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शेरशाह द्वारा किए गए सुधारों का वर्णन कीजिए?

 शेरशाह के प्रारम्भिक जीवन का वर्णन

शेरशाह मध्यकालीन भारत के महान शासकों में से एक था। उसके बचपन का नाम फरीद था । वह इब्राहीम सूर का प्रपौत्र और हसन का पुत्र था। यह अफगान जाति से सम्बन्धित था। शेरशाह का पिता घोड़ा का सौदागर या व्यापार सफलता न मिलने पर वह भारत आया और पंजाब में महावत खा सर के यहाँ नौकरी कर ली। बाद में उसने हिसार के सूबेदार जलाल खा सरंगखानी के अधीन नोकरी कर तथा उससे चालीस घोड़े प्राप्त किया। सिकन्दर लोदी की सल्तनत में हसन खाँ को पाँच सौ घाड़ा का जौनपुर का सूबेदार बना तथा सहसाराम में रहने लगा। फरीद का बचपन सहसराम में बीता। वहाँ उसका मन नहीं लगा | हसन का चार पत्नियाँ थीं। अतः वह विमाता के दुर्व्यवहार से दुःखी हो जौनपर चला गया, और जलाल खा के समक्ष उपस्थित हुआ। जौनपुर इस समय इस्लामी शिक्षा और संस्कृति का केन्द्र था । फरीद ने वहाँ अरबी,फारसी भाषा आर साहित्य तथा इतिहास का अच्छा ज्ञान प्राप्त करन क साथ ही प्रशासनिक ज्ञान भी प्राप्त किया। फरीद के व्यवहार तथा ज्ञान से सतष्ट हाकर उसके पिता के संरक्षक जलाल खौं ने उसके पिता से उसका मेल करा दिया। शेरशाह सहसपुर और रब्बासपुर का नायब बन सहसराम वापिस लौट गया।

उसने अपनी योग्यता और कार्यपटता से जागीर की उत्तम व्यवस्था की जिसमें उसका पिता बहत प्रसत्र हुआ । किन्तु अन्न में उसे विमाता के कारण जागीर त्यागनी पड़ी। 1532 ई० में आगरा पहुँचकर दौलत खाँ की सेवा करने लगा। हसन की मृत्य होते ही सुल्तान से सहसराम, रव्यासपर तथा टाण्डा की जागीरी का अधिकार प्राप्त कर सहसराम वापस लौटा और अपने भाइयों से जागीर वापस ले ली। सूर जाति के मुखिया। ने जागीर को दो भागों में बाँटने का आदेश दिया किन्तु उसने इस आदेश को नहीं माना। उसने विहार खाँ को उसे अपने पत्र शहजादा जलाल खा लोहानी का शासन संचालक (अतालीक) बना दिया।

इब्राहीम लोदी की पराजय के बाद बिहार खाँ ने अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया । इस समय उसने अफगानों को जागीरें दी। फरीद से खुश होकर उसे  शेरखौं की उपाधि से विभूषित किया ।

शेरशाह का चरित्र

शेरशाह एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह अपने पिता की एक छोटी-सी जागीर से ही संतुष्ट नहीं था। अपनी योग्यता एवं लगन के फलस्वरूप ही उसने मुगलों। को भारत से निकाल कर भारत में अफगान राज्य की स्थापना की। वह कहा भी करता था, “यदि देव ने मेरी सहायता की और भाग्य ने मेरा साथ दिया तो सरलता से मुगलों को भारत से निकाल दूँगा।” उसने अपने कहने को सत्य भी कर दिखाया था। वह विद्या-प्रेमी भी था। वह विद्वानों का आदर करता था और समय-समय पर उनका सत्संग भी किया करता था। वह बड़ा उदार तथा दानशील था। उसका व्यवहार हिन्द तथा मुसलमान दोनों के साथ समान था।

