रॉबर्ट गेने (1965) के अनुसार, “छात्र के लिए बाह्य रूप में अधिगम परिस्थितियों की व्यवस्था करना ही शिक्षण होता है । इन अधिगम परिस्थितियों की व्यवस्था में स्तरीकरण किया जाता है । प्रत्येक अधिगम परिस्थिति के लिए उनकी पूर्व परिस्थिति छात्र के लिए आवश्यक होती है जिससे धारणा शक्ति विकसित होती है।”
की व्यवस्था निम्नलिखित ढंग से की है :
अधिगम परिस्थितियाँ (Conditions of learning) :
उपर्युक्त चित्र में दिये गये बिन्दुओं का संक्षेप में वर्णन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है :
1. अनुबद्ध अनुक्रिया सम्बन्ध- यह पवलव के सिद्धान्त पर आधारित है, जिस प्रकार पवलव के प्रयोग में घण्टी के बजने से कत्ता लार गिराता है, जबकि घण्टी तथा खाने को उसके सामने एक साथ प्रस्तुत किया गया था। घण्टी संकेत का कार्य करती है। इसी प्रकार छोटे बालकों के अक्षर ज्ञान में संकेत अधिगम परिस्थिति उत्पन्न की जाती है, जैसे, अ से अनार आ से आम आदि।
2. उद्दीपन अनुक्रिया अधिगम-यह स्किनर तथा थॉर्नडाइक के सिद्धान्तों पर आधारित है। इसमें अनुक्रिया पुनर्बलन का कार्य करती है। इसी प्रकार छात्र को जब अपनी की गई अनुक्रियाओं की शुद्धता की पुष्टि मिल जाती है, तब उसे आगामी अनुक्रिया करने हेतु पुनर्बलन मिलता है। अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction) में इसी प्रकार की अधिगम परिस्थिति उत्पन्न कर छात्रों को पुनर्बलित किया जाता है।
3. क्रमिक अधिगम- स्किनर तथा गिलबर्ट ने इस प्रकार के अधिगम की व्याख्या की है। इसमें छात्रों के समक्ष क्रम से पाठ्यवस्तु को प्रस्तुत करने की बात का उल्लेख किया । गया है। गेने ने दो प्रकार के क्रमिक अधिगम अथवा श्रृंखला अधिगम बताये। हैं-शाब्दिक तथा अशाब्दिक। अशाब्दिक अधिगम हेतु चित्रों व अन्य दृश्य साधनों का प्रयोग किया जाता है।
4. शाब्दिक सहसम्बन्ध अधिगम-इस प्रकार के अधिगम में शब्दों को क्रम से छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, यह भाषा शिक्षण में बहुत उपयोगी होती है, जैसे- वर्ण, अक्षर, शब्द, वाक्य आदि का क्रम छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करना।
5. बहुभेदीय अधिगम- इसमें दो श्रृंखलाओं में भेद करने की क्षमता छात्रों में उत्पन्न की जाती है, जैसे, शाब्दिक तथा अशाब्दिक सहसम्बन्ध अधिगम की श्रृंखला।
6.सम्प्रत्यय अधिगम-छात्रों में ऐसी क्षमताओं का विकास किया जाता है जिससे वह समस्त उद्दीपनों के समूह के लिए अनुक्रिया का निर्धारण कर लेता है।
7. अधिनियम अधिगम- यह दो या अधिक प्रत्ययों की श्रृंखला से उत्पन्न होता है। व्यवहार का नियन्त्रण इस प्रकार किया जाता है, जिससे वह नियम को शब्दों में कह सके।
8. समस्या समाधान अधिगम-इसके अन्तर्गत केवल अधिनियमों का प्रयोग ही नहीं होता है, अपित छात्र को अपनी मौलिकता का भी प्रयोग करना पड़ता है, परन्तु नियमों का अधिगम होने पर ही वह समस्या के समाधान में समर्थ हो सकता है।
शिक्षण सिद्धान्त अधिगम सिद्धान्तों पर आधारित :
क्रॉनबेक के अनुसार, अधिगम सिद्धान्तों के आधार पर शिक्षण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जा सकता है इसके लिए उन्होंने निम्नलिखित सात तत्त्वों का उल्लेख किया है ।
1. परिस्थिति-पाठ्यक्रम के नियोजन के समय विभिन्न परिस्थितियों का चयन किया जाता है तथा उन्हें एक क्रम में व्यवस्थित किया जाता है, जैसे, पाठ्यवस्तु, शिक्षक तथा छात्र अधिगम हेतु सहायक सामग्री तथा शिक्षण उद्देश्य आदि ।
