निबन्धात्मक परीक्षाएँ क्या है?

निबन्धात्मक परीक्षाएँ क्या है? | निबन्धात्मक परीक्षाओं की विशेषताएँ एवं सीमाएँ | Essay Type Test in Hindi

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निबन्धात्मक परीक्षाएँ(ESSAY TYPE TEST)

निबन्धात्मक परीक्षाओं का उपयोग अत्यन्त प्राचीन समय से किया जाता है। 200 वर्ष पूर्व इनका सर्वप्रथम प्रयोग अधिकारियों के चयन हेतु चीन में किया गया। सन् 1854 में होकर मन (Horack Mann), ने अमेरिका में इस प्रकार की परीक्षाओं के प्रयोग का प्रयास किया। तत्पश्चात धीरे-धीरे लगभग समस्त कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में इनका प्रयोग किया जाने लगा। आज के इस औद्योगिक एवं वैज्ञानिक युग में तो इनकी उपयोगिता इतनी बढ़ गई है कि इनका प्रयोग एक अध्यापक तक ही सीमित नहीं बल्कि औद्योगिक प्रबन्धक, सेना अधिकारी, मिल मालिक, सरकारी अफसर आदि अपने-अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इनका प्रयोग व्यापकता से करते हैं।

निबन्धात्मक परीक्षाओं से हमारा अभिप्राय ऐसी परीक्षाओं से है जिनमें व्यक्ति से कोई भी प्रश्न लिखित या मौखिक रूप से पूछा जाये तथा वह उनका प्रत्युत्तर निबन्ध रूप से प्रस्तुत करे। इनमें व्यक्ति अपने विचारों को स्वतन्त्र रूप से व्यक्त करता है जिसमें उसके व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप प्रतिबिम्बित होती है। इनके माध्यम से व्यक्ति की उपलब्धि के साथ-साथ उसकी व्यक्त करने की शक्ति, लेखन-क्षमता एवं व्यक्तित्व का मूल्यांकन हो जाता है। निबन्धात्मक परीक्षाओं का प्रयोग कब?

यद्यपि इन परीक्षाओं के प्रयोग के कोई विशेष नियम नहीं हैं फिर भी निम्न स्थितियों में इनका प्रयोग उपयोगी होता है।

(i) जबकि समस्या का तत्काल अध्ययन करना हो।

(ii) जब परीक्षार्थियों की संख्या अत्यधिक कम हो।

(iii) जबकि यह ज्ञात करना हो कि विद्यार्थियों में उपयक्त ज्ञान के चयन करने की कितनी योग्यता है?

(iv) जबकि परीक्षार्थी की लेखन शैली के विषय में जानना हो।

(v) जबकि परीक्षार्थी की रुचियों, अभिवृत्तियों तथा व्यक्तिगत गुणों का मापन करना हो।

(vi) जबकि व्यक्तिगत समस्याओं का अध्ययन करना हो।

 

 

निबन्धात्मक परीक्षाओं के कार्य

मुख्य रूप से निबन्धात्मक परीक्षाओं का प्रयोग निम्न कारणों से होता है-

(i) ये व्यक्ति की पाठ्य-वस्तु सम्बन्धी उपलब्धि का अध्ययन करती हैं।

(ii) ये व्यक्ति की अमुक विषय में कठिनाइयों एवं कमजोरियों को ज्ञात कर उनके निवारण का प्रयास करती हैं।

(iii) यह व्यक्ति की रुचियों, अभिक्षमताओं, दक्षताओं, मूल्यों एवं अभिवृत्तियों का मापन करती हैं।

(iv) यह व्यक्ति के विचारों, अभिव्यक्ति शक्ति एवं आलोचनात्मक प्रवृत्तियों से अवगत कराती हैं।

(v) यह छात्रों को निर्देशन प्रदान करने में सहायक होती हैं।

(vi) यह विद्यार्थियों का वर्गीकरण कर उनके शैक्षिक समायोजन को बनाये रखने हेतु कार्य करती है।

(vii) यह अध्यापक का मूल्यांकन करने में भी हितकर होती हैं।

(viii) इनके द्वारा विद्यार्थियों को प्रेरणा प्रदान की जा सकती है।

(ix) यह विद्यार्थियों में अध्ययन करने हेतु लगन उत्पन्न करती है, इससे उनमें अनुशासन एवं चरित्र-निर्माण की भावना जाग्रत होती है।