वीर सैनिक एवं कशल सेनापति-

शेरशाह में असाधारण सैनिक प्रतिभा दी। यह भयानक परिस्थितियों का सामना बड़ी वीरता तथा उत्साह से करता था। मो० कानूनगो के शब्दों मे “वह शासन सम्बन्धी योग्यता थी। वह एक योग्य सेनापति था। उच्चकोटि का विजेता होते हए भी यह उदार था। उसने अपनी सेना को आदेश दे रखा था कि कृषि को किसी प्रकार की क्षति न पहुंचे। किसानों का वह परम हितैषी था।

न्यायाप्रय सम्राट-

शेरशाह अपनी न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध है। श्री एस० आर० शर्मा के शब्दों में, “शेरशाह न्याय रूपी रल से अलंकृत था।” उसका न्याय निष्पक्ष होता था। न्याय करने तथा दण्ड देने में शेरशाह पूर्ण निष्पक्षता के साथ कार्य करता था।

निपुण शासक-

शेरशाह की गणना सर्वश्रेष्ठ शासकों में होती है। शेरशाह एक कर्तव्य परायण शासक था। वह अपने प्रत्येक कार्य को अपना कर्त्तव्य समझकर किया करता था। उसने शासन-व्यवस्था को उन्नत किया और भारत में शान्ति का साम्राज्य स्थापित किया। उसने प्रत्येक क्षेत्र में सुधार किये। उसका भूमि-प्रबन्ध, उसकी कर-नीति, उसका न्याय-विधान, उसकी सेना का संगठन सभी उसकी अपूर्व प्रतिभा के द्योतक हैं और उसकी उच्चकोटि की क्रियात्मक बुद्धि के परिचालक हैं।

विद्वानों के विचार

हेग के अनुसार, “वास्तव में शेरशाह उन महानतम शासकों में से एक था जो दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हए। ऐबक से लेकर औरङ्गजेब तक किसी अन्य को न तो शासन के ब्योरे का इतना ज्ञान था और न इतनी योग्यता और कशलता के साथ किसी ने सार्वजनिक कार्यों पर इतना नियन्त्रण रखा जितना उसने।”

विसेन्ट स्मिथ ने लिखा है, “पाँच वर्ष के तूफानी शासन-काल में उसने बहुत कुछ कर दिखाया। यदि शेरशाह कुछ वर्ष और जीवित रहता तो अपने वंश को दृढ़ आधार पर खड़ा कर जाता और महान् मुगलों को इतिहास के रङ्गमञ्च पर प्रकट होने का अवसर न मिलता।”

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कानूनगो के अनुसार, “शेरशाह के राज्यारोहण से उदार इस्लाम का वह युग प्रारम्भ होता है जो औरङ्गजेब के काल की प्रतिक्रिया तक चलता रहा।”

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शेरशाह का शासन-प्रबन्ध

शेरशाह न केवल उच्चकोटि का विजेता था, वरन वह उच्चकोटि का शासक भी था। पाँच वर्ष के अल्प शासन काल में शेरशाह ने जिस लोकप्रिय एवं सुसंगठित शासन की नींव डाली उसके लिए उसका नाम मध्यकालीन भारत के शासकों में अग्रगण्य है। शेरशाह प्रथम मुसलमान शासक था जिसका उद्देश्य जनसाधारण के लिए सुख और शान्ति की व्यवस्था करना था। उसने शासन-प्रबन्ध की नींव प्रजाहित को ध्यान में रखकर डाली थी। प्रजाहित को वह अपना प्रधान कर्त्तव्य मानता था । डब्लू० कुक के शब्दों में, “शेरशाह प्रथम व्यक्ति था जिसने व्यापक रूप में जनता की इच्छा पर आधारित भारतीय साम्राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया ।”

