सॉफिस्ट दर्शन क्या है

ग्रीस में सॉफिस्ट दर्शन क्या है | What is Sophiticim Philosophy in Hindi

सॉफिस्ट दर्शन (Sophiticim)

एनेक्जेगोरस के बाद ग्रीक दर्शन ने एक नया मोड़ लिया। नक्जगोरस के पूर्व सभी ग्रीक दार्शनिकों की दृष्टि भौतिक थी। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि आदि भौतिक तत्त्वों तक ही उनकी दृष्टि सीमित थी। एनेक्जेगोरस ने परम विज्ञान (Nous) प्रतिष्ठा की। अत: ग्रीक दर्शन में चित्-अचित्, भौतिक-अभौतिक, शरीर-आत्मा का भेद प्रारम्भ हो गया। आगे चलकर इसका फल यह हुआ कि ग्रीक दर्शन मानव केन्द्रित हो गया। दार्शनिकों की दृष्टि चित् शक्ति, आत्मा, मन पर पड़ी और जगत् के मूल कारण की खोज भौतिक तत्वों में न कर मानव मन में करने लगे। सर्वप्रथम सॉफिस्ट लोगों ने यह अनुभव किया कि मानव सम्बन्धी समस्याएँ जगत् की समस्याओं की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। अतः ग्रीक दार्शनिकों की दृष्टि तत्व से हटकर ज्ञान, धर्म आदि पर पड़ी।

इस नये युग को ग्रीक का प्रबोधकाल (The Age of Enlightenment) कहते हैं। इसका स्पष्ट कारण यह है कि सॉफिस्ट दार्शनिकों ने रूढ़िगत तथा परम्परागत विचारों का त्याग कर उन्मुक्त वातावरण में चिन्तन प्रारम्भ किया। सॉफिस्ट लोगों ने सर्वप्रथम सभी प्रचलित रीति-रिवाज इत्यादि को सन्देह की सृष्टि से देखना प्रारम्भ किया। इनकी दृष्टि पूर्णतः व्यावहारिक थी। अत: जीवन को सफल बनाने के लिए उपयोगी सिद्धान्तों की खोज प्रारम्भ हुई। प्रारम्भ में सॉफिस्ट लोगों की समाज में बडी। प्रतिष्ठा थी; परन्तु बाद में ये वितण्डावादी कहलाने लगे; क्योंकि ये लोग केवल व्यर्थ। तर्क करते थे।

सॉफिस्ट लोगों का मुख्य कार्य था, ग्रीक युवकों को शिक्षित कर कुशल नागरिक बनाना। ये वस्तुतः दार्शनिक नहीं वरन् नैतिक शिक्षक थे। ये लोग। पारिश्रमिक लेकर युवकों को शिक्षित किया करते थे। उन दिनों उच्च पदों की प्राप्ति के लिए तर्कपटु और कुशल वक्ता होना आवश्यक था। सॉफिस्ट लोग शुल्क लेकर नवयुवकों को उच्च पदों क योग्य बनाया करते थे। तर्कजाल में फंसाकर विरोधियों को परास्त करने की कला में ये निपुण थे। ये विविध प्रकार की शिक्षा देते थे। उदाहरणार्थ, जार्जियाज वक्तृता और राजनीति की, प्रोडिकस व्याकरण और शब्दशास्त्र की, हिप्पियाज इतिहास, गणित और भौतिक शास्त्र की तथा प्रोटागोरस राजनीति की शिक्षा देते थे।

प्रारम्भ में सॉफिस्ट शब्द का बुरा अर्थ नहीं था, क्योंकि सॉफिस्ट मुख्यतः शिक्षक होते थे। ये लोग शुल्क लेकर नवयुवकों को साहित्य, दर्शन, राजनीति, धर्म इत्यादि की शिक्षा दिया करते थे। कालान्तर में ये लोग भी केवल धन के प्रेमी बन गए तथा धन के लोभ में बुरे को भला सिद्ध करने लगे। इच्छानुकूल धन मिलने पर ये किसी बाजारू कुत्ते को अपना पिता सिद्ध करने लगे। जिस काल में इनका प्रारम्भ हुआ था उसे हम ग्रीक का प्रबोध काल कहते हैं। इन्होंने धर्म, ज्ञान राजनीति सभी क्षत्रों में नयी दिशा दिखलाई, परन्तु बाद में धन के लोभ में इनकी दृष्टि कुत्सित हो गयी। ये द्वन्द्व न्याय (Dialectic) में बड़े निपुण थे तथा इस न्याय के द्वारा झूठ को भी सत्य सिद्ध करने लगे। अतः शुद्ध वितण्डावाद ही एकमात्र इनका कार्य हो गया।