 

 

निबन्धात्मक परीक्षाओं में प्रयुक्त होने वाले प्रश्न

निबन्धात्मक परीक्षाओं में उद्देश्यों के अनुकूल विभिन्न प्रकार के प्रश्नों को सम्मिलित किया जाता है। अब हम इसमें प्रयुक्त होने वाले प्रश्नों के प्रकारों पर संक्षेप में प्रकाश डालेंगे-

(1) वर्णनात्मक प्रश्न (Descriptive Questions)- इनमें व्यक्ति से किसी वस्तु, घटना, प्रक्रिया या व्यक्ति विशेष आदि का वर्णन करने के लिये कहा जाता है, उदाहरणार्थ, ‘मूल्यांकन’ के महत्व पर एक लेख लिखिये जगदीश चन्द्र बसु की जीवनी पर प्रकाश डालिये। यह वर्णन संक्षिप्त एवं विस्तत दोनों प्रकार का हो सकता है।

(2) व्याख्यात्मक प्रश्न (Explanatory Questions)- इस प्रकार के प्रश्नों में कारण-प्रभाव (Cause Effect) सम्बन्ध की तर्क रूप से व्याख्या करनी होती है। इनके प्रत्युत्तर देने में तथ्य एवं तर्क प्रस्तत करने हेतु हैं; जैसे-सूर्य का हमारे जीवन में क्या उपयोग है? व्याख्या कीजिये।

(3) विवेचनात्मक प्रश्न (Discussion Type Questions)- विवेचनात्मक प्रश्नों में व्यक्ति किसी वस्त या प्रक्रिया के वर्णन के साथ-साथ उसकी विशेषताओं एवं दोनों की भी व्याख्या करता है तथा यह भी स्पष्ट करता है कि वे किस सन्दर्भ में प्रयोग की जा रही हैं, उदाहरणार्थ-प्रथम पंचवर्षीय योजना की। विवेचना कीजिये।

(4) परिभाषात्मक प्रश्न (Definition Type Questions)- इस प्रकार के प्रश्नों द्वारा किसी वस्तु, प्रक्रिया या तत्व के स्वरूप के सम्बन्ध में जानने की चेष्टा की जाती है। इनके उत्तर देने में शब्दों के अन्तर के साथ-साथ उसके रूप चित्रण में भी भेद हो जाता है; उदाहरणार्थ- शैक्षिक तकनीकी की परिभाषा कीजिये या ‘कार्य विश्लेषण’ से आपका क्या अभिप्राय है?

(5) उदाहरणार्थ प्रश्न (Illustrative Type Questions)- इस प्रकार के प्रश्नों द्वारा व्यक्ति से किसी तत्व को उदाहरणों की सहायता से समझाने या प्रस्तुत करने को कहा जाता है। उदाहरणार्थ-किसी एक वैज्ञानिक प्रयोग की सहायता से परिवर्तियों का उल्लेख कीजिये या उदाहरण की सहायता से सीखने के ‘प्रयास एवं त्रुटि सिद्धान्त’ पर प्रकाश डालिये। ये प्रश्न व्यक्ति के व्यावहारिक ज्ञान एवं व्यक्तिगत जीवन का आभास करने में सहायक होते हैं।

(6) तुलनात्मक प्रश्न (Comparison Type Questions)-इन प्रश्नों में तथ्यों, विचारों, वस्तुओं या व्यक्तियों की समानता, गुण तथा दोषों की तुलना करने के लिए कहा जाता है; उदाहरणार्थ-निबन्धात्मक  एवं वस्तुनिष्ठ उपलब्धि परीक्षणों का तुलनात्मक अध्ययन कीजिये।

(7) रूपरेखात्मक प्रश्न (Outline Type Questions)-इस प्रकार के प्रश्नों में विषय-वस्तु का संगठन शीर्षक एवं उपशीर्षक के अन्तर्गत किया जाता है, जैसे-हरियाणा में शिक्षा के विकास की रूपरेखा लिखिये।

