लेवी स्ट्रास के सामाजिक विनिमय सिद्धान्त की विवेचना
क्लाइड लेवी स्ट्रास का संरचनावाद क्या है?
क्लाइड लेवी स्ट्रास का संरचनावाद को संरचनावाद का प्रवर्तक माना जाता है। मस्तिष्क कैसे कार्य करता है, इस सम्बन्ध में स्ट्रास ने नृजातीय तथ्यों के आधार पर जिस सिद्धान्त की रचना की, उसे ही संरचनावाद का नाम दिया गया। स्ट्रास के अनुसार, मनुष्य का मस्तिष्क जगत को दो विरोधी युग्मों(Pairs) में संगठित(बाँटता) करता है और इसी प्रारम्भिक बिन्दु से सुसंगत समबन्धों की व्यवस्थाओं का विकास होता है। इसी के आधार पर स्ट्रास ने अपने द्विभाजी विपरीतता(Binary Opposition) के सिद्धान्त के मूलभूत विचार को जन्म दिया। स्ट्रूस के अनुसार, सभी संस्कृतियों के तत्त्व मूलतः एक ही मानसिक प्रक्रिया की उपज है, जो सम्पूर्ण मानव समाज में समान रूप से पाई जाती है। यह संभव है कि सांस्कृतिक दृष्टि से बाह्य रूप में भिन्नता हो, किन्तु आन्तरिक संरचना में समानता होती है, जो कि मानव चिन्तन की समान संरनचा को प्रकट करती है। घटनाओं को दो विरोधी घडों में बाँटने की प्रवृत्ति मानव मस्तिष्क की एक सार्वभौमिक विशेषता है।
लेवी स्ट्रास का सामाजिक विनिमय सिद्धान्त
लेवी स्ट्रास के सामाजिक विनिमय सिद्धान्त की दो मुख्य मान्यताएँ हैं – 1. सामाजिक विनिमय व्यवहार मानवीय होता है यानी अधोमानवीय (मानवेत्तर) पशु सामाजिक विनिमय की दृष्टि से योग्य नहीं होते हैं। 2. यह एक अति मानवीय या मानवोपरि प्रक्रिया है एवं इसमें वैयक्तिक हित समाहित हो सकते हैं, किन्तु वे सामाजिक विनिमय की प्रक्रियाओं का प्रतिपालन नहीं कर सकते हैं। लेवी स्ट्रास ने अपने इस सिद्धान्त में दुर्खीम के आंग्ल उपयोगितावादियों के विरोध को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है। उन्होंने गरीब आस्ट्रेलियाई जनजातियों का उदाहरण दिया है कि धनाभाव के कारण वे अपनी बहन के बदले में पत्नी प्राप्त कर लेते थे। सामाजिक विनिमय की वस्तुएँ सांस्कृतिक दृष्टि से परिभाषित तो अवश्य है, किन्तु आर्थिक अन्तर्निहित मूल्य के कर्ता उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितनी कि अपने बहिर्गत मूल्य के कारण। उनका विचार है कि सामाजिक विनिमय को देखा नहीं जाना चाहिए, क्योंकि महत्व तो विनिमय का है, न कि वस्तुओं का। प्रत्येक दृष्टि से विनिमय सम्बन्ध विनिमय की वस्तुओं से पहले आता है और उनसे स्वतन्त्र होता है।
मानव प्रकृति तथा सांस्कृतिक विभिन्नताएं
सामाजिक विनिमय व्यवहार के संदर्भ में लेवी स्ट्रास ने मनोविज्ञान की उपयोगिता की उपेक्षा की है। मानव व्यवहार के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की उनकी निष्पत्ति ही विनिमय व्यवहार की सांस्कृतिक उपधारणाओं को प्रतिष्ठित करने की स्वतः शोध विधि है। लेवी स्ट्रास के अनुसार सामाजिक विनिमय में मनोविज्ञान का अर्थ पशु व्यवहार के संदर्भ में है। एकान्त में रहने वाले व्यक्ति के संदर्भ में नहीं। मानव व्यवहार दो प्रकार का होता है – प्रतीकात्मक एवं अप्रतीकात्मक व्यवहार लेवी स्ट्रास मानव को प्राणीशास्त्रीय और सामाजिक दोनों व्यक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। उनका तर्क है कि यह मानव का सामाजिक पक्ष ही है जो कि उसे सामाजिक विनिमय जैसी विशेष प्रकार की प्रतीकात्मक क्रियाओं में भाग लेने की योग्यता प्रदान करता है। सामाजिक विनिमय न तो पशु व्यवहार से उत्पन्न होता है तथा न आरोपित ही किया जा सकता है।
