भूदान आन्दोलन की भूमिका एवं महत्व
भारतीय संस्कृति में ‘दान’ का विशेष महत्व है। यज्ञ के तीनों अंगों में दान भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है। आचार्य विनोबा भावे ने गाँधी जी के ‘राज्यविहीन समाज’ के जिस सपने को पूरा करने का निश्चय किया था, उसी की पूर्ति के लिए उन्होंने ‘भूदान आन्दोलन‘ चलाया। विनोबा जी गाँधी जी के इस विचार से सहमत थे कि सामाजिक जीवन का क्रियाओं में राज्य का हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिए तथा सामाजिक जीवन को भी राज्य-सत्ता पर कम से कम निर्भर होना चाहिए। मार्क्सवाद पूँजीपतियों की सम्पत्ति का विध्वंस करके तथा पूंजीपतियों को नष्ट कर समाज में आर्थिक समानता लाने का समर्थक किन्तु गांधी जी के आर्थिक सिद्धान्त में इनको कोई स्थान नहीं दिया गया है। जिनके पास अधिक है, वे स्वेच्छा से उनके लिए कुछ अंशदान कर दें, जिनके पास कुछ नही है।
गांधीजी के इसी विचार को क्रियात्मक रूप देने के लिए विनोबा भावे का भूदान आन्दोलन शुरू हुआ, जो करोड़ों भारतीय किसानों एवं ग्रामवासियों को एक ओर तो रोजी-रोटी पर कराने का साधन प्रदान करता है तथा दूसरी ओर आर्थिक समानता की दिशा में क्रान्तिकारी योजना भी प्रस्तुत करता है।
भदान आन्दोलन वास्तव में एक अहिंसक क्रान्ति है, जिसके द्वारा भारत में पास राज्य की कल्पना को साकार किया जा सकता है। यह ग्रामीण पुनर्निर्माण की एक अनदी योजना है, जिसमें हृदय परिवर्तन द्वारा भारतीय समाज के कमजोर भाग को ऊँचा उठाने का भाव निहित है। भूमि के मालिकों से भूमि को दान में मॉग लेना भूदान है। किन्तु भूदान आन्दोलन केवल भूमि दान कर देना या दान में मांग लेना ही नहीं है, बल्कि मांगी हुई भूमि को उन भूमिहीनों में वितरित कराना भी है, जो उस पर खेती करके अपना तथा अपने परिवार का पेट पालना चाहते हैं। भूदान एक दोहरी प्रक्रिया है। आवश्यकता से अधिक भूमि रखने वाला व्यक्ति जरूरतमंद व्यक्तियों के लिए अपनी कुछ भूमि दान कर देते हैं, फिर वह भूमि भूमिहीन किसानों में बांट दी जाती है। जो व्यक्ति भूमि प्राप्त करते हैं, उन्हें यह पता ही नहीं चलता कि उन्हें किसी ने भूमि दान में दी है, क्योंकि भूमि का दान लेने वाला व्यक्ति कोई और होता है और दान में प्राप्त भूमि उन्हें दे देता है।
विनोबा भावे के शब्दों में, “न्याय और समानता के सिद्धान्त पर आधारित समाज में भूमि पर सबका अधिकार होना चाहिए। इस प्रकार हम भूमि की भिक्षा नहीं माँग रहे हैं, वरन् उन गरीबों का हिस्सा मांग रहे हैं, जो भूमि को प्राप्त करने के सच्चे अधिकारी हैं। भूदान आन्दोलन के मूल में उन करोड़ों परिवारों की जीविकोपार्जन की समस्या का समाधान छिपा हुआ है, जो खेती करना चाहते हैं, खेती करने के लायक हैं, किन्तु उनके पास भूमि नहीं है। भूमि इस कारण नहीं है कि भूमि पर उन लोगों का कब्जा है जो न खेती करते हैं, न खेती करना चाहते हैं और न ही उन्हें इतनी भूमि की आवश्यकता ही है, जितनी उनके पास है। स्पष्ट है कि भूदान अपरिग्रह के विचार पर आधारित आन्दोलन है। संघर्ष के बिना ही ग्रामीण समाज की आर्थिक विषमता को दूर करना और अहिंसा द्वारा सामाजिक भेदभाव और व्यवस्था को समाप्त करना भूदान आन्दोलन का प्रधान लक्ष्य है।