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(8) आलोचनात्मक प्रश्न (Critical Questions)- इस प्रकार के प्रश्नों में किसी विचार की शुद्धता, सत्यापन, पर्याप्तता आदि का मूल्यांकन कर उसके सुधार हेतु सुझाव देने पड़ते हैं। उदाहरणार्थ-निर्देशन एवं सन्दर्शन कार्यों में उपलब्धि परीक्षणों के महत्व की समालोचना कीजियेगा। चूँकि इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने में चिन्तन शक्ति की आवश्यकता होती है अतएव इसका प्रयोग प्रौढ़ व्यक्तियों एवं उच्च-स्तर की कक्षाओं पर भी हितकर होता है।

(७) विश्लेषणात्मक प्रश्न (Analytical Questions)- इस प्रकार के प्रश्नों में हमें किसी तथ्य के विभिन्न पहलुओं का वर्णन करते हुए उनका विश्लेषण करना होता है। उदाहरणार्थ, क्या अध्यापक बालकों के मानसिक विकास में सहायक हो सकता है ? विश्लेषण कीजिये।

(10) वर्गीकरणात्मक प्रश्न (Classification Type Questions)- इस प्रकार के प्रश्नों में किसी वस्तु या प्रक्रिया के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख करवाया जाता है, जैसे-परीक्षायें कितने प्रकार की होती हैं?

 

 

निबन्धात्मक परीक्षाओं की विशेषताएँ

(1) रचना एवं प्रशासन की सुगमता-

इसमें प्रश्नों की रचना सुगम होती है, क्योंकि एक या दो पंक्ति के प्रश्न के माध्यम द्वारा व्यक्ति की उपलब्धि का मापन किया जाता है। चूंकि इनके निर्माण में बहुत कम समय लगता है इसलिये तात्कालिक समस्याओं के हल में इनका प्रयोग अत्यन्त उपयोगी है। कभी-कभी तो अध्यापक इनकी रचना परीक्षा से कुछ क्षण पूर्व ही परीक्षा भवन में कर देते हैं। प्रश्नों की सरलता के कारण इनका प्रशासन भी सरल होता है। हम बहुधा 8-10 प्रश्नों को एक पर्चे पर लिखकर परीक्षार्थी के सम्मुख प्रत्युत्तर पाने हेतु प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार से इनका प्रशासन प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है। इनके प्रशासित करने में पद-विश्लेषण, वैधता, विश्वसनीयता आदि ज्ञात नहीं करनी पड़ती है। अतएव, प्रश्नों की रचना एवं प्रशासन के दृष्टिकोण से निबन्धात्मक परीक्षाएँ अत्यन्त उपयोगी है।

(2) मितव्ययता-

इन परम्परागत परीक्षाओं की दूसरी विशेषता इनका मितव्ययी होना है। यह समय, धन, व्यक्ति एवं सामग्री समस्त दृष्टिकोणों से मितव्ययी है। इसमें प्रश्न रचना एवं उन्हें हल करने में कम समय व्यय होता है। इसके प्रशासन के लिए अनुभवी एवं प्रशिक्षित व्यक्ति की कोई आवश्यकता न होकर साधारण अध्यापक द्वारा भी इसका प्रशासन सम्भव होता है। इसमें अपेक्षाकत कम विषय सामग्री का प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त परिश्रम के दृष्टिकोण से भी यह मितव्ययी होती है।

 

 

(3) विचारों को स्वतन्त्रता-

इस प्रकार की परीक्षाओं में व्यक्ति को अपने विचारों को स्वतन्त्र रूप में व्यक्त करने का अवसर मिलता है। वह किसी भी वस्तु प्रक्रिया, व्यक्ति या तथ्य के सम्बन्ध में जो कुछ कहना चाहे वह निसंकोच लिख देता है। इसमें वह अपने विचारों को व्यक्त करने के साथ-साथ अन्य व्यक्तियों के विचारों का स्वागत एवं आलोचना भी करता है। विचारों की स्वतन्त्रता के कारण ही व्यक्ति की मौलिकता का आभास होने लगता है।

 

(4) भावों की अभिव्यक्ति एवं आलोचनात्मक चिन्तन पर जोर-

विचारों की स्वतन्त्रता के साथ-साथ इन परीक्षाओं में भावों की अभिव्यक्ति एवं आलोचनात्मक चिन्तन पर जोर दिया जाता है। विभिन्न किसी तथ्य को अपने अनुभवों के आधार पर विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त करते हैं। वह किसी तथ्य के गुण-दोषों की विवेचना करते हैं। यह विचारों के संगठन पर जोर डालती है जिससे व्यक्ति की मौलिकता एवं आलोचनात्मक शक्ति के विषय में ज्ञान होता है।

