bhartiye-gramin-samajik-sanrachna

भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना क्या है

भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना क्या है

 

सामाजिक संरचना की अवधारणा

 

सामाजिक संरचना, मानव समाज का बाह्रय स्वरूप है, जो एक समाज विशेष को एक समय विशेष में सामाजिक समितियों तथा संस्थाओं के निश्चित विधि से सव्यवस्थित हो जाने के परिणामस्वरूप प्राप्त होता है। एक सावयव के अन्तर्गत प्रत्येक अंग की एक निश्चित स्थिति होती है, जिससे सम्बन्धित विशिष्ट कार्य भी निश्चित होते हैं। एक सावयव में जिस प्रकार हाथ, पैर, मुख, नाक, कान, दाँत आदि की विशिष्ट स्थितियों और प्रकार्य होते हैं, ठीक उसी प्रकार से सामाजिक सावयव सम्पूर्णता है, जिसका निर्माण विभिन्न व्यक्तियों, समूहों, संस्थाओं तथा समितियों के व्यवस्थित संकलन के आधार पर होता है, जिनको समाज की निर्माणक इकाइयाँ भी कहा जाता है। मानव समाज के निर्माणक इन सभी अंगो का अस्तित्व वस्ततः उसी समय तक होता है, जिस समय तक ते परस्पर प्रकार्यात्मक सम्बन्ध बनायें रखते हैं।

हैरी एम. जानसन के अनुसार, ‘किसी भी वस्तु की संरचना उसके अंगों में पाये “पाल तुलनाकृत स्थाई अन्तः सम्बन्धों को कहते हैं। चूंकि सामाजिक व्यवस्था लोगों की अन्तः सम्बन्धित क्रियाओं से बनती हैं, इसलिए उसकी संरचना को इन क्रियाओं में जान वाली नियमितता की मात्रा अथवा पुनरूत्पत्ति में खोजा जाना चाहिए।

 

भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना

 

अन्यान्य समाजों की ही भाँति भारतीय ग्रामीण समाज भी एक सावयव की ही भाँति है, क्योंकि इसका निर्माण करने वाले विभिन्न व्यक्तियों की स्थितियों एवम् भूमिकाओं स्थाई व्यवस्था ही इसका प्रमुख आधार है। किसी भी व्यक्ति की विभिन्न स्थितियाँ और भूमिकायें वस्तुतः समूह और संस्थागत नियमों के संदर्भ में ही औचित्यपूर्ण होती है अर्थात समूह से पृथक हो जाने पर स्थितियों का कोई महत्व नहीं प्राप्त होता है। ग्रामीण सामाजिक संरचना की निर्माणक इकाइयों में समुदाय का निर्माण करने वाले नातेदारी समूह, परिवार, गोत्र, रिश्तेदारी, बिरादरी, वंश, जाति, उपजाति तथा वर्ग आदि सर्वप्रमुख तत्व माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त इनमें सन्नहित व्यक्तियों की उच्च-निम्न श्रेणियाँ तथा स्थितियों और भमिकाओं की व्याख्या करने वाली विभिन्न संस्थायें सांस्कतिक आदर्श और विभिन्न प्रकार के सामाजिक नियमादि भी सम्मिलित किये जाते हैं। इस प्रकार भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना एक वृहद स्वरूप के रूप में स्पष्ट होती है, जिसमें ग्रामीण विवाह, परिवार, वंश, गोत्र, नातेदारी, जाति, वर्ग तथा विभिन्न प्रकार के राजनैतिक धार्मिक और आर्थिक समूह आदि-सम्मिलित होते हैं। कैथलीन गोह ने ‘तंजौर’ के ‘कन्वप्रेताई’ नामक भारतीय ग्राम के अध्ययन में यही स्पष्ट किया है। इसी प्रकार डॉ. एम. एन. श्रीनिवास कृत ‘रामपुरा’ ग्राम के अध्ययन में बहुजातीय ग्रामीण समुदाय की सामाजिक संरचना की झाँकी प्रस्तुत की गई है। डा. श्रीनिवास ने ग्रामीण संरचना की व्याख्या का आधार जातिगत-विभेद बताया है। श्रीनिवास के मतानुसार ग्रामीण संरचना की उत्पत्ति अन्तर्विवाह, फान-पान, जाति पंचायत, सांस्कृतिक परम्परा, धर्म-कर्म की अवधारणाओं द्वारा होती है। विभिन्न हिन्दू जातियों को परस्पर एक दूसरे से विलग करने वाले इन सभी तत्वों की उपस्थिति के बावजूद भी ग्रामीण समुदाय में कतिपय ऐसी विशिष्ट प्रवृत्तियाँ पाई जाती है, जिससे विभिन्न जातियों एक सूत्र में बँधी रहती हैं। आपने यह भी बताया है कि एक सूत्रता का प्रमुख कारण केवल मात्र व्यावसायिक विशेषीकरण होता है, जो कि विभिन्न ग्रामीण जातियों को परस्पर एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित बने रहने को विवश कर देता है, तथापि अकृषक व्यक्तियों को नई भमि की प्राप्ति के अवसर और कृषि के स्थान पर अन्य व्यवसायों की उपलब्धि भी ग्रामीण आर्थिक संरचना को गतिशील बनाते हैं। प्रभुत्व जाति के मुखियागण ही सम्पूर्ण ग्रामीण समुदाय पर सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक नियन्त्रण स्थापित रखते हैं, जिससे ग्रामों की सामूहिक एकता एवं सुरक्षा सुदृढ़ बनी रहती है।

