इस पोस्ट में हम चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी व उनके जीवन की उपलब्धियों का वर्णन, चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की विजयों को जानेगें, चन्द्रगुप्त मौर्य का वंश क्या था, मौर्य वंश का संस्थापक कौन हैं?, चंद्रगुप्त मौर्य का इतिहास क्या था, चंद्रगुप्त मौर्य किसका पुत्र था?, चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में पाटलिपुत्र का स्थानीय शासन, चन्द्रगुप्त को सम्राट क्यो कहा जाता है, चन्द्रगुप्त मौर्य का सेल्युलस निकेटर से युद्ध, आदि प्रश्नों के उत्तर को जानने का प्रयत्न करेंगे।
चन्द्रगुप्त मौर्य कौन था? उसकी विजयों का वर्णन
वह एक अप्रतिम एवं अनुपम विजेता, सेनानायक तथा योग्य शासक माना जाता है। सिकन्दर के लौटते ही भारत के राजनीतिक आकाश में नये नक्षत्र का उदय हुआ जिसने अपने तेज से अन्य सारे नक्षत्रों को मलीन कर दिया। यह चन्द्रगुप्त था। चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम भारत के प्रथम ऐतिहासिक सम्राटों में लिया जाता है। यही एक ऐसा ऐतिहासिक व्यक्ति है जिसे भारत के प्रथम सम्राट की संज्ञा दी जा सकती है।
चन्द्रगुप्त मौर्य का वंश
चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति एवं वंश के विषय में विद्वानों ने भिन्न-भिन्न विचार प्रकट किये हैं। अन्य प्रमाणों से चन्द्रगुप्त क्षत्रिय माना जाता है। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों ने एक स्वर से चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय घोषित किया है। महावंश के अनुसार चन्द्रगुप्त “मोरिय” वंश में हुआ (“मौरयानं खत्तियानं वंशे जातम्)। इसके अतिरिक्त मध्यकालीन लेखों में भी मौर्यों को सूर्यवंशी क्षत्रिय ही माना गया है। अतः यह निर्विवाद है कि मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त क्षत्रिय ही था। उसका जन्म लगभग 345 ई० पू० में हुआ था।
चन्द्रगुप्त की विजय
(1) पंजाब विजय-
सिकन्दर के स्वदेश लौट जाने तथा अकाल मृत्यु के कारण उसके सेनानायकों में कुहराम मच गया और वे राज्यों के लिए आपस में झगड़ने लगे। परिणामतः चन्द्रगुप्त मौर्य व चाणक्य ने विदेशी शासकों की फूट और जनता के असंतोष से लाभ उठाकर यूनानी सेनाओं को पंजाब से शीघ्र मार भगाया और भारत भूमि से विदेशी दासता के जुए को हमेशा के लिए उतार फेंका।
(2) मगध पर विजय-
पंजाब पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद चन्द्रगुप्त ने सैनिक संगठन किया। कश्मीर की पहाड़ियों के राजा पर्वतक से मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया। तत्पश्चात् पूरी तैयारी के साथ उसने नन्द सम्राट घनानन्द पर आक्रमण कर दिया। उपलब्ध प्रमाणों से विदित होता है कि घनानन्द सपरिवार मारा गया और सम्पूर्ण मगध पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो गया। 322 ई० पू० में चन्द्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठ गया।