शेरशाह ने जिस शासन-प्रबन्ध का संगठन किया उसकी रूपरेखा इस प्रकार थी-

सुल्तान-

यद्यपि शेरशाह स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था, परन्तु उसके शासन में लोककल्याण और उदारता के तत्वों का अभाव नहीं था। शेरशाह सभी विभागों पर अपना पूर्ण नियन्त्रण रखता था और एक व्यक्ति के शासन को उत्तम समझता था। वह सेना तथा न्याय का सर्वोच्च पदाधिकारी था।

शासन की इकाइयाँ-

शेरशाह ने शासन की सुविधा के लिए राज्य को 37 इकाइयों में विभाजित कर दिया था। प्रत्येक इकाई का अधिकारी एक अफगान अफसर होता था। उसे ‘अमीन’ या ‘फौजदार’ कहते थे। वे सुल्तान के प्रति उत्तरदयी होते थे।

प्रत्येक इकाई कई सरकारों (जिलो) में बँटी थी । प्रत्येक सरकार का शासन दो प्रमुख  पदाधिकारियों द्वारा होता था-

(1) शिकदार-ए-शिकदारान और (2) मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान ।

प्रथम का मख्य कार्य ‘सरकार’ में शान्ति एवं सरक्षा की सुव्यवस्था करना था और दूसरे का मुख्य कार्य न्याय-सम्बन्धी था । इनकी सहायता के लिए अन्य तमाम कर्मचारी थे। प्रत्येक सरकार कई ‘परगनों’ में विभक्त था। प्रत्येक परगने में एक शिकदार, एक अमीन, एक खजाँची और हिसाब-किताब रखने के लिए एक हिन्दी और एक फारसी का मुन्शी होता था। एक परगने में कई गाँव होते थे। प्रत्येक गाँव में गांव वालों से निर्मित एक पंचायत होती थी जो गाँव के शासन को संचालित करती थी। प्रत्येक गाँव में एक पटवारी, एक मुकद्दम और एक चौधरी होता था। मखिया का पद विशेष महत्त्वपूर्ण था। अपने क्षेत्र में शांति, सुरक्षा स्थापित करने का उत्तरदायित्व मुखिया के ऊपर था।

भूमि-कर-व्यवस्था-

मालगजारी का सुधार शेरशाह का प्रमुख सुधार हो उसने सारे देश की कृषि योग्य भूमि की पैमाइश कराई और औसत उपज के अनुसार लगान निश्चित किया। भूमि की तीन श्रेणियाँ बनाई-अच्छी, साधारण और खराब। सरकार की ओर से प्रत्येक किसान को एक पढ़ा दिया जाता था जिसमें यह लिखा रहता था कि उसे कितना भूमि-कर देना है। किसानों को उपज का एक-तिहाई भाग लगान के रूप में राज्य को देना पड़ता था। किसानों को इस बात की छूट थी कि वे अपनी सुविधानुसार लगान नगद रुपया अथवा अनाज के रूप दें। शेरशाह की इस व्यवस्था को रयतवारी व्यवस्था कहते हैं । संकट या दर्भिक्ष पड़ने पर किसानों को राज्य की ओर से हर प्रकार की सहायता प्रदान की जाती थी। शेरशाह ने सैनिकों को यह आदेश दे रक्खा था कि वे किसानों की फसल नष्ट न करने का हमेशा ख्याल रखें और यदि सेनाओं से कृषि को कोई क्षति पहुँचती थी तो वह उस क्षति को पूरा कर देता था।

शेरशाह ने जागीरदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था और लोदियों के समय में मरिन्द की वक्फ की हुई भूमि जब्त कर ली थी, जिससे राज्य को भूमिकर द्वारा अधिक आमदनी होने लगी | डॉ० कानूनगो ने लिखा है कि “यदि शेरशाह दो-एक दशक तक और जीवित रह जाता तो जमींदारों का वर्ग समाप्त हो गया होता।”