भारतवर्ष की ग्रामीण सामाजिक संरचना का अध्ययन विभिन्न विद्वानों ने किया है.’ जिनमें कैथलीन गोह, डा. एम. एन. श्रीनिवास, डा. श्यामाचरण दुबे, मिल्टन सिंगर, राबर्ट रेडफील्ड, डी. एन. मजूमदार, मेकिम मेरियट, आस्कर लेविस तथा बजराज चौहान आदि सर्वप्रमुख माने जाते हैं। इन ग्रामीण अध्ययनों से यह तथ्य ज्ञात होता है कि भारत के जिन ग्रामों में अनेक जातियाँ विद्यमान होती हैं, उनकी सामाजिक संरचना अपेक्षाकृत अधिक जटिल होती है तथा वहाँ जजमानी प्रथा ही अन्तर्जातीय सम्बन्धों का सन्तुलन बनाये रखने वाली एक विशेष व्यवस्था के रूप में विकसित हो जाती है। इसी प्रकार से जनसंख्या का आकार तथा घनत्व, नगर से दूरी, आवास की पद्धति आदि भी ग्रामीण सामाजिक संरचना। को प्रभावित करने वाले तत्व होते हैं। डा. श्यामाचरण दुबे ने अपने अध्ययन में यह बताया। है कि भारत की ग्रामीण सामाजिक संरचना में निहित एकता की स्थापना हेतु तीन तत्व हो। अति महत्वपूर्ण हैं। उनका कथन है कि पारिवारिक बन्धन, जाति व्यवस्था तथा क्षेत्रीय लगाव । ही अन्ततोगत्वा किसी भी भारतीय ग्राम की जनसंख्या को एकता के सत्र में बाँधे रखत हा एक अन्य विद्वान राबर्ट रेडफील्ड ने ग्रामीण सामाजिक संरचना में नातेदारी समूहों, परिवार, सामाजिक गुटो,विद्यालयों, सरकारी संगठनों, धार्मिक समूहों तथा राजनैतिक पार्टियों को भी सम्मिलित किया है। इस प्रकार वे सामाजिक संरचना को केवल मात्र व्याक्त आर कियाओं के मध्य उपस्थित सम्बन्ध व्यवस्था ही नहीं स्वीकार करते हैं। रावट रेडफील्ड का मत है कि ग्रामीण सामाजिक संरचना का मलाधार वस्ततः नियम व्यवस्था है, जिसम सभा व्यक्ति परस्पर आबद्ध रहते हैं। सामाजिक संरचना अपेक्षाओं तथा मर्यादाओं का एक ऐसा नाना-बाना है, जिसके परिप्रेक्ष्य में ही भारतीय ग्रामीणजन अपना सम्पूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करते हैं।

