सूक्ष्म-शिक्षण (Micro-Teaching) में सूक्ष्म शिक्षण का इतिहास,History of Micro-Teaching, सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषायें, Meaning & Definitions of Micro-Teaching, सूक्ष्म शिक्षण की आवश्यकता, Necessity of Micro-Teaching, परम्परागत शिक्षण के अन्य दोष, सूक्ष्म शिक्षण की विशेषतायें, आदि का अध्ययन करेगें।
सूक्ष्म-शिक्षण (Micro-Teaching)
‘शिक्षण’ एक ऐसा सम्प्रत्यय (Concept) है, जिसे शिक्षाशास्त्रियों द्वारा कला तथा विज्ञान दोनों ही रूपों में विकास की गति के साथ स्वीकार किया गया है। प्रथम धारणा में शिक्षण को एक कला माना गया जिसके अनुसार अच्छे शिक्षक जन्मजात होते हैं और उनमें विशिष्ट शिक्षण कौशल होते हैं। द्वितीय धारणा में ‘शिक्षण को विज्ञान’ माना गया। इसके अनुसार अच्छे शिक्षक प्रशिक्षण द्वारा तैयार किये जाते हैं और उनमें विशिष्ट शिक्षण कौशलों का विकास किया जा सकता है। इस द्वितीय धारणा का आगमन विज्ञान व तकनीकी विकास के प्रभाव से शिक्षा जगत में आया।
द्वितीय धारणा के अनुसार आज शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं का उत्तरदायित्व अधिक बढ़ जाता है कि वे प्रभावशाली शिक्षक तैयार करें। किन्तु आज इस क्षेत्र में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं की उपलब्धि सराहनीय नहीं है । इसके कई कारण हैं, जैसे इन महाविद्यालयों में पर्याप्त आधुनिकतम दृश्य-श्रव्य उपकरणों तथा नवीनतम विधियों के प्रयोग का अभाव है। तथापि छात्राध्यापकों में कक्षा अध्यापन के कौशल हेतु अनेक विधियों का प्रयोग किया जाने लगा है, जैसे अन्तःक्रिया विश्लेषण विधि, अनुकरणीय शिक्षण, प्रशिक्षण समूह, सूक्ष्म शिक्षण, अभिक्रमित अनुदेशन तथा दल शिक्षण आदि, उनमें से ही एक महत्त्वपूर्ण विधि है- ‘सूक्ष्म शिक्षण’।
सूक्ष्म शिक्षण का इतिहास (History of Micro-Teaching)
अमेरिका में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में कीथ एचीसन अनुसन्धान हेतु डॉ. रॉबर्ट एन. बुश और डॉ. ड्वाइट डब्ल्यू. एल्लन के साथ कार्य कर रहे थे। इन महानुभावों के प्रयलों से सन् 1961 में ‘सूक्ष्म शिक्षण’ का जन्म हुआ। इनके अनुसन्धान का विषय ऐसी शिक्षण विधियों की। खाज करना था, जिनसे छात्राध्यापकों में अध्यापन कौशल उत्पन्न हो। उपर्युक्त पूरे दल ने सर्वप्रथम नियन्त्रित रूप में ‘संकुचित अध्यापन अभ्यास क्रम’ प्रारम्भ किये। इस अभ्यास में छात्राध्यापक 5 से 10 छात्रों को छोटा-सा पाठ पाँच-सात मिनट तक पढ़ाना होता था। शनैः-शनै: छात्राध्यापकों को उनके द्वारा की गई त्रुटियों को स्पष्ट रूप से समझाने के लिए वीडियो रिर्काडर का प्रयोग किया जाने लगा। दूर स्थित विद्यालयों में पढ़ाने वाले अध्यापक अपने अध्यापन को टेप करके स्टेनफोर्ड भेजते थे जहाँ से उन्हें उसमें सुधार हेतु निर्देश दिये जाते थे।
स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में ही ‘शिक्षक सामर्थ्य’ विषय पर शोध कार्य करने वाले हैरी। गैरीसन ने ‘स्टेनफोर्ड अध्यापन सामर्थ्य अर्हण दीपिका’ का निर्माण किया।
