भारतीय समाज में शिक्षा जीवन की तैयारी के लिए
बालक देश के भविष्य हैं। उनका सर्वांगीण विकास देश की उन्नति में सहायक है। प्रत्येक बालक कुछ जन्मजात शक्तियों को लेकर जन्म लेता है। यदि शिक्षा के माध्यम से उनका सही विकास नहीं हो पाता तो बालक के व्यक्तित्व का संतुलन बिगड़ जाता है, और वह अपने भावी जीवन में परिवार और राष्ट्र के लिए बोझ एवं घातक सिद्ध हो सकता है। अतः शिक्षा द्वारा बालक का इस प्रकार विकास किया जाये, जिससे वह अपने भावी जीवन में उन्नति करे, तथा समाज एवं राष्ट्र के लिए एक उपयोगी नागरिक बन सके। शिक्षा द्वारा बालक की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, कलात्मक तथा नैतिक आदि सभी शक्तियाँ विकसित की जाएंगी, तभी बालक भावी जीवन के लिए हो सकेगा; यह आवश्यक है कि भावी जीवन की तैयारी के लिए बालक का वैयक्तिक तथा सामाजिक दोनों दृष्टियों से विकास किया जाये तभी वह स्वयं की उन्नति एवं समाज का कल्याण कर सकने योग्य बन सकेगा। उसके साथ बालक का सम विकास भी आवश्यक है। सम विकास का अर्थ है, प्रत्येक दृष्टि से व्यापक तथ पूर्णता का विकास। पेन्टर ने इस संबंध में लिखा है- “शिक्षा का उद्देश्य पूर्ण मानव का विकास ही बालक का पूर्ण मानव के रूप में विकास हुए बिना वह भावी जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।” माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार भी, “वह शिक्षा, शिक्षा कहलाने के योग्य नहीं है, मनुष्य में अपने साथी मनुष्यों के साथ सुन्दरता, सामंजस्य एवं कुशलता से रहने के आवश्यक गुणों का विकास नहीं करती है।”
शिक्षा एक मुक्तिदायी शक्ति है। इस शक्ति के माध्यम से हमें बालक को भावी जीवन के लिए इस प्रकार तैयार करना चाहिए ताकि वह अपनी जीवन रूपी गाडी को सुचारु व सुन्दर रूप से चला सके तथा साथ ही समाज, तथा राष्ट्र को उन्नति के शिखर तक पहुँचाने में अपना अमूल्य योगदान दे सके। जहाँ बालक अपने भावी जीवन की तैयारी के लिए आता है, भारत के उन शिक्षा संस्थानों की वर्तमान दशा बहुत खेदपूर्ण है। उनमें आदर्शों और प्रतिमानों का हनन हो रहा है। हमारी अधिकांश शिक्षा में अनेकानेक न्यूनताएँ तथा कमियाँ दृष्टिगोचर हो रही हैं। हमारे अनेक पाठ्यक्रमों में परिवर्तन लाने वाली विषयवस्तु की प्रधानता नहीं है। शिक्षकों की शिक्षा और मूल्यों में निष्ठा नहीं और न ही उनमें लगन और व्यवसाय के प्रति निष्ठा और गर्व है। यदि बालक को भावी जीवन के लिए पूर्ण मानव के रूप में विकसित करना है, तो हमें शिक्षा में इन कमियों पर ध्यान देना होगा और शिक्षा के वर्तमान ढाँचे में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा।
जो शिक्षा आज दी जा रही है उसका प्रतिरूप (Model) बैंकिंग मॉडल’ (Banking Model) है, जिसके अनुसार बालकों को ठोस वास्तविकताओं की बजाय, सुहावने, लुभावने, दिखावटी नारे सुनाए और रटना, उगलना, सिखाया जाता है। जीवन के क्षेत्र में जो वास्तविक परिस्थितियाँ हैं उनके बीच में बालक को नहीं ले जाया जाता, वास्तविक मौलिक लक्ष्यों से उसका आमना-सामना नहीं करवाया जाता, उसे वास्तविक मौलिक तथ्यों को खोजने के लिए प्रेरित नहीं किया जाता, अपितु दूसरों के द्वारा कही-सुनी-लिखी हुई बातों या अवनतिपूर्ण और अपूर्ण सत्य प्रेक्षणों के आधार पर बालकों को पढ़ाया जाता। है। ऐसा प्रभावहीन ज्ञान बालकों के भावी जीवन की तैयार के लिए अपूर्ण है।
आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा का वर्तमान “बैंकिंग माडल” पूर्णतया बदल दिया जावे, इसको त्यागा जावे। शिक्षा के आधार निम्नांकित होने चाहिएं-
(1) शिक्षण संस्थाएँ ऐसी हों, जिनमें उत्तम प्रशासन, सही शिक्षा का वातावरण हो। सभी वर्गों से आने वाले बालकों को अपने शैक्षिक, बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक विकास का पूर्ण अवसर मिल सके।
(2) आस्थावान, प्रबुद्ध, योग्य, नमनीय, सजग तथा सभी प्रकार से उत्कृष्ट शिक्षक शिक्षा प्रदान करने वाले हों। जो शिक्षा, शोध और नवज्ञान निर्माण। की नई विधियों में पारंगत हों।
(3) साखन का पर्यावरण समाज में हर कहीं निर्मित किया जावे।
(4) पढ़ाने के स्थान पर स्वयं अपने प्रयासों से सीखने का वातावरण या प्रेरणा बालकों को दी जाए।
(5) नवीन व उपयोगी विधियों द्वारा चेतना के स्तर को ऊँचा उठाने का निरन्तर प्रयास किया जावे।
(6) शोधों एवं सर्वेक्षणों द्वारा वास्तविक मौलिक तथ्यों को एकत्रित किया जाए तथा बालकों को इसके लिए प्रेरित किया जाये।
(7) समाज की प्रत्येक समस्या को पूरी सच्चाई और गंभीरता के साथ विद्यार्थियों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाए ताकि उन्हें वास्तविकता का आभास हो।
(8) इसके लिए प्रकार्यात्मक (Functional) शिक्षा की आवश्यकता है, जो मुक्तिदायिनी (Liberating) हो।
भारतीय समाज में शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए
यदि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है तो हमें शिक्षा का एक ऐसा सर्वमान्य उद्देश्य निश्चित करना होगा, जिसके द्वारा शिक्षा के सभी उद्देश्य समाहित हो जाएँ। शिक्षा के सभी उद्देश्यों का केवल एक ही उद्देश्य में समावेश हो जाने से ही व्यक्ति तथा समाज दोनों का भला होगा। सर्वमान्य उद्देश्य उसी उद्देश्य को कहा जा सकता है, जिसमें अनुसरण करने से व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास हो सके। इस आदर्श के उद्देश्य के अनसार शिक्षा प्रदान करके व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हान की पूरी-पूरी संभावना है। उदाहरणार्थ यदि हम कहते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य व्याक्तत्व का सर्वांगीण विकास” करना है तो इसमें सामाजिक, शारीरिक, भावनात्मक, पादक, नतिक एवं आत्मिक विकास की अवधारणा, सम्मिलित हो जाती है। साथ ही बालक अपना समविकास करते हए आत्मबोध करे तथा अपने चरित्र का निर्माण इस प्रकार करे कि समाज एवं संस्कृति की रक्षा करते हए जीविकोपार्जन करे एवं अपने आपको वातावरण के अनुरूप बनाने की योग्यता प्राप्त कर जीवन को पूर्णता प्रदान करने योग्य बन सके। जब व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो जायेगा तो वह हर प्रकार के भेदभाव से ऊपर उठकर सच्चे नागरिक के रूप में समाज की सेवा करने में निरन्तर जुटा रहेगा। इस सम्मिलित रूप के द्वारा व्यक्ति तथा समाज दोनों का कल्याण एवं प्रगति होती रहेगी।
शिक्षा के इस आदर्श उद्देश्य को स्वीकार कर लेने से व्यक्ति की समस्त व सामाजिक आवश्यकताओं के पूरा होने की आशा है।
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