सॉफिस्ट लोग वस्तुत: दार्शनिक नहीं थे। उन्हें दार्शनिक समस्याओं में कोई विशेष रुचि नहीं थी। वे पूर्णतः व्यवहार के पण्डित थे और अपने शिष्यों को वही शिक्षा देना चाहते थे जिससे संसार में सफलता हो, व्यवहार बन सके। इनका मुख्य कार्य था-शिष्यों को सफल राजनीतिज्ञ और कुशल नागरिक बनाना। इसी कारण प्रारम्भ में सॉफिस्ट शब्द का बुरा अर्थ नहीं लिया जाता था। समाज की सेवा करना तथा युवकों को उचित शिक्षा देना ही इनका कार्य था। यूनान का उन दिनों का समाज रूढ़िगत परम्पराओं से जकड़ा था। सर्वप्रथम सॉफिस्ट काल में ही यूनान में प्रजातन्त्र की स्थापना हुई थी। परन्तु उन दिनों यूनान अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था।

प्रत्येक राज्य में प्रजातन्त्र की व्यवस्था थी तथा प्रत्येक का अपना-अपना संविधान था। अत: जनता में एक नयी राजनीतिक जागृति उत्पन्न हुई थी। परन्तु इस राजनीतिक स्वतन्त्रता का उपयोग नहीं हो रह था। लोगों में गुटबन्दी गहरे ढंग से हो रही थी। अतः उन्हें उचित राजनीतिक शिक्षा की आवश्यकता थी। अतः सॉफिस्ट शिक्षकों की आवश्यकता थी तथा इनका समाज में सम्मान भी था। राजनीति के साथ-साथ धर्म के नाम पर भी उन दिनों पुराणपन्थियों का बोलबाला था। धर्म और देवी-देवता के नाम पर समाज में अनेक अत्याचार और भ्रष्टाचार फैल थे। सॉफिस्ट शिक्षकों ने इसमें बड़ी सहायता की। सॉफिस्ट लोगों ने धर्म का सम्बन्ध नैतिकता से जोड़ा और लोगों को नैतिकता का महत्व बतलाया| परन्तु कालान्तर में सॉफिस्ट शिक्षक स्वतः विलासी, लोलुप और स्वेच्छाचारी बन गए। विरोधी को परास्त करना ही इसका एकमात्र कर्त्तव्य हो गया। ये वाग्जाल का निर्माण करने लगे। इसी से इनका ह्रास हुआ।

 

 

प्रोटागोरस (Protagoras) [ ४८१ ई पू से ४११ ई.पू.]

प्रोटागोरस सर्वप्रथम सॉफिस्ट हुए, अतः इन्हें सॉफिस्ट सम्प्रदाय का संस्थापक भी कहते हैं। ये केवल संस्थापक ही नहीं; वरन् सबसे प्रभावशाली भी थे। प्लटो की एक प्रमुख कृति केवल इन्हीं पर है। प्रोटागोरस का जन्म वो अब्डेरा (Abdera) में हुआ था; परन्तु एथेन्स को इन्होंने अपना कार्य-क्षेत्र बनाया। इनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। ये दर्शन, राजनीति, गणित, शिक्षा-शास्त्र आदि विविध विषयों के ज्ञाता थे। इन्होंने सर्वप्रथम ग्रीक भाषा के व्याकरण की रचना की, थुराई (Thurii) का संविधान इन्होंने बनाया। इनकी प्रमुख रचनाओं में ईश्वर पर (On the Godss) गणित पर (On Mathematics) वस्तुओं की मूल अवस्था पर (On the orieginal state of things) आदि प्रमुख हैं।

प्रोटागोरस के दर्शन का सारांश है कि मानव सब पदार्थों का मापदण्ड है। (Man is the measure of all things) यह कथन केवल उन्हीं के दर्शन का सारांश नहीं, वरन् समस्त सॉफिस्ट विचार का संक्षिप्त रूप है। इस कथन पर तीन दृष्टियों से विचार किया जाता है, यथा- ज्ञान, तर्क और नीति।

 

 