सन् 1967 में क्लैनवैश ने सैंजोस स्टेट विश्वविद्यालय के ग्रीष्मकालीन प्राथमिक शिक्षा कोर्स के छात्राध्यापकों को दो भागों में विभाजित कर एक समूह को सूक्ष्माध्यापन विधि से तथा दूसरे समूह को परम्परागत विधि से अध्यापन प्रशिक्षण दिया। इन दोनों विधियों की उपलब्धियाँ लगभग समान पाई गई तथापि सूक्ष्म अध्यापन द्वारा बहुत कम समय में ही अध्यापन प्रक्रिया की सूक्ष्मतायें समझाई जा सकी, जबकि परम्परागत तरीके से इन सूक्ष्मताओं को समझाने तथा शिक्षण कौशल उत्पन्न करने की प्रक्रिया में बहुत समय लगा। इसके अतिरिक्त रियॉन और एलन (1969), रैसनिक व कीन्स (1970), मैक्लीज तथा अनविन (1981) आदि अनेक अनुसन्धानकर्ताओं ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। डी. डब्ल्यू. कापलैण्ड (1982) ने सम्बन्धित साहित्य की समीक्षा करते हुए कहा कि “सूक्ष्म अध्यापन पूर्व शिक्षण अभ्यास का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोगशाला अनुभव है।”
भारतवर्ष में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रचलित शिक्षण विधियों की कटु आलोचना के साथ नवीन शिक्षण विधियों की ओर चिन्तन प्रारम्भ हुआ। शिक्षा आयोग (1964-66) ने शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा, थोड़े अपवादों को छोड़कर सामान्यतः शिक्षण प्रशिक्षण संस्थाएँ निम्न कोटि की हैं। योग्य अध्यापक इन शालाओं में आने को उत्सुक नहीं होते, पाठ्यक्रम और कार्यक्रम अधिकतर परम्परागत होते हैं, अत: उनमें न तो सजीवता ही होती है और न वास्तविकता ही। शिक्षण के अभ्यास के लिए नीरस तकनीकें और परम्परागत पद्धतियाँ ही अपनाई जाती हैं।
आज की आवश्यकताओं और प्रायोजनों का कुछ भी ध्यान नहीं रखा जाता, अतः शिक्षक प्रशिक्षण में सुधार के लिए एक सर्वांगपूर्ण कार्यक्रम की तत्काल आवश्यकता है । इसके बाद हमारे देश में सर्वप्रथम डी डी. तिवारी (1967) ने सूक्ष्म शिक्षण शब्द का प्रयोग शिक्षक-प्रशिक्षण के क्षेत्र में किया। तकनीकी अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान (TTTI), चण्डीगढ़, मद्रास, कलकत्ता तथा इलाहाबाद द्वारा तथा CASE, बड़ौदा जैसी संस्थाओं द्वारा किये गये शोध परिणामों के आधार पर शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में सूक्ष्म अध्यापन को महत्त्व दिया जाने लगा। इसके बाद शाह (1970), चुदास्मा (1971), सिहं,मर्कर तथा पन्गोत्रा (1973), दोशज ने 1974 में इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये ।
1974 में ही सूक्ष्म शिक्षण के विषय में वैज्ञानिक जानकारी देने वाली सर्वप्रथम पुस्तक पासी तथा शाह द्वारा प्रकाशित की गई। 1979 में इन्दौर विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम सूक्षम शिक्षण पर ‘राष्ट्रीय प्रायोजना’ का निर्माण किया गया। देहरादून में 1979 में कुलश्रेष्ठ, मिना तथा गोस्वामी ने सूक्ष्म शिक्षण के क्षेत्र में कार्य करते हुए उसके सुधार के रूप में ‘परिसूक्ष्म शिक्षण’ (Mini-Teaching) पर प्रथम भारतीय मोनोग्राफ ‘मिनी टीचिंग’ : ए न्यू एक्सपेरीमेन्ट इन टीचर एज्यूकेशन’ (N.C.E.R.T.), नई दिल्ली के सहयोग से प्रकाशित किया।
सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषायें (Meaning & Definitions of Micro-Teaching)
सूक्ष्म शिक्षण शिक्षक-प्रशिक्षण की एक सरल सग्राह्य तथा मितव्ययी विधि है क्याकि यह कम समय में भावी शिक्षकों में शिक्षण कौशलों का उन्मेष करती है। इसे प्रयोगशाला प्रशिक्षण विधि भी कहा जा सकता है। इसमें प्राध्यापक एक लघु पाठयोजना तैयार करता है। जिसे सत्रों के छोटे दल को पांच से दस मिनट तक पढ़ाता है। इस शिक्षण प्रक्रिया में वह किसी एक चयनित प्रशिक्षण कौशल का बार बार प्रयोग करके अभ्यास करता है, जैसे, प्रश्न कौशल, याख्यान कौशल, उदाहरण कौशल, प्रस्तावना कौशल, श्यामपटट लेखन कौशल आदि।
‘सूक्ष्म-शिक्षण‘ को विभिन्न लेखकों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है।
1. बौदा विश्वविद्यालय के एम. बी. बुच (1968) ने कहा, “सूक्ष्म शिक्षण अध्यापक शिक्षा को वह प्रविधि है जो विद्यार्थियों को स्पष्ट रूप से पारिभाषित शिक्षण कौशलों को जास्तविक विद्यार्थियों के छोटे समूह के साथ पांच से दस मिनट के शिक्षण की नियोजित श्रृंखला के लिए ध्यानपूर्वक तैयार किये गये पाठों में प्रयोग करने का अवसर प्रदान करती है तथा वीडियो टेप पर परिणामों के निरीक्षण के अवसर प्रदान करती है।”
2. डी. एलन (1968)- “सूक्ष्म शिक्षण प्रशिक्षण से सम्बन्धित एक संप्रत्यय है जिसका प्रयोग सेवारत एवं पूर्वसेवा स्थितियों में शिक्षकों के व्यावसायिक विकास के लिए किया जाता है। सूक्ष्म शिक्षण शिक्षकों को शिक्षण के अभ्यास के लिए एक ऐसी योजना प्रस्तुत करता है जो कक्षा की सामान्य जटिलताओं को कम कर देता है और जिसमें शिक्षक बहुत बड़ी मात्रा में अपने शिक्षण व्यवहार के लिए प्रतिपुष्टि (Fee-back) प्राप्त करता है।”
3. मैककौलम तथा लाड्यू के अनुसार- “सूक्ष्म शिक्षण परिस्थितियों में प्रविष्ट होने से पूर्व दक्षता प्राप्त कर लेने तथा कक्षा-कक्ष कौशलों का विकास कर लेने का अवसर ही सूक्ष्म-शिक्षण है।”
4. एलन एवं ईव के अनुसार- “सूक्ष्म अध्यापन नियंत्रित अभ्यास का सूत्र है जिसमें एक विशिष्ट अध्यापन व्यवहार को नियंत्रित दशाओं में सीखना संभव है।”
5. श्रीवास्तव सिंह व राय (1978) के अनुसार- “सूक्ष्म शब्द का एक गूढार्थ भी हो सकता है क्योंकि सक्ष्म शिक्षण में कौशलों को छोटी-छोटी अर्थात् सूक्ष्म इकाइयों में विभाजित कर प्रत्येक में बारीकी से प्रशिक्षण दिया जाता है, अत: सूक्ष्म शब्द का प्रयोग इस संदर्भ में। उचित ही है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं तथा सूक्ष्म शिक्षण के स्वरूप को समझने के बाद यह स्पष्ट होता है कि इस शिक्षण के तीन मुख्य पक्ष हैं :
1. ज्ञान प्राप्ति पक्ष (Knowledge Acquisition Aspect):
(अ) अध्यापन कौशल प्रदर्शन का निरीक्षण,
(ब) प्रदर्शित कौशल का विश्लेषण।
2. कौशल प्राप्ति पक्ष (Skill Acquisition Aspect) :
(अ) सूक्ष्म पाठ तैयार करना,
(ब) कोशल का अभ्यास करना;
(स) निष्पादन का मूल्यांकन करना।
(3)अन्तरण पक्ष (Transfer Aspect):
कौशल का वास्तविक अध्यापन स्थिति में अन्तरण ।
