शिक्षा एवं राष्ट्रीय विकास
शिक्षा राष्ट्रीय विकास की आधारशिला होती है। जिस राष्ट्र के नागरिक शिक्षित होंगे वह देश अपना विकास सुनियोजित ढंग से कर सकेगा तथा इसके विपरीत अगर राष्ट्र के नागरिक निरक्षर व अनपढ़ होंगे, तो वे अपना स्वयं का ही विकास भलीभांति नहीं कर पायेंगे, फिर वे राष्ट्र के विकास में किस प्रकार सहयोग दे पायेंगे? अतः शिक्षा के द्वारा प्रत्येक नागरिक को एक निश्चित स्तर पर अनिवार्य रूप से शिक्षित करना होगा, ताकि वे स्व-विकास करते हुए राष्ट्रीय विकास में पूर्ण भागीदार बन सकें।
शिक्षित नागरिक में सोचने-विचारने तथा भले-बुरे की पहचान करने की क्षमता जाग्रत हो जाने के फलस्वरूप वे देश के भावी विकास के सम्बन्ध में पूर्ण सफल रहेंगे तथा राष्ट्र के सभी नागरिक मतदान द्वारा योग्य, सच्चरित्र एवं कुशल नेताओं का चुनाव करके ऐसी सुव्यवस्थित सरकार का निर्माण कर सकेंगे, जिनके द्वारा राष्ट्र का विकास होना निश्चित है। शिक्षित नागरिक कृषि तथा अन्य व्यवसायों में आधुनिक तकनीक एवं शोध परिणामों का उपयोग कर उत्पादन में वृद्धि करके राष्ट्रीय विकास में सहयोग देने में सफल हो सकेंगे। देश की औद्योगिक प्रगत्ति में शिक्षित नागरिक महत्त्वपूर्ण योगदान देकर देश के औद्योगिक विकास को गति दे सकने में समर्थ होंगे। शिक्षा द्वारा राष्ट्र के नागरिकों में ऐसी चेतना जाग्रत की जा सकती है कि वे पर्यावरण संरक्षण, परिवार कल्याण जनसंख्या नियंत्रण आदि महत्वपूर्ण कार्यों में सहयोगी बनकर राष्ट्रीय विकास की धारा से जुड़ पायेंगे।
भारतीय विचारधारा के अनुसार मनुष्य स्वयं एक अमूल्य सम्पदा है, अमूल संसाधन है। जरूरत इस बात की है कि उसकी परवरिश गतिशील एवं संवेदनशील हो तथा सावधानी से की जाए। विकास की इस पेचीदा और गतिशील प्रक्रिया में शिक्षा अपना उत्प्रेरक योगदान दे सकती है। इसके लिए बहुत सावधानी से राष्ट्रीय शिक्षा की योजना बनाने और उस पर पूरी लगन के साथ अमल करने की आवश्यकता है। शिक्षा के द्वारा नागरिकों में राष्ट्रीय मूल्यों को हर इंसान की सोच और जिन्दगी का हिस्सा बनाया जा सकता है, तथा हमारी समान सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रखने की भावना, लोकतंत्र ओर धर्म निरपेक्षता में दृढ़ आस्था एवं वैज्ञानिक तरीकों के अमल करने की क्षमता पैदा की जा सकती है, जो राष्ट्रीय विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
शिक्षा के द्वारा ही नागरिकों में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के आदर्शों को संजोया जा सकता है। शिक्षा के माध्यम से ही नागरिकों में सामाजिक माहौल का विकास और जन्म के संयोग से उत्पन्न पूर्वग्रहों और कुंठाओं को दूर किया जा सकता है। अतः शिक्षा की ऐसी योजना निर्मित की जाए, जो प्रत्येक नागरिक को समान रूप से शिक्षित कर सके, जिससे राष्ट्रीय विकास का मार्ग प्रशस्त हो।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत में शिक्षा के उद्देश्य
मानव इतिहास के आदिकाल से शिक्षा का विभिन्न तरीकों से विकास एवं प्रसार होता रहा है। प्रत्येक राष्ट्र अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता को अभिव्यक्ति देने और विकसित करने के लिए तथा साथ ही समय की चुनौतियों का हिम्मत से सामना करने के लिए अपनी विशिष्ट शिक्षा प्रणाली का विकास करता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत एक सार्वभौम सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बना। भविष्य में जनतंत्र की बागडोर उन नागरिकों के हाथ में होगी जो आज के विद्यालयों में अध्ययनरत हैं। भारत की जनतांत्रिक सरकार ने शिक्षाशास्त्रियों, दार्शनिकों तथा समाज सुधारकों को भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा का पुनर्निर्माण करने हेतु आमंत्रित कर, शिक्षा को समय की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने का प्रयास किया है। शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण वर्तमान की आवश्यकताओं तथा भविष्य में होने वाले सामाजिक परिवर्तनों को ध्यान में रखकर किया जाता है। अतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण से पूर्व समाज एवं राष्ट्र की आवश्यकताओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।
वर्तमान में शैक्षिक आवश्यकताएँ