2. व्यक्तिगत भिन्नताओं को महत्व-शिक्षण अधिगम के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि शिक्षक छात्रों की व्यक्तिगत भिलताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षण का नियोजन तथा व्यवस्था करें जिससे छात्रों की योग्यताओं का अधिकाधिक लाभ उठाया जा सके और अधिगर भी स्थायी हो।
3. लक्ष्य-शिक्षण अधिगम हेतु यह आवश्यक है कि शिक्षक तथा छात्रों के समक्ष लक्ष्य स्पष्ट हों तथा शिक्षक का सदैव यह प्रयास रहे कि वह लक्ष्यों की प्राप्ति में छात्रों को अभिप्रेरित करें व ऐसा वातावरण प्रस्तुत करें जिससे छात्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
4. अर्थापन (Interpretation)– अर्थापन अथवा व्याख्या छात्रों को अतीत के अनुभवों के आधार पर भविष्यवाणी के लिए अवसर देती है । इस प्रकार छात्र के पूर्व अनुभव आगामी क्रियाओं की ओर संकेत करते हैं।
5. क्रिया-छात्र किसी कार्य को सीखते समय अनेक क्रियाएं करता है । जब सम्भावित क्रिया अनोखी होती है, तब उसे सृजनात्मक क्रिया की संज्ञा दी जाती है, अर्थात् वह छात्र की मौलिकता होती है।
6. परिणाम-जब छात्र को अपनी क्रियाओं के परिणाम सकारात्मक मिलते हैं, तब वह आगे उसी तरह की क्रियाएँ करते हए प्रेरित होता है और यदि परिणाम नकारात्मक मिलते हैं, तब परिस्थिति अनुसार छात्र कई बार क्रियाओं में परिवर्तन भी कर देता है। इस अवस्था में शिक्षक द्वारा छात्रों को परिणामों का सही ज्ञान करवाने में मदद करनी चाहिए।
7. प्रतिक्रिया-परिणाम के नकारात्मक आने पर कई बार छात्रों की स्थिति बडी तनावपूर्ण हो जाती है, वे असफल हो जाने के कारण भयभीत हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में शिक्षक को छात्रों की क्रियाओं में परिवर्तन करने में सहायता करनी चाहिए।
उपर्युक्त तत्त्वों के अध्ययन से यह सिद्ध हो जाता है कि शिक्षण तथा अधिगम दोनों के सिद्धान्त एक-दूसरे पर आधारित है। प्रभावशाली शिक्षण बिना शिक्षण अधिगम के नहीं हो सकता।
शिक्षण-अधिगम के सम्बन्ध की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं :
1 शिक्षण की प्रभावशीलता के लिए शिक्षण की क्रियाओं को अधिगम के निकट लाना आवश्यक है।
2. शिक्षण की क्रियायें अपेक्षित अधिगम स्वरूपों के अनुरूप होनी चाहिए, तभी अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।
3. शिक्षण तथा प्रशिक्षण को उद्देश्य केन्द्रित बनाया जा सकता है।
4. शिक्षक अपने कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक तथा प्रोत्साहित हो जाता है।
5. इसके द्वारा छात्राध्यापक अपनी शिक्षण क्रियाओं की सार्थकता को समझ सकते है तथा शिक्षण को अधिगम आधारित बनाने की दृष्टि से पाठ-योजना को सावधानीपूर्वक बनाने के प्रति ध्यान देंगे।
6. शिक्षक अपनी योजना में समुचित शिक्षण विधियों तथा शिक्षण की सहायक सामग्री आदि का इस प्रकार प्रयोग करेगा कि अधिगम सरल व स्थायी हो सके।
7. इसमें शिक्षण की समस्त क्रियाओं में समन्वय किया जाता है।
8. इसके आधार पर शिक्षण क्रियाओं को उद्देश्यपूर्ण बनाया जा सकता है।