(3) सेल्यूकस से युद्ध (1987)-
सिकन्दर के साम्राज्य को उसके सेनानायकों ने बाँट लिया था। भारतीय राज्य का भाग सेल्यूकस को मिला। इसलिए उसने पुनः भारत-विजय की सोची और 305 ई० पू० में उसने भारत पर आक्रमण कर दिया। किन्तु अब पूरा उत्तरी भारत चन्द्रगुप्त जैसे योग्य शासक के अधिकार में था और उसके पास एक शक्तिशाली सेना थी । अतः सेल्यूकस की सेना के अभियान को चन्द्रगुप्त मौर्य ने कुचल दिया। सेल्यूकस को चन्द्रगुप्त के साथ अपमानजनक संधि करनी पड़ी। संधि की निम्नलिखित शर्ते थीं :-
- (1) सेल्यूकस ने काबुल, कन्दहार, बिलूचिस्तान और हेरात के प्रदेश चन्द्रगुप्त को दिये।
- (2) सेल्यूकस ने अपनी कन्या का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया ।
- (3) चन्द्रगुप्त ने 500 हाथी उपहारस्वरूप सेल्यूकस को भेंट किये।
- (4) सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त के दरबार में मेगस्थनीज नामक राजदूत भी भेजा।
4) दक्षिण भारत की विजय-
रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगप्त ने सौराष्ट्र पर भी विजय पताका फहराई | मालवा और काठियावाड़ भी उसके अधिकार में आ गये थे। इसलिए दक्षिण विजय का श्रेय भी चन्द्रगुप्त को दिया जाता है।
चन्द्रगुप्त का राज्य-विस्तार
चन्द्रगुप्त के साम्राज्य की उत्तर-पश्चिम सीमा हिन्दुकुश और वर्तमान पारस की सरहद तक पहुँच गई थी। दक्षिण में साम्राज्य का विस्तार मैसूर तक था। इस प्रकार कश्मीर एवं कलिंग को छोड़कर समस्त भारत एवं समस्त आधुनिक अफगानिस्तान और बलूचिस्तान उसके साम्राज्य में सम्मिलित थे। प्लूटार्क के अनुसार “चन्द्रगुप्त ने सारी भारत भूमि रौंद कर उस पर अधिकार कर लिया।”
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल में पाटलिपुत्र के स्थानीय शासन का वर्णन
चन्द्रगुप्त की शासन-व्यवस्था चन्द्रगुप्त एक महान विजेता के साथ-साथ एक कुशल शासक भी था। उसके शासन का परिज्ञान कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ एवं मेगस्थनीज की ‘इंडिका’ तथा यूनानी लेखों के विवरण से प्राप्त होता है। अशोक के अभिलेखों से भी उसकी शासन-व्यवस्था पर विपुल प्रकाश पड़ता है। इसका वर्णन निम्नलिखित है :
केन्द्रीय शासन
सम्राट-
चन्द्रगुप्त की शासन-प्रणाली एकतन्त्रात्मक थी। सम्पूर्ण शक्ति सम्राट के हाथों में केन्द्रित थी। अपनी प्रजा के हित के लिए दत्तचित रहकर वह शासन-सम्बन्धी बातों पर ध्यान देता था. वह न्याय, विधान और सेना का प्रधान अध्यक्ष था । राजदूतों का स्वागत करना, अधिकारियों की नियुक्ति करना, गुप्त सूचनाएँ प्राप्त करना तथा न्याय करना आदि उसके प्रधान शासन सम्बन्धी कार्य थे।
मन्त्रि-परिषद-
सम्राट की सहायता एवं परामर्श के लिए एक मन्त्रि-परिषद थी। इसके सदस्यों को स्वयं सम्राट मनोनीत करता था । मन्त्रिपरिषद का अधिवेशन केवल महत्वपूर्ण कार्यों के सम्पादन एवं समस्याओं पर विचार करने के लिए ही होता था।
मन्त्री-