 

(5) लेखन शैली का निर्णय-

इस प्रकार की परीक्षाएँ व्यक्ति की लेखन शैली; जैसे-सरल भाषा, शब्दों का प्रयोग, मुहावरे एवं लच्छेदार भाषा का प्रयोग व्यापकता की दक्षता, लेखन योग्यता आदि का निर्माण करती है। इसके द्वारा यह भी देखा जाता है कि किसी निश्चित अवधि में व्यक्ति किस प्रकार से विचारों को संगठित कर लिख सकता है। अतएव इन परीक्षाओं के माध्यम से व्यक्ति की साहित्यिक एवं लेखन योग्यता का भली-भाँति मापन किया जाता है।

 

(6) उच्च मानसिक योग्यताओं का अध्ययन-

निबन्धात्मक परीक्षाओं द्वारा व्यक्ति की उच्च मानसिक योग्यताओं का अध्ययन सम्भव होता है। ऐसी समस्याओं, जहाँ कि वाद-विवाद, समालोचना, मत-विश्लेषण, विवेचन आदि की आवश्यकता है, इनका प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है क्योंकि यह व्यक्ति की चिन्तन शक्ति, अभिव्यक्त करने की क्षमता एवं बद्धि का मापन करती है।

(7) व्यक्तित्व का मूल्यांकन-

यह परीक्षाएँ व्यक्तित्व के मूल्यांकन में भी अत्यन्त सहायक होती हैं। व्यक्ति के लेख द्वारा हम उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों-रुचियों, अभिक्षमताओं, अभिवत्तियों, मूल्यों, व्यक्तित्व आदि गुणों का मापन कर लेते हैं। इनके माध्यम से व्यक्ति के समायोजन का आभास भी मिलता है। इन निबन्धात्मक परीक्षाओं को मापन की प्रक्षेपण विधि भी कहा जा सकता है क्योंकि इनमें व्यक्तित्व का मूल्यांकन विषय-वस्तु के माध्यम से होता है। इसके अतिरिक्त, यह व्यक्ति के व्यावहारिक अनुभवों के विषय में भी अपने विचार व्यक्त करती है।

 

(8) समस्त विद्यालय विषयों में उपयुक्त-

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों की अपेक्षाकृत निबन्धात्मक परीक्षणों को समस्त विद्यालय विषयों में प्रयोग में लाया सकता है। कुछ ऐसे भी विषय होते हैं जिससे वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का प्रयोग कदापि सम्भव नहीं होता अतएव ऐसी स्थिति में ये उपयुक्त होते हैं। इसीलिये आज समस्त विद्यालय विषयों में इनका प्रयोग व्यापकतापूर्वक किया जा रहा है।

 

(9) विस्तृत अध्ययन को प्रोत्साहन-

ये विभिन्न अध्ययन विधियों की सहायता से विस्तृत अध्ययन को प्रोत्साहित करती है। चेंकि इसमें दो पंक्ति के प्रश्न का विद्यार्थियों को लगभग 5-6 पृष्ठों में उत्तर देना होता है। अतएव वह विषय सामग्री का गहन अध्ययन करता है। उसके अध्ययन हेतु यह रूपरेखा बनाता है, सारांश लिखता है तथा मुख्य-मुख्य बातों को याद रखने का प्रयास करता है।

 

(10) नकल की कम सम्भावना-

निबन्धात्मक प्रश्न अत्यन्त बड़े होते हैं तथा भाषा-शैली एवं विषय-वस्तु की गहनता के कारण इनमें नकल की सम्भावना कम रहती है।

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निबन्धात्मक परीक्षाओं की सीमाएँ

 

1. प्रतिनिधित्व की कमी-

इनमें पाठ्यक्रम के प्रतिनिधित्व की कमी रहती है, इन परीक्षाओं में हम केवल 4-5 प्रश्नों के माध्यम से व्यक्ति के ज्ञान का अध्ययन करते है जबकि ये 4-5 प्रश्न सम्पूर्ण पाठयक्रम का प्रतिनिधित्व भी नहीं करते। कभी-कभी तो पाठ्यक्रम के अनेक अंश बिल्कुल ही छूट जाते हैं। इस प्रकार से यह परीक्षण व्यापकता (Comprehensiveness) से अछूता रहता है।