विनोबा भावे के अनुसार गाँवों में भूमि व्यवस्था के ठीक न होने के फलस्वरूप ही ‘भारतीय गांवों में गरीबी, बेकारी, संघर्ष आदि समस्याएँ बढ़ती जा रही है। जब तक ग्रामवासी भूमि पर अपना स्थायी अधिकार नहीं पाते तब तक ये समस्याएं समाप्त नहीं होगा तथा एक सहयोगी समुदाय के रूप में गांवों का विकास असम्भव है। स्पष्ट है कि भूदान आन्दोलन भूमि-समस्या का समाधान ही नहीं करता है, अपित ग्राम-राज्य के सपने को साकार करने का तरीका भी है। अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति हेत विनोबा भावे ने देश के विभिन गाँवों में पदयात्राएँ की। उन्होंने जमींदारों, बड़े किसानोंसे भूदान यज्ञ में सम्मिलित होन का प्रार्थना भी की। फलस्वरूप अनेक लोगों ने अपनी भूमि का कछ हिस्सा उन्हें दान के रूप में अर्पित किया। स्पष्ट है कि भूदान केवल भमि की प्राप्ति और उसके वितरण तक ही सीमित नहीं। यह तो सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति का श्रीगणेश भी है। यह आन्दोलन राज्य-सत्ता की प्राप्ति का प्रयत्न नहीं है, न ही कोई राजनीतिक आन्दोलन या दल ही है। यह सामान ‘जनता को यह संदेश देता है कि राज्य कछ करे या न कर जनता को स्वयं अपने जा म प्राति करने की प्रवृत्ति उत्पन्न करनी चाहिए। भूदान आन्दोलन राजनीतिक दलान तथा सरकार की राजनीति नहीं, बल्कि जनता की राजनीति है, जो राज्य का समापन किए बिना ही सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन ला सकता है।
भारत प्रारम्भ से ही कृषि प्रधान समाज रहा है। भारत में भूमि के प्रति लोगों का भावात्मक लगाव जुड़ा है। भूमि के छिन जाने या उसका विक्रय हो जाने से व्यक्ति को ऐसा लगता है कि उससे उसका कोई प्रियजन बिछुड़ गया है, अतः कोई भी व्यक्ति अपनी निजी भूमि को छोडता नहीं चाहता। भूमि के निजी स्वामितव ने भूस्वामियों के मन को कलुषित कर दिया है। देश की कुल भूमि का अधिकांश भाग कुछ ही हाथों में चला गया है। भूमि स्वामित्व की प्राप्ति हेतु काला धन सहायक है। धनवान लोगों पर कानून की पकड़ न होने के कारण वे भूमि हड़प लेते है। इस स्थिति में भूदान आन्दोलन का बड़ा महत्व है।
विनोबा भावे द्वारा चलाया गया भूदान आन्दोलन ग्रामीणों के भूमिहीन, कमजोर तथा पराश्रित किसानों के लिए एक बहुत बड़ी सौगात है। उनके लिए यह आन्दोलन एक प्रकार से नवजीवन के समान है। विनोबा भावे के ‘ग्रामदान’ की योजना से तो अलग-अलग लोगों से भूमि दान लेने की समस्या ही समाप्त हो गई है। क्योंकि गांव के लोग सर्वसम्मति से गाँव की सम्पूर्ण कृषि योग्य भूमि को दान में दे देते हैं। इसके बाद उसी गाँव के लोगों की अलग-अलग आवश्यकताओं का अध्ययन करने के बाद उनमें भूमि को वितरित कर दिया जाता है। इससे एक गाँव की इकाई अपने में स्वतन्त्र हो जाती है।
आचार्य विनोबा भावे ने भूदान आन्दोलन के सात लाभों/महत्वों का उल्लेख किया है-
1. भूदान आन्दोलन समाज में विद्यमान गरीबी एवं बेकारी समाप्त करता है.’ फलस्वरूप जीविकोपार्जन के लिए होने वाले संघर्ष कम/समाप्त होते हैं। समाज में स्थिरता, शान्ति और समृद्धि आती है।
2. भूमि दान करने वाले भू-स्वामियों के हृदय में अपने साथी कृषकों के प्रति चेतना आर सहानुभूति की भावना का जागरण होता है। इस तरह भी पारस्परिक प्रेम-भावना/समाज में नैतिक वातावरण, सहयोग एवं त्याग भावना की उत्पत्ति करती है। फलस्वरूप उनमें शोषण करने की प्रवृत्ति दूर होती है।
3. भूदान आन्दोलन के माध्यम से भू-स्वामियों एवं भूमिहीन कृषकों के मध्य सहस्त्रों पपा स व्याप्त घृणा/द्वेष एवं पूर्वाग्रह समाप्त होते हैं। फलस्वरूप दोनों पक्ष पारस्परिक प्रेम, सदभाव तथा सन्तुष्टि होने के कारण समाज/समुदाय/देश को समृद्ध तथा शक्तिशाली बनाने में सहयोगी बन सकते हैं।