ज्ञान की दृष्टि सेः

इन्द्रिय तथा बुद्धि दोनों ही ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं। इलियाई मत के अनुसार सत् का ज्ञान बुद्धि से सम्भव है तथा इन्द्रियों द्वारा परिणाम का ज्ञान होता है। इसके विपरीत हेरेक्लाइटस के अनुसार परिणाम का ज्ञान बुद्धि द्वारा प्राप्त होता है तथा सत् का ज्ञान इन्द्रियों से डिमॉक्रिटस के अनुसार परमाणुओं का ज्ञान बुद्धि से तथा स्थूल वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त होता है। प्रटागोरस ने बुद्धि और इन्द्रिय के भेद का खण्डन किया है। उनके अनुसार मनुष्य सब पदार्थों का मापदण्ड है। अतः उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए वही सत्य है जो उसे सत्य प्रतीत होता है। सत्य तो व्यक्ति की संवेदना और अनुभूति तक ही सीमित है। अत: सत्य व्यक्तिगत है, वस्तुगत (सामान्य) नहीं।

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तार्किक दृष्टि से:

सॉफिस्ट लोग संशयवादी थे। अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों में वे द्वन्द्व और तर्क के द्वारा सर्वदा विरोध दिखलाते थे। उनके अनुसार मानव ही सभी पदाथा का मापदण्ड है। मानव की बद्धि सत्य के यथार्थ स्वरूप का निर्णय नहीं करती। अतः ज्ञान (सामान्य, सर्वमान्य अर्थ में) असम्भव है। द्वन्द्व तर्क से केवल विरोधी निष्कर्ष निकलते हैं, अतः सत्य का प्रतिपादन नहीं हो सकता।

 

नतिक दृष्टि से:

यदि मानव ही सभी पदार्थों का मापदण्ड है तो सार्वभौम नैतिकता असम्भव है। नैतिक नियमों की स्थापना तो रीति-रिवाज, परम्परा पर आश्रित है। परम्पराएँ बदलती रहती हैं, अतः सर्वमान्य नैतिक नियम नहीं हो सकते। तात्पर्य यह है कि नैतिकता का वस्तुनिष्ठ मापदण्ड नहीं। नैतिक नियमों के सम्बन्ध में। सॉफिस्ट लोगों में दो प्रकार की विचारधारा है। प्रथम के अनुसार नैतिक नियम, निबलों द्वारा सबलों से अपनी रक्षा के लिए बनाए जाते हैं। यह प्राकृतिक न्याय (Naturl Jutice) पर आधारित है। दूसरी के अनुसार नैतिक नियम, सबलों द्वारा अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए बनाये जाते हैं।

नैतिक नियमों के क्षेत्र में प्रोटागोरस उपयोगितावाद (Pragmatism) के जन्मदाता माने जाते हैं। सत्य तो केवल व्यावहारिक दृष्टि से उपयोगी है। शुभ और अशुभ का भद भी असम्भव है, क्योंकि कोई वस्तुगत मापदण्ड ही नहीं है। सॉफिस्ट सम्प्रदाय के अन्य दार्शनिक हैं प्रॉडिकस (Prodicus), हिपीयस (Hippius), जार्जियस (Georgias) इत्यादि। इन सभी दार्शनिको के सिद्धान्त प्रोटागोरस से प्रायः मिलते-जुलते हैं। प्रॉडिकस का कहना है कि मनुष्य को अपनी इच्छाओं और वासनाओं का सदुपयोग करना चाहिये।

प्रॉडिकस ने धर्म की नास्तिक व्याख्या की है। धर्म की उत्पत्ति में मूल कारण व्यक्तिगत स्वार्थ की सिद्धि है। धर्म की नास्तिक व्याख्या के कारण ही ये लीशियम स्कूल से निकाल दिये गए थे। प्रॉडिकस के बाद प्रसिद्ध सॉफिस्ट जार्जियस (Georgia) हुए। उनक अनुसार सत्य सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। यदि पाण्डुरोग के रोगी को सभी चीजें पीली दिखलायी पड़ती हैं तो वे वस्तुएँ उसके लिए सचमुच पीली हैं। जब वह इस रोग से मुक्त हो जाता है तो वस्तुएँ सचमुच सफेद हो जाती है। उन्होंने अपनी पुस्तक प्रकृति में तीन सत्य वाक्यों का प्रतिपादन किया है-

१. कोई सत्य ही नहीं है। (Nothing exists)

२. यदि सत्य हो भी तो उसे हम जान नहीं सकते। (If any thing existed it could not be known)

३. यदि सत्य को जान भी लें तो उसे दुसरों को नहीं समझा सकते। (If it could be known it could not be communicated to others)