 

(2) रटने पर बल-

इनमें रटने पर विशेष बल दिया जाता है, कभी-कभी तो विद्यार्थी कई पृष्ठ बिना समझे रट लेते हैं जिनसे उनके ज्ञान का उचित आभास नहीं हो पाता। वे पुस्तक के केवल उन्हीं भागों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जो कि परीक्षा के दृष्टिकोण से आवश्यक हैं। इनमें परीक्षार्थी का उद्देश्य विषय-वस्तु को सीखना न होकर परीक्षा में सफल होना होता है। इन परीक्षाओं में व्यक्ति की विचार गति लेखन गति के अधीन होकर अवरुद्ध हो जाती है। चूंकि इसमें विद्यार्थी रटने पर बल देता है, इससे उसकी चिन्तन एवं तर्कशीलता की उन्नति में बाधा पड़ती है।

 

(3) निश्चित उद्देश्य रहित-

निबन्धात्मक परीक्षाओं के कोई निश्चित पूर्व निर्धारित उद्देश्य नहीं होते हैं, अतएव इनकी रचना में अध्यापक उद्देश्यों का ध्यान न रखते हुए यह ध्यान में रखते हुए प्रश्न बनाता है कि कौन-सा प्रश्न गत वर्ष आया तथा कौन-सा प्रश्न इस वर्ष पूछना है। अतएव निश्चित उद्देश्यों के अभाव में हम विद्यार्थियों के ज्ञानोपार्जन का उचित रूप से मापन नहीं कर पाते।

 

(4) आत्मीयता-

इन परीक्षाओं में आत्मनिष्ठ तथ्यों (Subjective Elements) को स्थान मिलता है। इनमें परीक्षक के मूड, विचारों, रुचियों एवं अभिक्षमताओं का अत्यन्त प्रभाव पड़ता है जिसके कारण व्यक्ति की उपलब्धि का पर्याप्त रूप से मापन नहीं हो पाता। इस प्रकार से यह परीक्षण परीक्षार्थी के भाग्य एवं अवसर पर आधारित रहते हैं क्योंकि इसमें आत्मनिष्ठ तत्वों का अमिट प्रभाव पड़ता है।

 

(5) विषय सम्बन्धी कमजोरी पाना नामुमकिन-

चूँकि इस प्रकार की परीक्षाओं का रूप निबन्धात्मक होता है अतएव इनमें विषय-सम्बन्धी कठिनाइयों एवं कमजोरियों का पाना कठिन कार्य है। प्रायः यह देखने में आया है कि कुछ छात्र जो निबन्धात्मक प्रश्नों के उत्तर उपयुक्त भाँति नहीं दे सकते थे, वे अपने ज्ञान एवं जानकारी के अभाव की पूर्ति हेतु लम्बे घुमावदार उत्तर देते हैं जिससे अध्यापक को उनकी कमजोरियों एवं कठिनाइयों का पता नहीं लग पाता है। ।

 

(6) कम विश्वसनीय-

आत्मगत तथ्यों के कारण ही इस प्रकार की परीक्षाएँ कम विश्वसनीय होती हैं। इन परीक्षाओं में बहुधा एक ही प्रश्न पर भिन्न-भिन्न परीक्षक विभिन्न अंक प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त एक ही विद्यार्थी की एक ही परीक्षक द्वारा परीक्षा लेने पर भी फलांकों में भिन्नताएँ दृष्टिगत होती हैं। अतएव इस प्रकार के परीक्षण विश्वसनीय नहीं होते हैं। एक विश्वसनीय परीक्षण वह है जिनमें सदैव विद्यार्थी को एक से निश्चित प्राप्तांक मिलें। इन परीक्षाओं के कम विश्वसनीय होने के निम्न कारण हैं-

(अ) इनमें अंक प्रदान करने की कोई वस्तुनिष्ठ विधि न होकर आत्मगत विधि होती है जिससे परीक्षकों की अंक प्रदान करने की मापनियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। कुछ परीक्षक इतने दयालु प्रकृति के होते हैं कि जी खोलकर नम्बर प्रदान करते हैं जबकि अन्य इतने कठोर होते हैं कि नम्बर प्रदान करने में उन्हें मुश्किल मालूम पड़ती है।