See also  संरचनाकरण(Structuration) क्या है | गिडेन्स के संरचनाकरण का सिद्धान्त

विभिन्न प्रकार के नैतिक नियमों तथा मर्यादाओं के ग्रामीण सामाजिक संरचना का पलाधार स्वीकार करने के पश्चात संस्कृति ही ग्रामीण सामाजिक संरचना का प्रमुख और केन्द्रीय तत्व हो जाती है। इस सन्दर्भ में फोर्टेस ने लिखा है कि ‘सामाजिक संरचना एक विशिष्ट सैद्धान्तिक योजना के द्वारा व्यवस्थित एक समुदाय की सम्पूर्ण संस्कृति होती। है। रेडफील्ड ने भी यही विचार प्रस्तुत किया है कि यद्यपि सामाजिक संरचना को संस्कृति का पर्याय तो नहीं कहा सकता, तथापि यह एक केन्द्रीय और संयोजक विचार अवश्य है, जिसके द्वारा सामुदायिक जीवन के विभिन्न पक्षों की परीक्षा की जा सकती है। विभिन्न मानवशास्त्री विद्वानों ने भी ग्रामीण सामाजिक संरचना को एक व्यापक और विस्तृत अवधारणा के रूप में स्पष्ट किया है। इस वर्ग के विद्वानों के मतानुसार सामाजिक संरचना में धार्मिक तथा जादू सम्बन्धी क्रियाये, अर्थतन्त्र, नातेदारी के सम्बन्ध, नैतिक नियम, स्थितियाँ तथा भमिकायें और कर्तव्य आदि सम्मलित हो सकते हैं। इस प्रकार अन्त में यह कहा जा सकता है कि परिवार, विवाह, नातेदारी, जाति, पंचायतें, धर्म, आर्थिक और शैक्षिक संस्थायें, प्रतिमान, अधिकार तथा कर्तव्य, स्थितियाँ और भूमिकायें तथा सांस्कृतिक मूल्य और आदर्श इत्यादि ही भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना के प्रमुख तत्व होते हैं।

 

ग्रामीण सामाजिक संरचना में श्रेणी

विभाजन मानव जाति का, सम्पूर्ण इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि वस्तुतः किसी भी युग में और किसी भी मानव समाज में विभिन्न समूह एक दूसरे को समान मानकर व्यवहार नहीं करते हैं। इसलिए विभिन्न समूहों के आपसी सम्बन्धों को सर्वथा व्यवस्थित और सन्तुलित बनाये रखने के लिए समाज में कुछ प्रतिबन्ध, नियमही विभिन्न समूहों का समाज में एक स्थान निश्चित करते हैं तथा इसी स्थान के आधार पर समूह के सभी सदस्यों, अधिकारों तथा कर्तव्यों का निर्धारण भी होता है। इस प्रकार समाज के निर्माणक यह सभी समूह अपने अधिकारों और कर्तव्यों के आधार पर उच्च-निम्न श्रेणियों में बँट जाते हैं।

भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना में श्रेणी विभाजन अथवा स्थिति सोपानक्रम का मूलाधार जाति व्यवस्था को ही माना जाता है। भारतीय जाति प्रथा जन्म पर आधारित समूह है तथा वही व्यक्तियों और सदस्यों के व्यवहारों तथा आचरणों को निर्देशित और नियन्त्रित भी करती है। भारतवर्ष के ग्रामों में विभिन्न प्रकार की जातियाँ निवास करती है, जो कि सामाजिक स्थिति सोपानक्रम में पृथक-पृथक स्थान पर आसीन हैं। भारत में जातीय संरचना ही प्रत्येक जाति की स्थिति तथा भमिका निर्भर होती है तथा इसी के अनुसार प्रत्येक क व्यक्ति अपना व्यवहार करते हैं। इससे स्पष्ट है कि स्थिति सोपान ही व्यक्तियों के व्यवहार तथा आचरण की मर्यादाओं एवम सम्पर्क की मात्रा को निर्धारित करता है। भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना में जातीय स्थिति कम का अत्यधिक कठोरतापूर्वक पालन किया। जाता है। सामान्यतः एक ग्राम में जो आति अधिक भूमि की स्वामी होती है, वही ग्रमीण सामाजिक संरचना के सर्वोच्य स्थान पर आसीन होती है। भारत में अभी तक क्षत्रियों ,ठाकुरों अथवा राजपूतों के पास ही अधिकाधिक भूस्वामित्व सुरक्षित है, इसलिए उनको ही उच्च स्थिति प्राप्त है।

भारतीय सामाजिक संरचना में ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र नामक चार जातियों को सामाजिक स्थितिक्रम में क्रमानुसार प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ स्थान प्राप्त है, तथापि यह चारों वर्ण स्वयं ही अनेकानेक जातियों में विभाजित हो गये, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय सामाजिक संरचना के अन्तर्गत स्थिति सोपान अत्यधिक कष्टप्रद और जटिल हो गया है। पूरे देश में सामान्य रूप से कोई भी जाति स्थिति सोपान में प्रथम स्थान पर नहीं दृष्टिगत होती है, जबकि तथाकथित अपृश्य जातियाँ निम्न स्थान पर आसीन दिखाई पड़ती हैं। आस्कर लेविस ने ‘रानीखेड़ा ग्राम’ की सामाजिक संरचना की व्याख्या में बताया है कि रानीखेडा ग्राम में जाति व्यवस्था ही जीवन को स्थिति सोपानक्रम के सिद्धान्त को आधार पर संगठित करती है और समूहों के मध्य स्तरों की भिन्नता का निर्माण भी करती है। इस रानीखेडा ग्राम में केवल 150 परिवार हैं, जो कि 12 जातियों से सम्बन्धित हैं। इनमें 781 परिवार जाट, 15 परिवार ब्राह्मण, 20 परिवार चमार, 10 परिवार भंगी, 7 परिवार कुम्हार, 3 परिवार झींवर 4 परिवार खाती.3 परिवार नाई,3 परिवार छिषी और 1-1 परिवार । बनिया और लौहार जाति के है। इस ग्राम के रहने वाले जाट चूँकि कृषक और सम्पूर्ण भूमि के स्वामी हैं, इसलिए ग्राम की स्थिति सोपानक्रम में उनको उच्चतम स्थान प्राप्त है तथा शेष। सभी अन्यान्य जातियाँ उनके आश्रय पर ही जीवन-यापन करती है। नीची जातियों के व्यक्ति ग्राम के प्राचीन निवासी होने के बावजद भी ग्राम के बाहरी भाग में ही रहते हैं तथा ग्राम के औपचारिक संगठन में उनको कोई भी महत्व नहीं प्राप्त है। इस ग्राम के हरिजन जातियों। के लोग ब्राहाणों तथा जाटों के साथ एक चारपाई पर नहीं बैठते हैं और जब कभी समुदायिक सरकारी अधिकारियों की सभा होती है। तब भी उस सभा में हरिजन जाति के लोग सर्वथा पृथक ही बैठते हैं। इसके बावजूद भी इस ग्राम में परिवर्तन होने लगे हैं, क्योंकि दिल्ली महानगर से अस्पृश्यता एवं छुआछुत विरोधी आन्दोलन और सरकारी नियम, आर्यसमाजी विचारों का प्रभाव तथा रोजगार के अन्यान्य सुलभ अवसरों ने रानीखेड़ा की जातियों में महत्वपूर्ण व्यवसायिक परिवर्तन उत्पन्न किये हैं।

