शाही सेना में निपुण एवम् अनुभवी सेनानायकों को नियुक्त किया गया। उसने घोड़ों को दागने तथा सैनिकों की हुलिया रखने की प्रथा चलाई। सेना का संगठन, साज-सज्जा तथा अनुशासन की ओर अलाउद्दीन ने स्वयं बहुत ध्यान दिया। उसकी शक्तिशाली सेना उसकी निरंकुशता का आधार थी।
(4) भूमि सुधार-
राज्य की आमदनी बढ़ाने के उद्देश्य से अलाउद्दीन ने अपनी भूमि कर व्यवस्था में कई सुधार किये। पेंशन, माफी अथवा जागीर में दी गई सारी भूमि सरकार के अधिकार में आ गई। भूमि की नाप की गई और तब भूमि-कर निश्चित किया गया। भूमिकर की दर भी अपेक्षाकृत अधिक थी। दोआब में यह दर उपज का 500 प्रतिशत थी। भूमि कर नकद अथवा अनाज के रूप में दिया जा सकता था। भूमि-कर वसूल करने में सख्ती की गई। इसके कर्मचारियों के विशेषाधिकार छीन लिये गये और उन्हें, नकद वेतन दिया जाने लगा। इन सबके कारण सरकार की आय में काफी वृद्धि हुई।
(5) बाजार का नियन्त्रण-
विशाल सेना के पोषण के लिए सुल्तान ने बाजार नियन्त्रण करना आवश्यक समझा। अत: उसने निम्नलिखित सुधार किये :-
(1) सुल्तान ने दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं का मूल्य घटाकर इतना सस्ता कर दिया कि सैनिक कम वेतन में ही आराम से जीवन निर्वाह कर सकें। दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं के भाव निश्चित कर दिये। निश्चित मूल्य से अधिक लेने वालों को कड़ी सजा दी जाती थी। भूमि-कर अन्न के रूप में वसूल किया जाने लगा और वह शाही भण्डारों में एकत्र किया जाता था।
(2) बाजार नियन्त्रण के लिए ‘दीवान-ए रियासत’ तथा ‘शहना-ए-मण्डी’ नामक पदाधिकारियों की नियुक्ति की गई। सभी व्यापारियों को अपना नाम इसके ‘दफ्तर’ में रजिस्टर्ड करवाना पड़ता था।
(3) बाजार नियन्त्रण के नियमों को भंग करने वालों को कटोरतम दण्ड दिया जाता था। कम तौलने वाले का कमी के बराबर माँस काट लिया जाता था।
(4) बाजार में दलालों की धूर्तता का दमन कर दिया गया।
(5) मुल्तानी व्यापारियों को राजकीय खजाने से उधार भी दिया जाता था।
(6) बिना आजा के कोई बहुमूल्य चीजें नहीं खरीद सकता था।
सुधारों का परिणाम-
अलाउद्दीन के सुधार अत्यन्त सफल रहे। इनके परिणामस्वरूप जन-जीवन अधिक सरल एवं सुखी हो गया और केन्द्रीय शासन सुदृढ़ हो गया। शांति एवं सुरक्षा स्थापित हो गई।
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