कोई सत्य ही नहीं है, यह प्रथम सिद्धान्त है। इसका तात्पर्य है कि कोई वस्तु सत् नहीं है अर्थात् किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। इसका सम्बन्ध जनों के द्वन्द्व-न्याय से है। जेनो ने तर्क के द्वारा सिद्ध किया है कि ‘अस्तित्व या सत्ता में विरोध है।’ हम वस्तुओं को न तो सत मान सकते हैं और न असत्। सत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती और असत से सत् की उत्पत्ति असम्भव है। अतः कोई भी वस्तु सत् नहीं। दूसरा सिद्धान्त है कि यदि सत्य हो भी तो हम उसे जान नहीं सकते। यह सॉफिस्ट मत का मुख्य सिद्धान्त है।

सॉफिस्ट लोगों के अनुसार सत्य व्यक्तिगत है। जो हमें सत्य प्रतीत होता है वही हमारे लिए सत्य है। अतः वस्तुगत नहीं, सत्य सबके लिए अलग अलग है। यदि सबके लिए सत्य भिन्न-भिन्न है तो किसी वस्तु के सत्य ज्ञान का दावा नहीं कर सकते। किसी वस्तु के स्वरूप का ज्ञान हमें एक प्रकार से हो सकता है और दूसरे का दूसरे प्रकार से अतः किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है। तीसरा सिद्धान्त है, यदि सत्य को जान भी लें तो उसे दूसरे को नहीं समझा सकते। इसका तात्पर्य भी दूसरे सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। सत्य तो व्यक्तिनिष्ठ है।

व्यक्ति का ज्ञान तो संवेदनाओं तक सीमित है। संवेदना प्रत्येक व्यक्ति की अलग अलग होती है। इसका स्वरूप आन्तरिक आत्मनिष्ठ है। यदि ये आन्तरिक संवेदनाएँ आत्मकेन्द्रित हैं तो हम इन्हें दूसरों को नहीं समझा सकता हमारी संवेदनाएँ हम तक ही सीमित होंगी। ये इसी प्रकार दूसरों तक नहीं पहुंच सूकतीं।

 

सॉफिस्ट दर्शन

 

सॉफिस्ट लोगों के राजनीतिक विचार

 

सॉफिस्ट लोगों के सम्बन्ध में प्रायः विद्वान् के मत हैं कि ‘सॉफिस्ट भ्रमणशील शिक्षक थे।’ ये पारिश्रमिक लेकर शिक्षा प्रदान करते थे तथा इसी के सहारे अपना जीवनयापन करते थे। राजनीतिक इतिहासकारों के अनुसार सॉफिस्ट लोगों का काल ई. पू. ५वीं शताब्दी है। ये लोग यूनान के बाहर के रहने वाल थे। इन्हें उस समय मटिक्स (Matics) कहा जाता था। सॉफिस्ट यूनान में आकर क्यों शिक्षा देते थे, इस प्रश्न का उत्तर विल ड्यूरों (Will Dureint) ने सुन्दर ढंग से दिया है। उनके अनुसार उन दिनों यूनानी सभाओं में वाद-विवाद का महत्त्व था।

न्यायालयों में विश्वासोत्पादक भाषा में तर्क की आवश्यकता थी। यह साम्राज्यवादी समाज था। जिसमें औपचारिक उच्च शिक्षा, व्याख्यान शक्ति तथा दर्शन और विज्ञान की बड़ी मांग थी। इसी कारण सॉफिस्ट लोग बड़ी शीघ्रता से यूनानी समाज में सफल शिक्षक हो गये। सॉफिस्ट लोग सफलता के बाद मार्ग तथा व्यावहारिक तकनीकें बतलाया करते थे। इसी कारण उन्हें प्रतिष्ठा अधिक मिली।

 

सॉफिस्ट दर्शन की समीक्षा

सॉफिस्ट लोगों की सबसे बड़ी देने मानवतावाद (Humanism) है। प्रायः सभी सॉफिस्ट मानवतावादी थे। उन्होंने सर्वप्रथम यह बतलाया कि मानव जाति के समुचित अध्ययन का माध्यम मानव (The proper study of mankind is man) है। इससे स्पष्ट है कि सॉफिस्ट लोगों के अनुसार मनुष्य ही प्रत्येक वस्तु का मापदण्ड है।