लेवी स्ट्रास का विनिमय सामाजिक नियमों और आदर्शों के संदर्भ में एक निर्देशित व्यवहार के रूप में परिभाषित होता है। इस सन्दर्भ में लेवी स्ट्रास द्वारा सामाजिक विनिमय की परिभाषा में संस्कृति एवं प्रकृति और मानव व्यवहार तथा मानवेत्तर प्राणी व्यवहार के सम्बन्ध में अन्तर स्पष्ट रूप से अभिनिर्देशित किया गया है। व्यावहारिक दृष्टि से विनिमय व्यवहार सृजनकारी गत्यात्मक होता है, जबकि पशु व्यवहार गतिहीन होता है। इसीलिए पशु व्यवहार सामाजिक विनिमय के लिए अयोग्य होता है। पशुओं द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाली प्रकृति की विशेषता यह है कि यह वही प्रदान करती है जो प्राप्त करती है। इसके विपरीत संस्कृति के क्षेत्र में मनुष्य जो देता है हमेशा उससे अधिक पाता है और जो पाता है उससे अधिक देता है।
सामाजिक विनिमय सिद्धान्त के संस्थात्मक आधार
लेवी स्टास ने सामाजिक विनिमय सिद्धान्तों के सम्बन्ध में तीन मुख्य कथन प्रस्तुत किए हैं –
1. सामाजिक अभाव का सिद्धान्त –
प्रतीकात्मक मूल्य को किसी वस्त का मान (Crisis) उसके विवरण हेतु समाज को हस्तक्षप करने के लिए बाध्य करता है| ऐसी वस्तु प्रचर मात्रा में उपलब्ध रहती है। समाज उसके वितरण की संयोग अथवा प्राकतिक नियमों पर छोड़ देता है। किन्तु उसका अभाव विनिमय सिद्धान्तों के प्रणयन के लिए बाध्य कर देता है। इस पर भी सामाजिक अभाव आर्थिक अभाव नहीं माना जाता, क्योंकि सामाजिक अभाव के अर्थ को स्वयं समाज ही निर्दिष्ट करता है। लेवी स्ट्रास के अनुसार, सामाजिक अभाव की स्थिति में इच्छित वस्तुएँ भौतिक दृष्टि से तो प्राप्त हो सकती हैं, लेकिन सामाजिक निर्देशों द्वारा कुछ कर्ताओं के लिए उन्हें निषिद्ध कर दिया जाता है। व्यक्ति द्वारा अपनी उत्पादित वस्तु के उपभोग का निषेध अथवा उसका मूल्य कम कर दिया जाता है, जो समाज द्वारा अभाव उत्पन्न करने का सामान्य तरीका है।
2. विनिमय के सामाजिक मूल्य का सिद्धान्त –
सामाजिक विनिमय का मूल्य उससे जुड़े हुए व्यक्ति वहन करते हैं, न कि सामाजिक विनिमय स्थिति के अन्तर्गत प्राप्तकर्ता व्यक्तियों के द्वारा। उदाहरण के लिए, किसी भोज का मूल्य, आतिथेय अपने अतिथियों पर प्रत्यारोपित न करके उस प्रथा पर करता है, जिसकी कि उसे आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ दीपावली के उपहार का मूल्य उसे प्राप्त करने वाले पर प्रत्यारोपित नहीं होता। स्पष्ट है कि इस तरह किसी सामाजिक आदान-प्रदान का लाभ पाने वाले व्यक्ति से उसका मूल्य न लेने के कारण वह व्यक्ति उसके विध्वंसात्मक परिणामों से बच जाता है।
3. पारस्परिकता का सिद्धान्त –
यह सामाजिक विनिमय में आदान-प्रदान के प्रचलित प्रतिमानों को परिभाषित करता है। पारस्परिकता को निर्देशित करने वाले आदर्श नियम सामाजिक विनिमय की स्थिति में एक सुनिश्चित अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। इस सिद्धान्त की मान्यतानुसार, सामाजिक प्रथा, जिसके अनुसार कोई व्यक्ति सीधे उसी व्यक्ति को लाभ पहुँचाने के लिए नहीं, जिससे कि वह लाभान्वित हुआ हो, वरन अन्य कर्ता को लाभ पहुँचाने के लिए भी, जो विनिमय परिधि में आते हैं, बाध्यता को अनुभव करता है। इससे यह अपेक्षा होती है कि ‘क’, ‘ब’ से जो प्राप्त करता है उसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ‘क’, ‘ग’ को प्रदान करता है। दो व्यक्तियों तक ही सीमित आदान-प्रदान को पारस्परिक आदान प्रदान कहते हैं, जबकि दो से अधिक व्यक्तियों के बीच आदान-प्रदान को ‘एकार्थक आदान-प्रदान‘ कहते हैं।
सामाजिक विनिमय के प्रकार
लेवी स्ट्रास ने सामाजिक विनिमय के दो प्रकारों का उल्लेख किया है सीमित और सामान्यीकृत विनिमय –