दैनिक कार्यों का संचालन सम्राट मन्त्रियों की सहायता से करता था। मन्त्री लोग मन्त्रि-परिषद् के सदस्यों से भिन्न थे और इनका महत्व भी मन्त्रि-परिषद् के सदस्यों से कम था। राज्य के समस्त कार्य मन्त्रियों की सहायता एवं परामर्श से ही होते थे।
अन्य पदाधिकारी-
शासन-संचालन के लिए अनेक कर्मचारी थे। इनमें समाहर्ता, सन्निधाता, सेनापति, अमात्य, अध्यक्ष, अस्तपाल, दुर्गपाल एवं दौवारिक आदि प्रमुख थे। चाणक्य ने राज्य के 18 उच्च पदाधिकारियों का उल्लेख किया है।
प्रान्तीय शासन
शासन की सुविधा के लिए साम्राज्य कई प्रान्तों में विभक्त था। प्रान्त का शासन राजकुल के किसी कुमार के सुपुर्द होता था, जो महामात्य कहलाता था। इसकी सहायता के लिए अनेक अधिकारियों की नियुक्ति होती थी। मध्य देश नामक प्रान्त पर स्वयं सम्राट का प्रत्यक्ष शासन था। जूनागढ़ के लेख से पता चलता है कि सौराष्ट्र का गोप्त चन्द्रगुप्त के समय में पुष्यगुप्त वैश्य था।
स्थानीय शासन
नगर का शासन-
मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर की शासन-व्यवस्था का वर्णन किया है। वह कहता है कि इस नगर का प्रबन्ध 6 समितियों के एक बोर्ड द्वारा होता था। इस बोर्ड की तुलना आधुनिक काल की नगरपालिकाओं से की जा सकती है। मेगस्थनीज के अनुसार पाटिलपुत्र नगर के शासन का भार छ: समितियों पर था जिनमें पाँच-पाँच सदस्य थे। सम्भव है पाटलिपुत्र की भाँति ही साम्राज्य के अन्य नगरों का भी प्रबन्ध होता रहा होगा। नगर के शासन का प्रधान ‘नागरिक’ होता था और इसके नीचे ‘स्थानिक’ तथा ‘गोप’ नामक पदाधिकारी होते थे।
ग्राम का शासन-
‘ग्राम’ शासन की सबसे छोटी इकाई थी। इसका प्रबन्ध ‘ग्रामिक’ के द्वारा होता था। यह ग्राम जनता द्वारा निर्वाचित अवैतनिक कर्मचारी था। 5 से 10 गाँवों तक का अधिकारी ‘गोप’ तथा जिले (जनपद) के चौथाई भाग का अधिकारी ‘स्थानिक’ कहलाता था। इनके ऊपर सम्पूर्ण जनपद का अधिकारी होता था जिसे ‘समाहर्ता’ कहते थे।
सैनिक व्यवस्था या संगठन-
चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक अत्यन्त शक्तिशाली तथा सुव्यवस्थित विशाल सेना की व्यवस्था की थी जिसके द्वारा उसने प्लूटार्क के शब्दों में “सारे भारतवर्ष को रौंद डाला था।” प्लिनी के अनुसार “चन्द्रगुप्त की सेना में छः लाख पैदल, 3000 अश्वारोही, 9000 हाथी और 8000 रथ थे।” यह सेना स्थायी थी और राज्य की ओर से वेतन पाती थी।
मेगस्थनीज के अनुसार सेना का प्रबन्ध छः समितियों द्वारा होता था और प्रत्येक समिति में पाँच सदस्य होते थे। पहली समिति नौ सेना, दूसरी अश्व सेना, तीसरी रथों, चौथी हस्तिसेना, पाँचवीं समिति यातायात एवं युद्ध-सामग्री और छठवीं जल सेना का प्रबन्ध करती थी। कौटिल्य के अनुसार सेना में एक चिकित्सा विभाग होता था जो युद्ध के समय सैनिकों के उचित इलाज की व्यवस्था करता था। कौटिल्य के अनुसार सेना का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति था। पैदल, रथ, हाथी और अश्व सेना के प्रधान अधिकारी क्रमशः पदाध्यक्ष, रथाध्यक्ष, हस्त्याध्यक्ष और अश्वाध्यक्ष होते थे।