See also  उत्तर-आधुनिकता क्या है | What is Post-modernism in Hindi

सामाजिक श्रेणी-विभाजन का निर्धारण

रघुराज गुप्त ने भारत में सामाजिक स्थिति सोपानक्रम के कुछ निर्धारक तत्वों का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार स्थिति सोपनक्रम में किसी जाति का स्थान निश्चित करने में “भोजन ग्रहण करना एक महत्वपूर्ण कारक होता है। यदि वैश्य जाति का व्यक्ति ब्राह्मण जाति से भोजन ग्रहण कर लेता है, किन्तु ब्राह्मण जाति वैश्य का भोजन ग्रहण नहीं करती, तो ब्राहाण का स्थान वैश्य से ऊँचा माना जाता है। इसी प्रकार से ‘आहार का प्रकार भी स्थिति का निर्धारण में सहायक होता है, जिसमें मांसाहारी भोजन करने वाली जातिय निम्न और शाकाहारी भोजन करने वाली जातियां उच्च मानी जाती हैं। मांसाहार म जातियाँ मुर्गा, बकरा-खाती हैं, वह कुछ उच्च, मछली वाली मध्यम और पालतू सुअर, १ तथा गीदड आदि खाने वाली जातियाँ निम्नतम स्थिति वाली समझी जाती हा सा स्थिति सोपानक्रम के निर्धारण का तीसरा तत्व ‘व्यवसाय सम्बन्धी शुद्धता’ है, जिस और नौकरी को उच्चतम, व्यापारी तथा किसान को द्वितीय, लोहे और लकड़ा का वालों को तृतीय तथा नाई और धोबी जाति को चतर्थ स्थान पर रखा जाता है.’ और चमार को सबसे नीचे स्थान पर रखा गया है। इसी प्रकार ‘आथिक आश्रियता’ भी जातियों की स्थिति को ऊँचा-नीचा करती हैं, जबकि ‘आर्थिक भूस्वामित्व’ भी स्थिति सोपानक्रम के निर्धारण में एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है।

ग्रामीण समाज में सामाजिक स्थिति सोपानक्रम से सम्बन्धित उपर्युक्त वर्णित विवरण के आधार पर अन्त में सारसंक्षेप हेतु यह कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में कोई भी जाति वस्तुतः सम्पूर्ण देश में उच्चतम स्थिति पर कदापि आसीन नहीं हैं, तथापि समाज में स्थिति सोपानक्रम का प्रमुख निर्धारक तत्व जाति पर ही निर्भर करता है। इस सन्दर्भ में उच्च तथा निम्न जातियों की स्थिति तो काफी कुछ स्पष्ट है, तथापि मध्यवर्ती जातियों की स्थिति के निर्धारण में अनेक कठिनाइयों उत्पन्न होती हैं। इसके बावजूद भी सामाजिक स्थिति सोपनक्रम के प्रमुख निर्धारक तत्वों में भोजन की स्वीकृति, व्यावसायिक शुद्धता, आहार का प्रकार, आर्थिक स्वतन्त्रता और भूस्वामित्व तथा सम्मानजनक व्यवहार आदि सर्वप्रमुख माने जाते हैं। ग्रामीण भारत में सन्निहित सामाजिक जीवन की विविधता ही अन्ततोगत्वा स्थिति सोपनक्रम में जातियों के सर्वमान्य स्थान का निर्धारण करने के सन्दर्भ में एक बड़ी समस्या सिद्ध होती है।

Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: 24Hindiguider@gmail.com

Leave a Reply