सॉफिस्ट दर्शन की सबसे बड़ी देन मानवतावादी दृष्टिकोण है| ‘मानव ही सभी पदार्थों का मापदण्ड है इससे स्पष्ट हो जाता है कि सॉफिस्ट विचार मानव केन्द्रित है। दर्शन, ज्ञान, नैतिकता आदि का मापदण्ड मनुष्य ही है। सर्वप्रथम पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में मनुष्य का ध्यान परम सत्य और परम तत्त्व की ओर से मनुष्य की ओर आकृष्ट हुआ। इससे दर्शन अधिक व्यावहारिक, उपयोगी तथा दैनिक बन गया। सॉफिस्ट लोगों का ध्यान पारमार्थिक सत्यों एवं अतीन्द्रिय तथ्यों की ओर नहीं था। अतः दर्शन मानव जीवन के निकट हो गया।

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ज्ञान के क्षेत्र में सॉफिस्ट लोगों ने एक बड़े विवादास्पद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। सॉफिस्ट लोगों के अनुसार सत्य तो संवेदनाजन्य है। संवेदनाएँ व्यक्तिगत होती है। अतः सत्य आत्मकेन्द्रित है। हमारे लिये सत्य वही है जो हमें जान पड़ता है। दूसरे के लिए कुछ दूसरा ही सत्य होगा। यह सत्य का विषयगत रूप न होकर आत्मगत रूप है। यह मनुष्य के व्यक्तित्व को तो सबल बनाता है, परन्तु सत्य को दुर्बल बनाता है। इससे सत्य का सामान्य, समीचीन, सर्वमान्य, स्वरूप नष्ट हो जाता है।

नैतिकता के क्षेत्र में सॉफिस्ट लोगों की सबसे बड़ी देन नैतिक संहिता की समाप्ति है। सत्य का मापदण्ड व्यक्ति की संवेदना है तो शुभ और अशुभ, कर्म और अकर्म, पाप और पुण्य का मापदण्ड भी व्यक्ति ही है। व्यक्ति को जिससे सुख हो वही उसके लिये नैतिक कर्म है, यह नैतिकता को तिलाञ्जलि देना है।

सॉफिस्ट महात्माओं का नैतिक दर्शन बड़ा ही विवादास्पद है। कुछ विचारक इन्हें सद्गुरु समझते हैं तो कुछ स्वार्थवादी नैतिकता का जन्मदाता मानते हैं। सत्य चाहे जो भी हो, इतना तो निश्चित है कि सॉफिस्ट महात्मा पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में नैतिक सिद्धान्तों के जन्मदाता माने जाते हैं। इनके कुछ पहले दार्शनिक तो अनेक हुए, परन्तु सबों की दृष्टि परम तत्व की ओर थी। सॉफिस्ट लोगों ने सर्वप्रथम अपने विचार का केन्द्र मानवीय आचरण को बनाया। मानव की भौतिक समस्याओं पर विचार प्रारम्भ किया।

अतः इन्हें मनुष्य की सामाजिक समस्याओं का जन्मदाता समझते हैं। उदाहरणार्थ, प्रोटागोरस ने बतलाया कि ‘मानव ही सभी वस्तुओं का मापदण्ड है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य सबसे मूल्यवान है, मानव की उपयोगिता को ध्यान में रखकर ही हम किसी वस्तु का मूल्य निर्धारण कर सकते हैं। इससे स्पष्ट है। सांफिस्ट दृष्टिकोण मानवतावादी है। मानव तथा सामाजिक समस्याओं में इनकी अभिरुचि अधिक रही है। इसी कारण ये आध्यात्मिक परम तत्व और चरम सत्य की खोज में न लगे। अतः सामाजिक दृष्टि से इनका नैतिकदर्शन बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ।

कुछ आलोचक सॉफिस्ट महात्माओं के नैतिक दर्शन को पूर्णतः आत्मकेन्द्रित (Exclusive Egoism) मानते है। इन आलोचकों का कहना है कि सॉफिस्ट लोग पूर्णतः व्यवहारवादी नैतिकता की शिक्षा देते थे। व्यक्ति के लिए जो व्यवहारिक दृष्टि से उपयोगी हो वही सॉफिस्ट लोगों के लिए सत्य है। इससे स्पष्ट है कि सॉफिस्ट लोगों की दृष्टि व्याक्तवादी है तथा स्वार्थपरक है, क्योंकि ये व्यक्ति के अपने हित को समाज के अन्य लोगों से बढ़कर समझते है। यह सत्य का स्वार्थवादी या व्यक्तिवादी स्वरूप है। परन्तु ऐसी आलोचना भ्रान्त प्रतीत होती है। वास्तव में सॉफिस्ट लोगों का दृष्टिकोण सापेक्षवादी (Reltivistic) है।