उपर्युक्त तीनों पक्षों की प्राप्ति हेतु सूक्ष्म शिक्षण में प्रयत्न किया जाता है तथा छात्राध्यापकों को उन्हीं कौशलों के उपचार हेतु अभ्यास दिया जाता है जिनमें वह अधिक कमजोर होते हैं।
सूक्ष्म शिक्षण की आवश्यकता (Necessity of Micro-Teaching)
पोफाम एवं बेकर (1968) ने संयुक्त राज्य अमेरिका में पाया कि छात्रों के सीखने के स्तर के सम्बन्ध में प्रशिक्षित व अप्रशिक्षित छात्राध्यापकों के शिक्षण में कोई विशेष अन्तर नहीं हैं।
पोफाम (1969) ने बताया कि तत्कालीन अध्यापक प्रशिक्षण में अध्यापन प्रक्रिया को आधार माना जाता था एवं शिक्षण कौशलों को विकसित करने पर ध्यान नहीं दिया जाता था।
डेविज (1969) ने छात्र अध्यापन सम्बन्धी शोधों के आधार पर पाया कि अध्यापक प्रशिक्षण में व्यावहारिक पक्ष अधिक महत्त्वपूर्ण है, किन्तु आजकल प्रचलित प्रशिक्षण व्यवस्था में केवलमात्र औपचारिकता निभाई जाती है। इस कार्यक्रम के व्यावहारिक उद्देश्य स्पष्ट व निश्चित नहीं किये जाते । इनके मूल्यांकन की वैधता व विश्वसनीयता भी संदिग्ध है।
पीटर्सन (1973) ने इंगित किया कि अध्यापन अभ्यासक्रम में कितने पाठ पढ़ाने हैं ? उनकी गुणात्मकता तथा कार्यानुभव कैसा हो ? आदि मात्र पर्यवेक्षक पर निर्भर करता है।
कोप (1969) ने ब्रिटेन में पाया कि छात्राध्यापक शाला अभ्यास हेतु निश्चित कालक्रम और कक्षा में अध्यापन हेतु किसी अन्य व्यक्ति के प्रभाव को स्वीकार नहीं करना चाहते। वे पर्यवेक्षण और मूल्यांकन की विधियों से भी सन्तुष्ट नहीं थे।
इसी प्रकार भारत में हुए शोध भी सूक्ष्म शिक्षण की आवश्यकता पर बल देते हैं :
उपसानी (1966) ने महाराष्ट्र के प्राथमिक शाला अध्यापकों के प्रशिक्षण का अध्ययन करते हुए पाया कि यह प्रशिक्षण असन्तोषजनक है क्योंकि इसमें अध्यापन अभ्यास केवल कुछ निश्चित संख्या में पढ़ाये गये पाठों तक ही सीमित रहता है चाहे उससे अध्यापन कौशल का विकास हो अथवा नहीं।
पलसाने और गाँधी (1967) ने अध्यापक प्रशिक्षण महाविद्यालयों के सर्वेक्षणोपरान्त बताया कि अध्यापन अभ्यास से पूर्व प्रशिक्षणार्थियों के लिए पूर्व अभिविन्यास (Orientation) कार्यक्रम सन्तोषजनक ढंग से नहीं चलता। छात्राध्यापकों द्वारा पाठ इकाइयों का चयन क्रमिक नहीं होता। उनका मूल्यांकन समुचित तथा सतत् रूप से नहीं किया जाता।
जोजफ (1967) ने केरल प्रदेश के माध्यमिक अध्यापक प्रशिक्षण का विश्लेषण करते हुए बताया कि अभ्यास पाठों के पर्यवेक्षण हेतु महाविद्यालय के प्राध्यापक उन शालाओं के अध्यापकों को प्रशिक्षण कार्य में साथ लेने के लिए तैयार नहीं है, जबकि छात्राध्यापक उनका सहयोग लेना चाहते हैं।
मल्लैया (1968) ने मध्यप्रदेश की प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षण संस्थाओं का अध्ययन करते हुए पाया कि इनके मूल्यांकन के तरीकों में बहुत भिन्नता है, जिसके कारण इनकी विश्वसनीयता एवं वैधता संदिग्ध हो जाती है।
मार व अन्य (1969) ने पंजाब के शिक्षा-महाविद्यालयों के पर्यवेक्षण के बाद पाया कि इन महाविद्यालयों में अध्यापक प्रशिक्षण हेतु कौन-कौन से अध्यापन कौशल विशिष्ट रूप से उत्पन्न करने की ओर बल दिया जाये; यह निश्चित नहीं है।