4.भूदान आन्दोलन वस्तुतः एक ऐसा आन्दोलन है, जो भारतीय संस्कृति के फि सिद्धान्तों पर बल देता है। भारतीय संस्कृति में तप, यज्ञ तथा दान को विशेष महत्व दिया गया है। भूदान आन्दोलन में ये तीनों ही तत्व समाहित हैं। विनोबा भावे का यज्ञ जारी है, किसानों का तप हो रहा है और भूमि के स्वामी भी अपनी भूमि का दान कर रहे है।
5. भूदान आन्दोलन से धर्म को भी समुचित शक्ति मिलती है। तप, यज्ञ और दान को सम्मिलित करते हुए भूदान आर्थिक कार्यक्रम को चलाने हुए धार्मिक विश्वास/आस्था को मजबूत करता है, जिससे नैतिक नियमों की स्थापना में काफी सहायता मिलती है।
6. यह आन्दोलन राजनीतिक दलों को परस्पर सहयोग करने, मिल-जुलकर समाज के कमजोर/ शोषित/उपेक्षित लागों के उद्धार और उनकी सहायता करने की प्रेरणा देता है।
7. भूदान आन्दोलन का अन्तर्राष्ट्रीय महत्व है। प्रेम, अहिंसा, भाई-चारा, सहानुभूति, त्याग, सहयोग, परिग्रह जैसे मानवीय तत्वों पर बल देकर, यह आन्दोलन अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना तथा विश्व शान्ति की स्थापना का संदेश देता है।
स्पष्ट है कि विनोबा भावे द्वारा प्रस्तुत भूदान आन्दोलन एक अभिनव विचार है जिसके माध्यम से ग्रामों का पुनर्निर्माण एवं उत्थान किया जा सकता है। इसके द्वारा बिना हिंसकाखनी क्रान्ति किए ही समाजवाद की स्थापना हो सकती है। समाज में आर्थिक विषमता दूर की जा सकती है, निर्धनता एवं बेकारी तथा विघटन की प्रवृत्तियों को दर किया जा सकता है। भूदान आन्दोलन से गुलामों का जीवन व्यतीत करने वाले करोडो भूमिहीन किसानों की आर्थिक दशा को सुधारा जा सकता है। करोड़ों एकड़ अनुप्रयुक्त भूमि का सदुपयोग हो सकता है। सहयोग एवं सहकारिता की भावना को प्रोत्साहित किया जा सकता है। भूदान आन्दोलन के फलस्वरूप लोगों में मानवीय गुणों का पुनर्जागरण होता है। व्यक्तियों में त्याग एवं अपरिग्रह की भावना उत्पन्न होती है, समूह एवं समुदाय के हित/कल्याण तथा परस्पर सहयोग को प्रोत्साहन प्राप्त होता है। यह आन्दोलन विशेषतः ग्रामीण जीवन को समृद्ध, सुखी और मानवीय मूल्यों से युक्त बनाता है। अतः यह कथन पूर्णतः समीचीन है कि “भूदान केवल भूमि का संग्रह तथा वितरण मात्र ही नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक नीति की दिशा में पहला कदम है।
भूमिहीन कृषकों की समस्याओं के निवारण की दिशा में सरकार द्वारा किए गए प्रयासों
का वर्णन
भारत में भूमिहीन श्रमिकों की समस्या के निवारण के संदर्भ में स्वतन्त्र सरकार ने अग्रलिखित कार्य किये हैं-
- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम की स्थापना को 19 जुलाई, 1975 से भूमिहीन श्रमिकों पर भी लागू किया गया है, जिससे उनकी आमदनी में पर्याप्त वृद्धि हुई है।
- भूमि आवंटन के द्वारा अधिकम जोत से बची हुई भूमिक तथा बंजर भूमि को इन श्रमिकों में बांटा गया है। सन् 1979 तक लगभग 60 लाख भूमिहीन श्रमिकों को इससे लाभान्वित किया जा चुका है।
- सरकारी ऋण मुक्ति अध्यादेश के द्वारा,जिन भूमिहीन श्रमिकों की वार्षिक आय 2400 रुपये है, उनको सभी प्रकार के कर्जों से मुक्त कर दिया गया है।
- बन्धुआ मजदूर उन्मूलन 1975 के द्वारा सम्पूर्ण देश में इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया है।
- विभिन्न प्रकार के कल्याण कार्यक्रमों के द्वारा इनकी दशा सुधारी जा रही है। स्थायी समिति, कृषि सेवा समितियों की स्थापना, ग्रामीण कार्य योजना तथा लघु कुटीर उद्योग धन्धों के विकास आदि कार्यक्रम और बैंको से ऋण दिलाना आदि भी ऐसे ही कार्य है जिनसे इनकी दशा में उत्तरोत्तर सुधार हो रहा है।
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