सैनिक-व्यवस्था-

अलाउद्दीन खिलजी के संगठन के आधार पर शेरशाह ने अपनी। सेना को गठित किया । सैनिकों की भर्ती वह स्वयं करता था। उनकी योग्यता के। अनुसार स्वयं वेतन निश्चित करता था । उनका पता और हुलिया तक लिखवा लेता था। इसका परिणाम यह हुआ कि सैनिक हमेशा सम्राट के प्रति वफादार बने रहते थे। उसने। घोड़ों के दागने की प्रथा चलवाई ताकि अश्वारोही सैनिक सुल्तान को धोखा न दे सकें। शेरशाह की स्थायी सेना में डेढ़ लाख अश्वारोही, 25 हजार पैदल सैनिक, 500 हाथी। सम्मिलित थे । इसके अतिरिक्त साम्राज्य भर में प्रमुख स्थानों पर सैनिक टुकड़ियाँ तैनात थीं। उसने सेना में कठोर अनुशासन लागू किया और सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार रोकने का प्रयत्न किया ।

न्याय-व्यवस्था-

शेरशाह की न्याय-व्यवस्था बड़ी प्रशंसनीय थी। मध्ययुगीन शासको में वह अत्यन्त न्याय-प्रिय शासक माना जाता है। न्याय करने में वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता था । न्याय की कर्सी से वह छोटे-बड़े, अमीर-गरीब तथा हिन्दु- मुसलमान को एक निगाह से देखता था । अपराध करने पर वह अपने निकटतम रिश्तेदारों को भी नहीं छोड़ता था । न्याय को वह धार्मिक कार्य मानता था। उसका न्याय-विधान कठोर था । सम्राट स्वयं प्रधान एवं सर्वोच्च न्यायाधीश था। फौजदारी मकदमों का निर्णय “शिकदारे-ए-शिकदारान” और दीवानी मुकदमों का फैसला मुंसिफे-ए-मुन्सिफान’ करता था। गाँवों में अपराधों का पता लगाने में यदि मुखिया असफल होते। थे तो उसका दण्ड उन्हें ही भुगतना पड़ता था।

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गुप्तचर एवं डाक-व्यवस्था

अन्य निरंकुश शासकों की भाँति शेरशाह ने भी गुप्तचर विभाग का संगठन किया था । ये गुप्तचर साम्राज्य में होने वाली घटनाओं की सूचना सम्राट तक पहुँचाते थे। शेरशाह द्वारा निर्मित सरायें डाक-घरों का काम देती थीं। इन सरायों में संवाददाता रहते थे जो डाक लाने और ले जाने का काम करते थे। डॉ० काननगो का कहना है कि इन संस्थाओं के द्वारा शेरशाह मानो साम्राज्य की नब्ज पर हाथ रखे रहता था। इनके माध्यम से परगने की घटनाओं का सच्चा विवरण सम्राट के पारा पहुँचा करता था।

जन-कल्याण के कार्य

सड़कों का निर्माण-

शेरशाह ने सार्वजनिक कार्यों की ओर भी ध्यान दिया । उसने गमनागमन की सुविधा के लिए अपने साम्राज्य में कई सड़कों का निर्माण कराया जिसमें चार सड़कें विशेष उल्लेखनीय है:-) प्रांड ट्रक रोड बाल के सोनारगाँव से दण्ड देने नदी पर स्थित अटक तक, (2) आगरा से बुरहानपुर तक, (3) आगरा से जोधपुर तक और फिर चित्तौड़ तक, (4) लाहौर तक सड़कें प्रशासन व व्यापार की दृष्टि से बड़ी लाभदायक सिद्ध हुई।

सरायें तथा अन्य सुविधाएँ-

यात्रियों की सुविधा के लिए शेरशाह ने थोड़ी-थोड़ी दूर पर 1700 सरायें बनवाई। इनमें हिन्दू एवं मुसलमान यात्रियों के लिए भोजन की अलगअलग व्यवस्था रहती थी। सम्राट अशोक की भाँति शेरशाह ने भी सड़कों के दोनों किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाये।