(ब) दूसरे, इनकी विश्वसनीयता बहुत कुछ परीक्षक के दृष्टिकोण पर भी आधारित रहती है, कुछ परीक्षक उत्तरों की शुद्धता पर उत्तम अंक प्रदान करते हैं तो अन्य साहित्यिक शैली एवं स्वच्छ लेखन पर। इसके अतिरिक्त कुछ भावों की अभिव्यक्ति एवं उदाहरण द्वारा तथ्यों के स्पष्टीकरण पर महत्व देते हैं।

(स) इनकी विश्वसनीयता पर छात्रों की मानसिक एवं भौतिक अवस्था का भी प्रभाव पड़ता है। यदि किसी विद्यार्थी को दो समरूप परीक्षाएँ विभिन्न दिनों में दी जावें तो उनके प्राप्तांकों में अन्तर आ जायेगा।

 

(7) वैधता का अभाव-

इन परीक्षाओं के कोई निश्चित उद्देश्य न होने के कारण इनमें वैधता का अभाव पाया जाता है। इनमें भविष्यवाणी सम्बन्धी वैधता तो प्रायः होती ही नहीं है क्योंकि एक विद्यार्थी जो रटकर 10वीं कक्षा में अच्छे अंकों से पास हआ है वही अगली कक्षाओं में फेल हो जाता है। चूंकि इनका रचना में अध्यापक पाठ्यक्रम एवं विद्यार्थियों के स्तर का भी ध्यान नहीं रखता इसलिये इनमें पाठ्य-वस्तु सम्बन्धी वैधता का अभाव भी पाया जाता है। अतएव इसमें समस्त भाँति की वैधता का अभाव रहता है। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा छात्रों का उचित वर्गीकरण उनका मार्गदर्शन एवं विद्यार्थियों की क्षमता का अध्ययन असम्भव हो जाता है।

 

 

निबन्धात्मक परीक्षाओं में सुधार सम्बन्धी सुझाव

इन परीक्षाओं के सुधार हेतु निम्न सुझाव प्रस्तुत हैं-

(i) प्रश्नों की संख्या अधिक होनी चाहिये जिससे समस्त पाठय-वस्तु का व्यापक रूप से प्रतिनिधित्व हो सके।

(ii) आत्मनिष्ठ तत्वों के प्रभाव को कम करने हेत वस्तुनिष्ठ पदों को भी स्थान मिलना चाहिये जिससे विद्यार्थी को क्षमता के अनुकूल अंक प्रदान हो सकें।

(iii) प्रश्नों की अधिक संख्या एवं वस्तनिष्ठ पदों के प्रयोग से परीक्षण की विश्वसनीयता भी बढ़ेगा।

(iv) जब विश्वसनीयता अधिक होगी तो परीक्षण की वैधता भी अधिक होगी।

(v) परीक्षण की रचना से पूर्व उसके उद्देश्यों को निर्धारित करना चाहिये जिससे सही योग्यता का मापन हो सके।

(vi) इसकी रचना, प्रशासन एवं फलांकन में आवश्यक सुधार होने चाहिये।

 

 

निबन्धात्मक परीक्षाओं की विश्वसनीयता

यद्यपि इन परीक्षाओं की विश्वसनीयता, आत्मगत तथ्यों एवं कम प्रश्नों की संख्या के कारण कम होती है, फिर भी अधिक प्रश्नों को सम्मिलित कर एवं वस्तुनिष्ठ पदों का प्रयोग कर उसकी विश्वसनीयता ज्ञात करने हेतु पुनर्परीक्षण विधि तथा स्पीयरमैन ब्राउन सूत्र का प्रयोग किया जाता है। अपने अनुसंधान के आधार पर स्टार्च एवं इलियट (Starch and Elliott), जेम्स (James), ऐशबर्न (Ashburn), डेडरिच(Diederich) आदि ने इनका विश्वसनीयता गुणांक 70 से 80 के मध्य पाया।

निबन्धात्मक परीक्षाओं की वैधता- यद्यपि निबन्धात्मक परीक्षाओं के निश्चित उद्देश्य निर्धारित नहीं होते इसलिये इसकी वैधता का अभाव रहता है। इसकी वैधता को ज्ञात करने हेतु पाठ्य-वस्तु वैधता एवं तार्किक वैधता का प्रयोग किया जाता है।

 

 

 

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