भूमि सुधार से आप क्या समझते हैं?
सुधार के अर्थ को दो प्रकार से समझा जा सकता है – संकुचित अर्थ में, भूमि सुधार से तात्पर्य छोटे कृषकों और कृषि श्रमिकों के जाम हेतु भू-स्वामितव के पुनर्वितरण से है जबकि विस्तृत अर्थ में, भूमि सुधार से अर्थ किसी संगठन या भूमि व्यवस्था ही संस्थागत व्यवस्था में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन से है। भूमि सधार के अन्तर्गत, वे सभी कार्य सम्मिलित किये जाते हैं, जिनका सम्बन्ध भू-स्वामित्व और भूमि के जोत दोनों में होने पाने सधारों से है। इनमें लगान कानून का निधारण और उसकी वसली, बिचौलियों का उन्मूलन, जोतों की सुरक्षा, अधिकतम और न्यूनतम भूमि-सीमा का निर्धारण, चकबन्दी, सहकारी खेती, आदि सभी आते हैं।
भूमि सुधार से उद्देश्यों की प्राप्ति
1.भूमि सुधार कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य कृषि उत्पादन में वृद्धि करना है। अधिक उत्पादन की प्राप्ति सहकारी खेती, गहन खेती, चकबन्दी आदि माध्यमों से हो सकती है।
2. भूमि सुधार का दूसरा उद्देश्य सामाजिक न्याय है, ताकि भूमिहीनों और वास्तविक काश्तकारों को भूमि प्राप्त हो सके तथा आय में समानता लाई जा सके।
3. भूमि सुधार का तीसरा उद्देश्य राजनैतिक है। इसके अन्तर्गत ग्रामीण जन-समूह को अपने पक्ष/समर्थन में लाने के लिए भूमि सुधार कार्यक्रम/योजनाएँ बनाकर उन्हें क्रियान्वित किया जाता है।
कृषक विधान या भूमि सुधार कानून
अंग्रेजी शासन काल में कृषि और कृषक दोनों ही की दशा अत्यन्त गिर गई थी, जबकि कृषि ही देश की मुख्य अर्थव्यवस्था थी। स्वाधीनता के बाद सरकार ने इस दिशा में विशेष कदम उठाए, सर्वप्रथम सरकार ने अंग्रेजी भूमि व्यवस्थाओं को समाप्त किया। उसने कथाकार और भू-स्वामी के बीच मध्यस्थों को हटाया। भू-स्वामित्व और भूमि जोत के सन्दर्भ में अर्थात् लगान कानून, लगान निर्धारण, सहकारी खेती, चकबन्दी, आदि से सम्बन्धित नए कृषि विज्ञान पारित किए। इन्हें ही भूमि सुधार या कृषक विधान कंहा जाता है।
भूमि सुधार का अर्थ भूमि सुधार का तात्पर्य भू-स्वामी तथा उसके जोतने वाले का भूमि के प्रति अधिकार तथा दायित्व तथा मालगुजारी देने के सम्बन्ध में राज्य से सम्बन्ध की विवेचना से है । भूमि सुधार के अंतर्गत मध्यस्थ वर्ग का अन्त, साहसी कानून में सुधार, जोत की अधिकतम सीमा का निर्धारण, कृषि का पुनर्गठन इत्यादि बातों का समावेश है । गुन्नार मिर्डल के अनुसार ‘भूमि-सुधार व्यक्ति तथा भूमि के सम्बन्धों में नियोजन तथा संस्थागत पुनर्गठन है। भूमि सुधार का प्रमुख उद्देश्य भूमि व्यवस्था में अनुकूल परिवर्तन करना कषि उत्पादन का अधिकतम विकास करना है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में भूमि-सुधार का महत्व
भारत एक विकासशील देश है जिसमें भूमि सुधार का विशेष महत्व है –
(1) कृषि का महत्व –
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसमें लगभग 70 प्रतिशत ‘लोग अपनी जीविका कृषि से प्राप्त करते हैं । कृषि बहुत से उद्योग धन्धों को कच्चा माल देती है । इस सम्बन्ध में सुकरात का कहना है कि ‘कृषि के पूर्ण रूप से फलते-फूलत समय ही समय सब धन्धे उन्नति करते हैं किन्तु भूमि को बंजर छोड़ देने से अन्य धन्धों का भी विनाश हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि बहत से उद्योग कृषि पर आधारित है।