शिक्षण-अधिगम के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन से स्पष्ट होता है कि इसकी प्रक्रिया किस प्रकार चलती है। सर्वप्रथम किसी भी शिक्षण अथवा प्रशिक्षण के कुछ मुख्य उद्देश्य होते हैं, जिनका निर्धारण प्रशिक्षण की श्रेणी के अनुसार किया जाता है, अर्थात् किस विषय में प्रशिक्षण दिया जा रहा है, इसका निश्चय होने के बाद अनदेशन की समुचित विधियों का चयन किया जाता है। फिर शिक्षण को अधिक सुग्राह्य बनाने हेतु सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाता है। अब शिक्षक अथवा प्रशिक्षक यह ज्ञात करने हेतु कि छात्र ने विषय को कितना ग्रहण किया है; बीच-बीच में अथवा अन्त में मूल्यांकन करता है। इस समस्त प्रक्रिया को निम्नलिखित तालिका में स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है : (प्रत्येक, कॉलम को लम्बवत् पढ़ा जाए) |
शिक्षण एवं अधिगम की प्रक्रिया (Process of Teaching and Learning)
शिक्षण-अधिगम व्यवस्था (Managing Teaching-Learning)
आई.के.डवीज (I.K.Devies) ने Management of Teaching & Learning नामक पुस्तक में सर्वप्रथम शिक्षण-अधिगम व्यवस्था का वर्णन किया। प्राचीन काल में शिक्षा शिक्षक केन्द्रित थी, किन्तु आधुनिक काल में शिक्षा बाल केन्द्रित है। उसे बालकों की योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुरूप ही प्रदान करने के प्रयत्न जारी हैं। आज शिक्षक व्यवस्थापक, निर्देशक एवं नियन्त्रक का स्थान लेता जा रहा है। इस रूप में शिक्षक के कार्यों को डेवीज ने चार सोपानों में बाँटा हैं-
1.शिक्षण अधिगम का नियोजन-
सर्वप्रथम शिक्षक कार्य विश्लेषण करता है। तत्पश्चात् शिक्षण के उद्देश्यों को पहचान कर सीखने के उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखता है।
कार्य विश्लेषण निम्नलिखित तरीकों से किया जाता है-
(अ) पाठ्यपुस्तक विश्लेषण (Content Analysis)
(ब) क्रिया विश्लेषण (Activity Analysis)
(स) कौशल विश्लेषण (Skill Analysis)
(अ) पाठ्यवस्तु विश्लेषण (Content Analysis)
आई.के. डेवीज’ के अनुसार, “पाठ्यवस्तु विश्लेषण का अर्थ-पढ़ाई जाने वाली पाठ्यवस्तु या शीर्षक का, उसके अवयवों तथा तत्त्वों में विश्लेषण और उसका तर्क पूर्ण विधि से संश्लेषण करना है।”
उदाहरण-कक्षा 8 में ‘जल प्रदूषण’ नामक पाठ पढ़ाने के लिए शिक्षक उसे ‘उप-इकाइयों में बाँटेगा-(i) जल-प्रदूषण का अर्थ, (ii) जल-प्रदूषण के प्रकार, (iii) जलप्रदूषण के कारण, (iv) जल-प्रदूषण रोकने के उपाय, (v) जल-प्रबन्धन आदि।
विधियों का चयन-व्याख्यान विधि, प्रदर्शन विधि, प्रयोग विधि।
सहायक सामग्री का चयन-चित्र, मानचित्र, प्रतिकृति (मॉडल)।
(ब) क्रिया विश्लेषण (Activity Analysis)
क्रियाओं का निर्धारण- भ्रमण, सर्वेक्षण, जल प्रबन्धन सम्बन्धी क्रियाएँ।
(स) कौशल विश्लेषण (Skill Analysis)
(i) जल प्रदूषण को रोकने के उपायों में, (ii) शुद्ध जल के प्रयोग में, (iii) जल के प्रबन्धन में दक्षता उत्पन्न करना।
इसके बाद शिक्षण के उद्देश्यों एवं सीखने के उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखा जाता है।
पाठ्यवस्तु विश्लेषण की विधियाँ(Methods of Content Analysis)
पाठ्यवस्तु विश्लेषण की अनेक विधियाँ हैं। उनमें से डेवीज की ‘मैट्रिक्स प्रविधि’ उल्लेखनीय है, क्योंकि इसमें शिक्षण अधिगम के समस्त सोपान सम्मिलित है-
शिक्षण-अधिगम व्यवस्था (Management of Teaching-Learning Process)
उक्त समस्त प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए पाठ्यवस्तु के तत्त्वों की तर्कपूर्ण क्रम में व्यवस्था शिक्षण सूत्रों के अनुसार की जानी चाहिए।
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