(अ) सीमित विनिमय –
दो दलों तक सीमित आदान-प्रदान की विनिमय कहते हैं। ऐसे विनिमय में सामाजिक विनिमय की लेन-देन की क्रिया दो दल ही लाभान्वित होते हैं, जिनके मध्य विनिमय कार्य चलता है। उदाहरण यदि चार व्यक्तियों के मध्य सीमित विनिमय की क्रियाएं चल रही हैं, तो उनक युग्मों में इस तरह का होगा – A<->B,C<->D या B<->D या A<-> C , यहाँ<-> का तात्पर्य होगा, देता है या प्राप्त करता है।
इसके विपरीत न्यूनतम तीन दलों के मध्य होने वाले आदान प्रदान को सामान्यीकरण विनिमय कहते हैं। ऐसे विनिमय में कोई भी दल उस दल या व्यक्ति नहीं देता, जिससे कि वह प्राप्त करता है। इस तरह पाँच व्यक्तियों की श्रृंखला में सामान्यीय विनिमय का स्वरूप इस तरह का होगा – A<->B<->C<->D<->E<->A, यहाँ <-> का तात्पर्य है ‘देना या प्रदान करना’।
सीमित विनिमय की संरचना –
सीमित विनिमय से अभिप्राय उस व्यवस्था से है। प्रकार्यात्मक रूप से अथवा प्रभावोत्पादक तरीके से किसी समूह को विनिमय की यण इकाई की निश्चित संख्या में बाँटता है ताकि किसी एक युग्म A<->B के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध विद्यमान हो। इसका आशय यह है कि व्यवस्था पारस्परिकता यान्त्रिकी को मात्र दो या दो के गुणक सहभागियों के बीच ही परिचालित करती है।
लेवी स्ट्रास ने सीमित विनिमय की दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया है -1. सहभागी कर्ताओं में एक दूसरे के व्यवहारों में उच्च श्रेणी का उत्तरदायित्व देखा गया है। इसमें समता बनाए रखने का पूर्ण प्रयास किया जाता है और दूसरे के मूल्य पर लाम प्राप्त करने का प्रयास न्यनतम हो जाता है। 2. सीमित विनिमय की क्रियाओं में जैसे को तैसा’ की मानसिकता क्रियाशील होती है।
(ब)सामान्यीकृत विनिमय की संरचना –
सामान्यीकृत विनिमय ‘एकार्थक पारस्परिकता’ के सिद्धान्त पर आधारित है। यह सम्बन्धों की इकाई मूलक व्यवस्था को ग्रहण करता है, जिसके अन्तर्गत यह विनिमय के समस्त दलों को एक एकीक़त आदान-प्रदान से जोड़ता है। इस विनिमय में पारस्परिक अन्योन्याश्रित नहीं, वरन् अप्रत्यक्ष होती है। उदाहरणार्थ, पाँच सदस्यों के समूह में इसका स्वरूप होगा – A →B→C→D→E→A, यहाँ→ का अभिप्राय ‘देता है’ से है।
दूसरे प्रकार का विनिमय एकार्थक पारस्परिकता पर आधारित होता है, जिसको वास्तविक सामान्यीकृत विनिमय कहते हैं। इसके निम्नलिखित दो उपविभाग हैं – व्यक्ति केन्द्रित और समूह केन्द्रित।
लेवी स्ट्रास के अनुसार, व्यक्ति केन्द्रित वास्तविक सामान्यीकृत विनिमय का प्रचलन कृषक समुदायों में व्यापक रूप से आर्थिक व सामाजिक विनिमय दोनों के ही संदर्भो में पाया जाता है। इसके अन्तर्गत एक इकाई के रूप में समूह अपने समस्त सदस्यों को लाभ पहुँचाता है और इस लाभ की राशि प्रायः समान ही होती है। एक पंचदलीय विनिमय का स्वरूप इस प्रकार का होगा – ABCD →E, ABCE →D, ABDE →C, ACDE →B और BDCE →A.
प्रायः सभी सदस्य अपने सामाजिक एवं आर्थिक साधनों को समूह के प्रत्येक सदस्य के लाभ के लिए एकत्रित करते हैं। ।
समूह केन्द्रित वास्तविक सामान्यीकृत विनिमय – ऐसे सामाजिक विनिमय में संलिप्त व्यक्ति क्रमशः समूह को एक इकाई के रूप में समस्त सदस्यों से प्राप्त करते हैं और बाद में समूह के अंग के रूप में सभी सदस्यों से। उदाहरणार्थ, एक पंच सदस्यीय मैत्री समूह में ऐसे विनिमय का स्वरूप होगा –
A→BCDE, B→B→ACDE , C→ABDE, D→ABCE और E→ABCD. यहाँ पर ‘→ का तात्पर्य ‘देता है’ से है।
इन्हें भी देखें-
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