भूमि सुधार से भूमि व्यवस्था अनुकूल होती है तथा कृषि उत्पादन में भी वृद्धि होती है। कृषि उत्पादन में वृद्धि तकनीकी तत्वों तथा संस्थात्मक सुधारों पर निर्भर करती है। तकनीकी तत्वों में अच्छे बीज, खाद, अच्छो आधुनिक औजार आदि आते हैं । भूमि सुधार में इनकी व्यवस्था की जाती है । संस्थात्मक सुधारों के अन्तर्गत भूमि का उचित वितरण मध्यस्थ वर्ग की समाप्ति, कृषि का पुन:संगठन आदि आता है । संस्थात्मक सुधार का कृषि पर अच्छा प्रभाव पड़ता है । वर्तमान समय में कृषि विकास के कार्यक्रमों में भूमि सुधार का महत्व अधिक हो गया है क्योकि हरित क्रांति में उतनी सफलता प्राप्त नहीं हुई है।
(2) सामाजिक महत्व –
सामाजिक न्याय में भूमि सुधार का विशेष महत्व है । भूमि सधार के संस्थात्मक सुधारों में आय तथा सम्पत्ति का समान वितरण का उददेश्य होता है।। भूमि का भी असमान वितरण है । भूमि सुधार कार्यक्रम सम्पत्ति तथा भूमि में समान वितरण को करता है । इसके अन्तर्गत बडे-बडे जमीदारों से भूमि लेकर वास्तविक कृषकों को दी जाती है तथा कुछ भूमि भूमिहीनों में वितरित की जाती है । जमीदारों का उन्मूलन करके कृषकों को उनके शोषण से बचाया गया ।
(3) आर्थिक महत्व –
भूमि सुधार का आर्थिक महत्व भी है। भूमि पर लगान से सरकार की आय में वृद्धि होती है । भूमि सुधार के अंतर्गत जो कार्यक्रम अपनाये जाते है। उनमें लोगों को कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है जिससे रोजगार में वृद्धि होती है और लोगों की आय में वृद्धि होती है।
भारत में भूमि सुधार की स्थिति
(1) मध्यस्थ एवं जमींदार वर्ग का अन्त –
भारत में लगभग 40 प्रतिशत क्षेत्रों में मध्यस्थ वर्ग था। जिसको अधिनियम के द्वारा समाप्त किया गया जिमींदारी प्रथा को कानून के द्वारा समाप्त किया गया । भविष्य में जमींदारियों को न पनपने के लिए काश्तकारों की अपनी भूमि पर स्वयं ही कृषि करना अनिवार्य हो गया है । यद्यपि मध्यस्थों तथा जमींदारी प्रथा के अन्त करने में बहुत सी कठिनाइयाँ आई, पर इन कठिनाइयों को दूर किया गया। मध्यस्थ वर्ग तथा जमींदारी प्रथा के अन्त होने से सरकार के लिए भूमि पर चकबन्दी करना सरल हो गया है, कृषकों का शोषण समाप्त हो गया, सरकारी तथा सहकारी कृषि को प्रोत्साहन मिला तथा कृषकों की आय में वृद्धि होने से उनका जीवन-स्तर ऊँचा उठ गया है । पंडित नेहरू ने इसी संदर्भ में कहा था कि ‘यह तो केवल विकास के मार्ग की एक बड़ी बाधा को हटाना है ।
(2) काश्तकारी विधि में सुधार –
इसके अन्तर्गत लगान का नियमन किया गया। लगान की दरों में कमी की गई । अब काश्तकारों को लगान की रसीद प्राप्त होने लगी है। योजना आयोग ने यह सिफारिश की कि कुल उपज का 1/4 से 1/5 भाग तक ही लगान रूप में लिया जाना चाहिए । भूमि के पटटे की सुरक्षा की गई जिससे किसान की रुचि मे नई भमि के प्रति परिवर्तन हआ । वह भूमि के उपजाऊ बनाने में कुर्य या नलकूप लगवाने मे रुचि लेने लगा है। इस सम्बन्ध में आर्थर यंग का कहना है कि- “किसी व्यक्ति को उखाड़ बंजर भूमि का सुरक्षित स्वामित्व प्रदान कर दो, वह उसे हरे-भरे बाग में परिवर्तित कर देगा, और उसे हरा-भरा बाग 9 वर्ष के लिए पट्टे पर दे दो वह उसे मरुभूमि बना देगा।
काश्तकारों को पुनर्ग्रहण का अधिकार मिला, जिससे भू-स्वामी अपने जोतों के आकार में यदि कर सके । इसके अतिरिक्त काश्तकारा कालए स्वामित्व का अधिकार भी दिया गया । गुजरात,महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान म काश्तकारा का भूस्वामी घोषित किया गया तथा काश्तकारों से भूमि के स्वामियों को उचित किस्तों में क्षतिपर्ति कर व्यवस्था की गई। अब तक लगभग 40 लाख काश्तकारों, उपकाश्तकारों व बटाईदारों की 30 लाख हेक्टेयर भूमि में स्वामित्व का अधिकार प्राप्त हो चुका है।
(3) जोतों की अधिकतम सीमा का निर्धारण –