सैकिया (1971) ने असम के शिक्षा महाविद्यालयों का निरीक्षण करते समय पाया कि अभ्यास पाठन कार्य में शिथिलता है तथा ऐसे विद्यालयों का अभाव है जहाँ छात्राध्यापक अध्यापन अभ्यास कर सकें।
मेहरोत्रा (1974) ने पाया कि वर्तमान अभ्यास अध्यापन प्रक्रिया प्रभावहीन है क्योंकि इसमें पर्यवेक्षण की विधि दोषपूर्ण है और कक्षा का वातावरण इसी कारण तनावपूर्ण तथा कृत्रिम बना रहता है।
दामोदर (1977) ने आन्ध्रप्रदेश में पाया, कि अभ्यास अध्यापन निर्धारित नियमों की पूर्ति करने के प्रयास में औपचारिक रूप से पूर्ण किया जाता है, अतः यह उद्देश्यविहीन हो रहा है।
क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय, भोपाल (1975) में अनेक सूक्ष्म अध्यापन-विषयक शोध कार्य हुए। डॉ. रामदेव, पी. कथूरिया (1976), डॉ. आर. पी. सिंह, डॉ. जे. एस. ग्रेवाल (1977) एवं डॉ. वी.पी. गुप्ता (1978) ने अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किये।
राष्ट्रीय शोध के आधार पर जंगीरा महरसिंह (1980), स्नेह जोशी व बिस्वाल (1981) ने अपने शोध कार्यों के परिणामस्वरूप बताया कि सूक्ष्म शिक्षण परम्परागत शिक्षक प्रशिक्षण प्रणाली से अधिक उपयोगी है। डिलैनी (1978) एवं डिलैनी-मुखोपाध्याय-कथूरिया (1982) ने सेवारत अध्यापिकाओं के अध्यापन व्यवहार पर सूक्ष्म अध्यापन के गहन प्रशिक्षण एवं स्वतः शिक्षण के प्रभाव का अध्ययन किया। प्रायः सभी शोध यह सिद्ध करते हैं कि सूक्ष्म अध्यापन के द्वारा भावी अध्यापकों तथा सेवारत अध्यापकों दोनों को ही प्रभावी अध्यापक बनाया जा सकता है।
उपर्युक्त शोधों के आधार पर स्पष्ट होता है कि परम्परागत शिक्षक प्रशिक्षण में अनेक कमियाँ हैं:
1. अध्यापन प्रशिक्षण में औपचारिकता निभाई जाती है।
2. अध्यापन प्रशिक्षण में छात्रों में शिक्षण कौशल के विभिन्न आयामों के विकास में सहायता
नहीं दी जाती।
3. इन प्रशिक्षण महाविद्यालयों में प्रगतिशील तथा प्रभावशाली अध्यापन विधियों की चर्चा सैद्धान्तिक दृष्टि से की जाती है, किन्तु उन्हें व्यवहार में नहीं लाया जाता।
4. अध्यापन कार्यों का पर्यवेक्षण दोषपूर्ण एवं अवास्तविक होता है।
5. छात्राध्यापकों को उनके शिक्षण के बाद उचित प्रतिपुष्टि (Feed-back) नहीं मिल पाती।
परम्परागत शिक्षण के अन्य दोष :
1. छात्राध्यापकों को प्रशिक्षण के उद्देश्य स्पष्ट ही नहीं होते।
2. शिक्षक प्रशिक्षण के विभिन्न पक्षों में जो प्रक्रिया प्रयुक्त की जाती है, उसके प्रति प्रशिक्षकों में जागति नहीं है।
3. प्रशिक्षण के सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक पक्ष में अन्तर पाया जाता है।
4. शिक्षण अभ्यास कार्यक्रम क्रमबद्ध नहीं है।
5. छात्राध्यापकों को जो पाठ पढ़ाने के लिए दिये जाते हैं, उनमें उनकी आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखा जाता।
6. पासी (1976) ने बताया कि पर्यवेक्षकों द्वारा किया जाने वाला पर्यवेक्षण सन्तोषजनक नहीं होता तथा कभी-कभी विषयनिष्ठ हो जाता है।