गुप्तचर विभाग-
चन्द्रगुप्त की शासन-व्यवस्था में गुप्तचर विभाग का स्थान महत्वपूर्ण था। यह विभाग अच्छी तरह संगठित था। गुप्तचरों का सम्राट से सीधा सम्बन्ध रहता था। राज्य में होने वाली प्रत्येक घटना की सूचना राजा के पास पहुँचाना, गुप्तचरों का काम था। इनसे राज्य की आन्तरिक व्यवस्था में सहायता मिलती थी। इस प्रकार राज्य की शक्ति का आधार गुप्तचर विभाग था।
न्याय एवं दण्ड के विभाग-
न्याय का सर्वोच्च अधिकारी सम्राट स्वयं होता था। दीवानी न्यायालय को ‘धर्मस्थीय’ और फौजदारी न्यायालय को ‘कंटक शोधन’ कहते थे। प्रत्येक न्यायालय में तीन न्याय विशेषज्ञ होते थे। न्यायालय प्रातःकाल को खुला करते थे। निर्णय शीघ्र दिया जाता था। न्याय निष्पक्ष होता था । दण्ड कठोर था। निश्चित अपराधों में अंग-भंग की सजा दी जाती थी। इस कठोर दण्ड-विधान के कारण अपराध बहुत कम होते थे और मुकदमेबाजी भी कम थी। उसके दण्ड-व्यवस्था का उद्देश्य भी यही था।
आय के साधन-
राजकीय आय के कई साधन थे। इसमें से मुख्य साधन भूमिकर था। राज्य उपज का छठाँ भाग लेता था। भूमिकर नकद या वस्तु दोनों प्रकार से दिया जा सकता था। राजा किसानों के हितों का ध्यान रखता था । खेती की सिंचाई के लिए राज्य की ओर से प्रबन्ध था। आय का दूसरा मुख्य साधन विक्रय कर था। इसके अतिरिक्त शराब की चुंगी, खान की चुंगी, सरकारी भूमि एवं जंगलों की आय, अर्थदण्ड, बन्दरगाहों से कर आदि भी राजकीय आय के साधन थे परन्तु जनता पर करों का बोझ अधिक न था।
उपरोक्त विवरण से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का शासन प्रबन्ध बहुत ही सुव्यवस्थित एवं ससंगठित था।
चन्द्रगुप्त का मूल्यांकन
चन्द्रगुप्त की गणना भारत के महान सम्राटों में की जाती है। उसने महान शान्ति एवं सुरक्षा स्थापित की। उसने भारत से विदेशी शासन का अन्त करके भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्त किया। उसने अपने अधिकारों का भी दुरुपयोग नहीं किया। वह प्रजा के हित का सदैव ध्यान रखता था और उनकी सहायता के लिए तत्पर रहता था। वास्तव में वह एक प्रजा पालक सम्राट था। राधाकुमुद मुकर्जी ने उसकी गणना भारत के महानतम शासकों में की है।
चन्द्रगुप्त मौर्य को भारत का प्रथम ऐतिहासिक सम्राट् क्यों कहा जाता है-
चन्द्रगुप्त मौर्य का मूल्यांकन चन्द्रगुप्त मौर्य को भारतीय इतिहास का प्रथम ऐतिहासिक और सफल सम्राट कहा जाये तो अनुचित न होगा, क्योंकि उसी समय से भारत की राजनीतिक घटनायें तिथियुक्त तथा क्रमबद्ध रूप में मिलती हैं। डॉ० वी० ए०स्थिम ने लिखा है-“चन्द्रगुप्त मौर्य सही अर्थों में पहला ऐतिहासिक व्यक्ति था, जिसे भारत का सम्राट् कहा जाता है।”
चन्द्रगुप्त मौर्य की ऐतिहासिक महत्ता निम्न तथ्यों से प्रकट होती है-
(1) विशाल साम्राज्य निर्माता-
चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बड़ा विशाल था। उसका साम्राज्य हिन्दूकुश पर्वत से लेकर बंगाल तक तथा हिमालय पर्वत से लेकर मैसूर (कर्नाटक) तक था। इसके अन्तर्गत अफगानिस्तान, बलूचिस्तान के विशाल प्रदेश, कलिंग, सौराष्ट्र, मालवा तथा दक्षिणी भारत के मैसूर तक का प्रदेश सम्मिलित हो गया था। अतः उसे सच्चे अर्थों में विजेता के साथ-साथ एक महान् साम्राज्य निर्माता कहना न्यायसंगत है।
(2) एक महान विजेता-
चन्द्रगुप्त वास्तव में एक महान् विजेता कहा जा सकता है क्योंकि वह एक साधारण परिवार में जन्मा व्यक्ति था। उसे कोई छोटा-मोटा राज्य भी – उत्तराधिकार के रूप में नहीं मिला था जिसके आधार पर वह अन्य राज्यों को जीतकर अपना राज्य विस्तृत करता। उसने मात्र अपने पौरुष एवं विद्वत्ता के आधार पर चाणक्य से मित्रता की और मगध जैसे शक्तिशाली राज्य को जीता।
प्लूटार्क का कहना है कि “छ: लाख सैनिकों की विशाल सेना लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला।” अतः -यह तथ्य स्पष्ट करता है कि वास्तव में चन्द्रगुप्त महान विजेता था। इतिहासकार स्मिथ का तो यहाँ तक कहना है कि “अनेक बातों में उसकी शासन व्यवस्था की झलक आजकल की संस्थाओं में देखने को मिलती है।”
(3) लोक कल्याणकारी शासक-
चन्द्रगुप्त के सन्दर्भ में एक विशेष बात उल्लेखनीय है कि वह स्वेच्छाचारी शासक होते हुए भी प्रजा के हित का विशेष ध्यान रखता था। वह फारस के ‘डेरियस’ की भाँति निरंकुश शासक नहीं था । वास्तव में सम्पूर्ण मानव जाति का शुभचिंतक था।
इस तरह चन्द्रगुप्त मौर्य सभी विद्वानों के द्वारा भारत का प्रथम महान् विजेता और साम्राज्य सम्राट माना जाता है।
मौर्य काल का इतिहास जानने के प्रमुख साधनों का उल्लेख
मौर्य काल के इतिहास को जानने के लिए हमारे पास अनेक साधन हैं। भारत में सिकन्दर के आक्रमण के समय और उसके पश्चात् अनेक यूनानी लेखकों ने भारत की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशाओं का वर्णन किया है। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त के दरबार में आकर तत्कालीन भारत की स्थिति का विवरण अपनी ‘इण्डिका’ नामक कृति में किया है।
इस प्रकार यह कृति मौर्यकालीन इतिहास को जानने का प्रमाणिक स्रोत है। चन्द्रगुप्त के मंत्री विष्णुगुप्त (चाणक्य) ने भी ‘अर्थशास्त्र’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ में भी मौर्यकालीन इतिहास पर प्रकाश डाला गया है। विशाखदत्त संस्कृत भाषा के उच्चकोटि के विद्वान थे।
उनके द्वारा रचित संस्कृत नाटक ‘मुद्राराक्षस’ से भी हमें मौर्यकाल की प्रारंभिक इतिहास सम्बन्धी सूचनाएँ प्राप्त हो जाती है। जैन एवं बौद्ध धर्म के ग्रन्थों से भी मौर्य काल के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी मिल जाती है। अशोक के अभिलेख मौर्यकालीन इतिहास को जानने के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। इनसे उस काल की सभ्यता एवं संस्कृति का भलीभाँति परिचय मिल जाता है। इस प्रकार अशोक के स्तंभ तथा शिलालेख मौर्यकालीन इतिहास जानने के ठोस एवं प्रामाणिक साधन है।
चन्द्रगुप्त मौर्य एवं सेल्यूकस के बीच सन्धि क्यों हुई?
सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसके एशियाई साम्राज्य पर उसके सेनापति सेल्यूकस ने अधिकार पा लिया। उसने 305 ई० पू० में भारत पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने उसे पराजित किया। सेल्यूकस को एक सन्धि करनी पड़ी।
सन्धि की शर्ते-
चन्द्रगुप्त मौर्य एवं सेल्यूकस के मध्य हुई सन्धि की निम्नलिखित शर्ते थी-
(1) सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को हिरात, कन्धार, काबुल घाटी एवं बलूचिस्तान के चार प्रान्त उपहार में दिये।
(2) सेल्यूकस ने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ कर दिया।
(3) चन्द्रगुप्त ने 500 हाथी सेल्यूकस को उपहारस्वरूप दिये।
(4) सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त की सभा में मेगस्थनीज नामक एक राजदूत भेजा। इस सन्धि के कारण मगध साम्राज्य की पश्चिमी सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक फैल गई।
महत्वपूर्ण प्रश्न-
- मौर्यवंश का संसथापक कौन था- चन्द्रगुप्त मौर्य
- मेगस्थनीज ने कौन सी पुस्तक लिखी थी- इण्डिका
- चन्द्रगुप्त मौर्य की राजगद्दी दिलाने में किस व्यक्ति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी- चाणक्य ने।
- चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक कब हुआ- लगभग 322 ई. पू. में।
- मोर्य काल में प्रचलित विभिन्न प्रकार के विवाहों के नाम लिखिये- मौर्य काल में ब्राह्म विवाह, प्रजापात्य विवाह, आर्ष विवाह, दैव विवाह, गान्धर्व विवाह, आसुर विवाह, राक्षस विवाह, पैशाच विवाह का प्रचलन था।
- चन्द्रगुप्त मौर्य के मुख्य परामर्शमदाता का क्या नाम था- कौटिल्य अथवा चाणक्य।
- चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास जानने के दो साधन बताइए- 1. यूनानी राजदूत मेगस्थनीज की इंडिका, 2.कौटिल्य का अर्थशास्त्र।
- चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल में किस विदेशी ने भारत पर आक्रमण किया और उसका क्या परिणाम हुआ- सेल्यूकस निकेटर ने आक्रमण किया जिसमें वह पराजित हुआ।
- चन्द्रगुप्त की दो विजय बताइये- 1. मगध पर विजय। 2. सेल्यूकस पर विजय
- अर्शशास्त्र की रचना किसने की थी- इस ग्रंथ की रचना कौटिल्य ने की थी।
- मेगस्थनीज ने किस पुस्तक की रचना की थी- मेगस्थनीज ने इंडिका नाम की पुस्तक की रचना की थी।
- मौर्यकालीन चार प्रधान एैतिहासिक स्थल लिखिये- 1. पाटलिपुत्र, 2. उज्जयिनी, 3. तोषली, सुवर्णगिरि।
- मेगस्थनीज कौन था- मेगस्थनीज यूनानी राजदूत था जो चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में 6 वर्ष तक रहा।
- चन्द्रगुप्त मौर्य के काल की मन्त्रि-परिषद् के विभिन्न विभागों का उल्लेख कीजिए- चन्द्रगुप्त मौर्य के काल की मन्त्रि-परिषद् में निम्लिखित विभाग थे- 1. अर्थ विभाग, 2. विदेश विभाग, 3. गृह विभाग, 4. गुप्तचर विभाग, 5. सेना व रसद विभाग, 6. न्याय विभाग आदि। प्रधानमंत्री, युवराज, पुरोहित, सेनापति, सन्निधाता, समाहर्त्ता, दण्डपाल, दुर्गपाल, व्यावहारिक आदि मन्त्री-परिषद् के प्रमुख पदाधिकारी होते थे।
- चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना के विभिन्न अंगों का उल्लेख कीजिऐ- 1. पैदल सेना, 2. अश्वारोही सेना, 3. हाथियों की सेना, 4. रथ सेना, 5. नौ सेना(जल सेना) एवं रसद सेना।
- मौर्य काल(शासन) के पतन के तीन प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए- मौर्य साम्राज्य के पतन के तीन प्रमुख कारण इस प्रकार है- 1. केन्द्रीय शक्ति का दु्र्बल होना। 2. प्रान्तीय कुशासन, 3. अशोक की अहिंसा नीति।
- चन्द्रगुप्त मौर्य की विदेशी नीति क्या थी स्पष्ट कीजिए- चन्द्रगुप्त मौर्य की विदेशी नीति सहयोग और मित्रता पर आधारित थी। चन्द्रगुप्त ने यूनान के सम्राट् सेल्यूकस से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया था और यूनान से राजदूतों का आदान-प्रदान किया था। चन्द्रगुप्त ने अन्य सीमावर्ती राज्यों से भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये थे।
- चन्द्रगुप्त मौर्य के समय की राजस्व व्यवस्था का उल्लेख कीजिए- भूमिकर उपज के 1/16 भाग से 1/14 भाग तक लिया जाता था। यह अनाद के रूप में लिया जाता था। इसके अतिरिक्त फल-फूल, साग-सब्जी उगाने तथा वन-सम्पदा पर भी कर लगाया जाता था।
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