सापेक्षवाद का तात्पर्य यह है कि किसी भी नैतिक सिद्धान्त का मूल्य परिवर्तनशील है। नैतिक नियम तो सामाजिक नियमों के साथ बदलते रहते हैं। इनका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं होता। आचार और विचार का कोई नियम सभी व्यक्तियों तथा सभी वर्गों पर एक समान लागू नहीं किया जा सकता। जो किसी एक समाज के लिए परम उपयोगी है, वह दूसरे समाज के लिए बिल्कुल अनुपयोगी सिद्ध हो सकता है। अतः देश, काल और व्यक्ति की अपेक्षा या दृष्टि से ही कोई सत्य कहला सकता है।

प्रोटागोरस का मानवतावादी नैतिक दर्शन वस्तुतः व्यक्तिवादी नहीं वरन् समाजवादी तथा सापेक्षवादी है। इस दृष्टि से प्रोटागोरस के सिद्धान्त व्यक्तिवादी नहीं। यही स्थिति सम्भवतः जार्जियस के साथ भी है। जार्जियस का नैतिक सिद्धान्त भी व्यक्तिवादी प्रतीत होता है, परन्तु वस्तुतः वह सापेक्षवादी है। जार्जियस (Georgis) स्पष्टतः कहते है कि सत्य का स्वरूप सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। इससे स्पष्ट है कि सत्य का स्वरूप आत्मगत नहीं विषयगत है। जो मुझे अच्छा लगे वही मेरे लिए सत्य है। इससे स्पष्ट है कि सत्य की सत्ता व्यक्ति सापेक्ष है। उसी प्रकार नैतिक गुण भी व्यक्ति की अपेक्षा से सत्य या असत्य हात है। यही सापेक्ष नैतिकता है।

नीतिशास्त्र के इतिहास में सॉफिस्ट महात्माओं का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। इनके महत्त्व के तीन कारण हैं। पहला कारण यह है कि सॉफिस्ट महात्माओं ने परम्परागत तथा अन्धविश्वासपूर्ण नैतिकता का परित्याग किया। परम्परा और अन्धविश्वास के नाम पर इन्होंने तर्क या युक्ति के महत्व को समझा। तात्पर्य है कि हमें परम्परा या नैतिकता के कारण किसी भी सिद्धान्त को नैतिक नहीं समझना चाहिए, वरन् उसे अपने तर्क के तराजू पर तौलना चाहिए। यदि वह तर्कसंगत हो तथा हितकर हो तभी उसे अपनाना चाहिए। दूसरा कारण यह है कि सर्वप्रथम सॉफिस्ट लोगों ने ही नीतिशास्त्र को सर्वोच्च शुभ का शास्त्र स्वीकार किया है।

मानव के परम शुभ के शास्त्र होने के कारण यह सभी शास्त्रों से भिन्न तथा अधिक उपयोगी है। सम्भवतः इसी कारण अरस्तू ने भी नीतिशास्त्र को स्वतन्त्र तथा परम उपयोगी शास्त्र माना है। तीसरा सबसे प्रमुख कारण यह है कि सॉफिस्ट लोगों की नैतिकता में व्यक्तिवाद की झलक है। आगे चलकर व्यक्तिवाद नीतिशास्त्र के लिए एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त बन गया। इसका एक आवश्यक अंग यह है कि समाज तथा सामाजिक व्यक्तियों से अलग कोई नैतिक सिद्धान्त नहीं हो सकता।

परम शुभ का शास्त्र होने के कारण यह मानव के लिए श्रेय है। अतः मनुष्य के बिना नैतिकता का कोई मूल्य नहीं। यह मानव आचरण का शास्त्र है। इसका मानव से दूर कर अध्ययन नहीं किया जा सकता। यह मानवीय तथा सामाजिक शास्त्र है। मानव के कार्यो को दी। हम नैतिक या अनैतिक कहते है। नीतिशास्त्र मानव आचरण का ही अध्ययग हा अतः कोई भी नैतिक मूल्य अभौतिक या अतीन्द्रिय नहीं होना चाहिए। इस प्रकार भौतिक मूल्यों के प्रति आस्था सांफिस्ट महात्माओं की बहुत बड़ी देन है।

 

 

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