सभी राज्यों में वर्तमान जोतों पर सीमा लगाने का संकल्प 1959 में काँग्रेस के नागपुर अधिवेशन में लिया गया कि 1959 तक इसे पूरा किया जायेगा 128 मई, 1972 को राष्ट्रीय कृषि आयोग ने भूमि सुधार सम्बन्धी सझाव दिया । जोत की अधिकतम सीमा के निर्धारण के सम्बन्ध में आयोग ने यह सुझाव दिया कि किसी राज्य में प्रथम श्रेणी की भूमि जिसे सिंचाई सुविधायें उपलब्ध हों तथा जिस पर प्रति वर्ष कम से कम दो फसलें उगाई जा सकें, के लिए 10 से 18 एकड़ तक की। उच्चतम सीमा निर्धारित होनी चाहिए । ऐसी विश्वस्त सिंचाई वाली भूमि में जहाँ केवल एक ही फसल उगाई जा सकती है। उच्चतम सीमा 27 एकड़ से अधिक नहीं होगी । अन्यभूमि के लिए जोत की अधिकतम सीमा 5.7 एकड़ भूमि से अधिक नहीं होगी । जोत की अधिकतम सीमा निर्धारित करने की इकाई के सम्बन्ध में आयोग ने कहा कि 5 सदस्यों का एक परिवार, होगा । परिवार के आकार में पति पत्नी तथा उसके नाबालिग बच्चे सम्मिलित हों 15 सदस्यों की संख्या से अधिक होने पर प्रत्येक अतिरिक्त सदस्य के लिए अतिरिक्त भूमि की छूट देनी होगी। इसके अतिरिक्त आयोग ने और सुझाव दिये ।
भूमि सुधारों का मूल्यांकन पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में यह कहा गया कि ‘स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अपनाये गये भूमि सुधार कार्यक्रम की एक मुख्य विशेषता यह रही है कि मध्यस्थ काश्तकारों की सम्पत्ति से सम्बन्धित कानून अधिक कुशलतापूर्वक कार्यान्वित किए गये परन्तु जहाँ तक काश्तकारी सुधार तथा जोत की अधिकतम सीमा का प्रश्न है, कानूनों को ठीक प्रकार से कार्यान्वित नहीं किया गया जिससे वांछित उद्देश्यों की पूर्णतः प्राप्ति नहीं हो सकी । भूमि सुधार के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं –
(1) देश में भूमि सुधार सम्बन्धी कई अधिनियम पारित किये गये परन्तु इनके प्रभावशाली क्रियान्वयन का अभाव है । इसका कारण भूमि सुधार कानून का जटिल होना। प्रशासनिक मशीनरी में व्याप्त भ्रष्टाचार, बड़े-बड़े भू-स्वामी तथा जमींदार का प्रभावशाली होना इत्यादि है । इस सम्बन्ध में प्रो० गुन्नार मिरडल का कहना है कि – “भूमि सुधार कानून जिस ढंग से कार्यान्वित किए गये हैं उससे सामान्यत: उनकी (कानूनों की) भावनाओं तथा अभिप्राय को हताश होना पड़ा है।
(2) भूमि सुधार के अंतर्गत विभिन्न कार्यक्रमों को व्यवस्थित रूप से कार्यशील नहीं किया गया ।
(3) भूमि सुधारों से बचने का प्रयास किया गया क्योंकि निहित स्वार्थी वर्ग कानून के देर से लागू होने के कारण सतर्क हो गया ।
(4) भूमि के स्वामित्व में विशेष परिवर्तन नहीं आया है।
(5) अधिक संख्या में कृषकों को पट्टे की भमि पर कोई अधिकार नहीं प्राप्त हो सका। उनको अधिक लगान भरना पड़ता है तथा वे अपने आपको सुरक्षित नहीं अनुभव करते ।
इसके अतिरिक्त कुछ अन्य दोष इस प्रकार हैं- जैसे भूमि सुधार सम्बन्धी नीति से भूस्वामियों में अनिश्चितता की भावना उत्पन्न होना, भूमि सुधार नीति का देश के लिए अधिक महगा पड़ना, मुकदमेबाजी को प्रोत्साहन, जोत की अधिकतम सीमा निर्धारण में भिन्नता इत्यादि।
आपको यह भी पसन्द आयेगा-
- ग्रामीण पुनर्निर्माण और नियोजन की परिभाषा,उद्देश्य
- ग्रामीण विकास में पंचायती राज की भूमिका की विवेचना
- भूदान यज्ञ का कार्यक्रम,महत्व तथा लाभ
- भूदान यज्ञ का कार्यक्रम,महत्व तथा लाभ
- सामुदायिक विकास कार्यक्रम की असफलता का कारण
- आधुनिकीकरण की विशेषताओं की विवेचना कीजिए
Disclaimer -- Hindiguider.com does not own this book, PDF Materials, Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet or created by HindiGuider.com. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: 24Hindiguider@gmail.com