उपर्युक्त दोषों से यह सिद्ध होता है कि शिक्षण-पद्धतियों में परिवर्तन अपेक्षित है-इस संदर्भ में राष्ट्रीय आयोग के प्रतिवेदन, 1986 में शिक्षण कौशल के विकास हेतु बताया गया है। कि किसी भी तरह के शिक्षण का उद्देश्य प्रशिक्षणार्थी में मूलभूत कौशलों का विकास करना और उसे सक्षम अध्यापक बनाना होता है जिसमें निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिएँ :
(अ) विभिन्न योग्यताओं वाले विद्यार्थियों की कक्षा को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने की योग्यता,
(ब) विचारों को तर्कसंगत रूप से अभिव्यक्त करने की क्षमता, अध्यापन को प्रभावशाली बनाने के लिए उपलब्ध तकनीकियों को प्रयोग में लाने की योग्यता,
(द) कक्षा के बाहर के अनुभवों का कक्षा अध्यापन में प्रयोग करना,
(य) समुदाय के परिप्रेक्ष्य में कार्य सीखना; एवं
(र) छात्रों की सहायता करना।
इन उद्देश्यों की प्राप्ति तथा शिक्षण कौशलों के विकास हेतु सूक्ष्म शिक्षण के द्वारा प्रशिक्षण देने की अत्यन्त आवश्यकता है।
सूक्ष्म शिक्षण की विशेषतायें :
1. सूक्ष्म शिक्षण एक व्यक्तिगत शिक्षण प्रविधि है।
2. इसमें वास्तविक शिक्षण तथा पाठ्यवस्तु सरल होती है।
3. इसका उद्देश्य विशिष्ट शिक्षण कौशलों का विकास करना है।
4. इसमें अभ्यास-क्रम की प्रक्रिया पर अधिक नियन्त्रण रखा जाता है।
5. इसमें कक्षा का आकार बहुत सीमित होता है।
6. इसमें कालांश का समय 5 से 10 मिनट तक का होता है।
7. एक ही समय में किसी एक ही समय में किसी एक विशेष कार्य एवं कौशल के प्रशिक्षण पर बल दिया जाता है।
8. इससे कक्षा शिक्षण की जटिलताओं को कम किया जाता है।
9.इस शिक्षण से छात्र अध्यापकों में आत्मविश्वास जागृत होता है।
10. इस विधि में छात्राध्यापक के शिक्षण का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया जाता है।
11. इसमें निरीक्षक छात्राध्यापक को परामर्शदाता के रूप में परामर्श देता है।
12. इसमे सेवारत अध्यापकों के तकनीकी कौशल का विकास कर शिक्षण विधियों के प्रति दृष्टिकोण में नवीनता लानी होती है।
13. इससे व्यावसायिक परिपक्वता का विकास करना होता है।
14. रिकॉर्डिंग कर अपने शिक्षण का स्वतः मूल्यांकन कर सुधार लाना होता है।
15. यह अध्यापकों के लिए निरन्तर प्रशिक्षण का साधन है।
16. शिक्षण के सिद्धान्तों व व्यवहारों का सुन्दर समन्वय किया जाता है।
17. यह छात्राध्यापक की कमियों के परिप्रेक्षण का नया स्वरूप है।
18. कुशल अध्यापकों के शिक्षण को रिकॉर्ड कर आदर्श पाठ के रूप में छात्राध्यापकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है।
19. तत्काल प्रतिपुष्टि (Feed-back) प्रदान कर शिक्षण को अधिक प्रभावी बनाया जाता है।
20. एक ही अध्यापक को दो या दो से अधिक बार शिक्षण व्यवहारों की तुलना का अवसर मिलता है।
21. छात्राध्यापकों को कक्षा में जाने से पूर्व प्रशिक्षण मिल जाता है, उनको अपने मित्रों के बीच निःसंकोच होकर न केवल अभ्यास करने का अवसर मिलता है अपितु सैद्धान्तिक ज्ञान, प्रतिपोषण आदि को बार-बार जाँचने का अवसर भी प्राप्त होता है।
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