वर्तमान परिस्थितियों ने शिक्षा को एक दोराहे पर ला खड़ा कर दिया है। अब न तो इसके सामान्य विस्तार से ओर न ही सुधार के वर्तमान तौर-तरीकों की रफ्तार से काम चलने वाला है। आज भारत राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से और से गुजर रहा है, जिसमें मूल्यों के हास का खतरा बढ़ गया है और समाजवाद, धर्म-निरपेक्षता, लोकतंत्र, आर्थिक विकास ओर नैतिकता के लक्ष्यों की प्राप्ति में लगातार बाधाएँ आ रही हैं। हालाँकि भारत ने पिछले 40 वर्षों में लगभग सभी क्षेत्रों में आशातीत प्रगति कर नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं, फिर भी निर्धनता, बेकारी, कमजोर वर्गों का शोषण, अन्याय और असुरक्षा का प्रसार हुआ है तथा धन की लिप्सा के कारण मानव मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है। शिक्षा और जन-सुविधाएँ महँगी और दुर्लभ बन गई हैं और समाज में भ्रष्टाचार विरोधाभास असहायता और भविष्य के प्रति चिन्ता बढ़ी है।
देहातों में दैनिक उपयोग की सहूलियतों के अभाव में पढ़े-लिखे युवक गाँवों में रहने को तैयार नहीं हैं। हमारी शिक्षा की आम स्थिति, उसकी किस्म, उसके आदर्श, उसकी सामान्य प्रक्रिया एवं आधुनिकता के स्तर में काफी गिरावट आई है। हमारी शिक्षा अनेकानेक कसौटियों पर विफल सिद्ध हो रही है, और प्रायः सभी नेतागण, विचारक ओर शिक्षाशास्त्री इसकी कमियों और बुराइयों को गिनाते हुए थकते नहीं हैं। जनसंख्या की बढ़ती हुई रफ्तार बेकाब होती जा रही है। हमें निःसंदेह आत्म-दर्शन (Introspection) की आवश्यकता है, तथा शिक्षा की ऐसी व्यवस्था करनी है, ताकि हम देश का भविष्य उज्ज्वल बना सकें और भावी पीढ़ी को भयंकर विनाश एवं असंतोष की घाटियों में गिरने से बचा सकें।
शिक्षा किसके लिए?
राष्ट्र को ऐसे 80 प्रतिशत शोषित और अभावग्रस्त लोगों, जिन्हें रोटी, कपड़ा और सम्मान का जीवन उपलबध नहीं है, के लिए समचित शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करनी है। 1981 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि देश में कुल 46.74 प्रतिशत पुरुष और 24.88 प्रतिशत स्त्रियाँ साक्षर थीं तथा अब अशिक्षितों की कुल संख्या घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है।
कितनी शिक्षा हो?
हमें हर स्तर पर शिक्षा चाहिए- हर वर्ग के लिए शिक्षा सुलभ हो। हमें उच्च स्तर के लिए सार्थक शिक्षा की आवश्यकता है। हमें ऐसी ठोस प्रकार्यात्मक शिक्षा चाहिए, जो प्रत्येक भारतवासी नर और नारी और बालक के जीवन में उपयोगी सिद्ध हो, जिससे कि वह वर्तमान भारतीय समाज की प्रगति व समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान कर सकें।
शिक्षा के उद्देश्य क्या हों?
आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा का वर्तमान प्रारूप बैंकिंग प्रारूप को त्यागकर शिक्षा के अन्तःकरण को झकझोरने वाला प्रारूप (Containerization model) लाया जाए। गाँधीजी के बुनियादी शिक्षा सम्बन्धी विचार तथा गरीबों के हित की कसौटी को भी इस सम्बन्ध में याद रखा जाना चाहिए। इसलिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय शिक्षा के निम्नांकित उद्देश्य होने चाहिए-
(1) शिक्षा को जनसाधारण के हित के लिए उपयोगी बनाने का प्रयास किया जावे।
(2) शिक्षा को वर्तमान शोषण की अवस्था में मुक्ति पाने की प्ररेणा, ज्ञान तथा सक्रिय सहायता का माध्यम बनाया जावे।
(3) राष्ट्रीय एवं मानवीय मूल्यों को प्रत्येक नागरिक के सोच और जीवन का अंग बनाया जावे।
(4) आपसी भाईचारा, विश्व-बन्धुत्व और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना को विकसित करना।
(5) सीखने का पर्यावरण समाज में सर्वत्र विकसित करना।
(6) व्यावसायिक कुशलता एवं कशल जीवनयापन कला में प्रत्येक नागरिक को प्रशिक्षित करना।
(7) सामाजिक माहौल और जन्म के संयोग से उत्पन्न पूर्वाग्रह और कुंठाओं को दूर करना।
(8) शिक्षा के सभी कार्यक्रमों को धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के अनुरूप बनाने का प्रयास करना।
(9) युवा वर्ग को अपनी कल्पना और सूझ-बूझ के अनुसार देश की महिमा और गरिमा की पहचान के लिए प्रोत्साहित करना।
(10) शैक्षिक शोधों व सर्वेक्षणों द्वारा वास्तविक मौलिक तथ्यों को एकत्र करने हेतु सक्षम बनाना।
(11) पर्यावरण संरक्षण एवं जन-शिक्षा के प्रति नागरिकों में सही चेतना जाग्रत करना।
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