दान तथा शिक्षा-

शेरशाह ने निर्धनों तथा असहायों के लिए दानशालाओं का प्रबन्ध किया था। उसने गरीबों के लिए निःशुल्क भोजन और निवास का भी प्रबन्ध किया और प्रजा के हितार्थ चिकित्सालय की स्थापना कराई । इस कार्य में वह नित्य 500 अशफियो  व्यय करता था। उसने शिक्षा प्रसार के लिए अपने साम्राज्य में अनेक मदरसों, मस्जिदों का निर्माण कराया।

भवन-निर्माण-

शेरशाह को भवन निर्माण का बड़ा चाव था। उसने रोहतास तथा दिल्ली का पुराना किला बनवाया और दिल्ली के समीप एक नगर बसाया। शेरशाह का सहसराम में मकबरा देखकर बी० ए० स्मिथ ने लिखा है-“सहसराम में शेरशाह की समाधि, योजना तथा सौन्दर्य की दृष्टि से भारत की सर्वोत्कृष्ट इमारत है और वैभव तथा ओज में उत्तरी प्रान्तों के पहले भवनों से अनुपम है।”

हुमायूँ और शेरशाह के सम्बन्धों का विवरण

शेरशाह की बढ़ती शक्ति को देखकर हुमायूँ संशकित हो उठा । हुमायूँ  शेरशाह की शक्ति को समाप्त करने के लिए आगे बढ़ा तथा बनारस जीतने मनेर (पटना) पहुँचा। बनारस प्रवास के समय शेरखों के समक्ष संधि प्रस्ताव रखा किन्तु सफल न हो सके। संधि वार्ता की असफलता के बाद वह बहाल की ओर गया । गौड़ में पहुँचकर उसने बङ्गाल पर अधिकार कर लिया । शेरखों ने बिहार तथा जौनपुर के मुगल क्षेत्र पर। अधिकार कर लिया तथा कनौज तक लूट-मार की। शेरशाह की विजय सुनकर हुमायू चिन्तित हो उठा और आगरा की ओर लौटने लगा।

मार्ग में हुमायूँ की मुठभेड़ शेरशाह से बक्सर के निकट चौसा नामक स्थान पर 1539 ई० में हुयी । इस युद्ध में हुमायूँ की गहरी हार हुयी और उसे गगा में कूदकर जान बचानी पड़ी । इस विजय के बाद शेरशाह का गौड़ पर अधिकार हो गया। अब वह पश्चिम में कन्नौज से लेकर पूर्व में असम की पहाड़ियों तथा चटगाँव तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में झारखण्ड की पहाड़ियों तक एवं बंगाल की खाड़ी तक फैले भाग का वास्तविक शासक बन गया।

अगले वर्ष हुमायूँ ने शेरशाह पर पुनः आक्रमण किया। इस बार इनकी भिड़न्त  कनौज में हुयी कन्नौज के इस युद्ध में हुमायूँ पुनः परास्त हुआ। हुमायूँ जान बचा कर भाग निकला, किन्तु शेरशाह ने उसका पीछा नहीं छोड़ा । पंजाब पर शेरशाह का अधिकार हो गया । हुमायूँ सिंध की ओर भाग गया। हुमायूँ के भारत से चले जाने के बाद शेरशाह निर्विघ्न शासन करता रहा । उसकी मृत्यु के बाद उसके अयोग्य उत्तराधिकारियों के समय आपसी फूट के कारण सूर साम्राज्य दुर्बल हो गया । 1555 ई० में हुमायूँ ने अपना खोया साम्राज्य पुनः प्राप्त करने के लिए भारत पर आक्रमण किया । उसने मादीवाड़ा तथा सरहिंद के युद्धों में अफगानों को निर्णायक मात दी। उनसे साम्राज्य छीनकर मुगल साम्राज्य की पुनः स्थापना की।

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