वैदिक काल नोट्स
*वैदिक शब्द ‘वेद’ से बना है। वेद का अर्थ ज्ञान होता है। भारत में सैंधव संस्कृति के पश्चात जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ, उसे वैदिक सभ्यता या आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है। आर्य’ शब्द भाषा सूचक है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ या कुलीना। क्लासिकीय संस्कृति में ‘आर्य’ शब्द का अर्थ है- एक उत्तम व्यक्ति। आर्यों का इतिहास मुख्यतः वेदों से ज्ञात होता है। सामान्यतः वैदिक साहित्य की रचना का श्रेय आर्यों को दिया जाता है। आर्यों के मूल निवास स्थान को लेकर मतभेद है।
प्रमुख इतिहासकारों ने इस पर अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं-
आर्यों का मूल निवास स्थान विद्वान
कश्मीर अथवा हिमालय क्षेत्र एल.डी. कल्ल
ब्रह्मर्षि देश पं. गंगानाथ झा
सप्त-सैंधव प्रदेश डॉ. अविनाश चंद्र दास
देविका प्रदेश (मुल्तान) डी.एस. त्रिवेदी
दक्षिणी रूस गार्डन चाइल्ड
मध्य एशिया मैक्स मूलर
उत्तरी ध्रुव पं. बाल गंगाधर तिलक
तिब्बत स्वामी दयानंद सरस्वती
जर्मनी हर्ट एवं पेन्का
हंगरी गाइल्स
*वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया जाता है- ऋग्वैदिक अथवा पूर्ववैदिक काल (1500 ई.पू.-1000 ई.पू.)। उत्तर वैदिक काल (1000 ई.पू.-600 ई.पू.)
*ऋग्वैदिक काल का इतिहास पूर्णतया ऋग्वेद से ज्ञात होता है। ऋग्वेद में लोहे का उल्लेख नहीं है। उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के नदी सूक्त में 21 नदियों का वर्णन है, जिसमें सबसे पश्चिम में कुभा तथा सबसे पूर्व में गंगा है। ऋग्वेद में अफगानिस्तान की चार नदियों क्रुमु, कुभा, गोमती और सुवास्तु का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में सप्त सैंधव प्रदेश की सात नदियों का उल्लेख मिलता है। ये नदियां हैं-सरस्वती, विपासा, परुष्णी, वितरता, सिंधु, शुतुद्री तथा अस्किनी।
त्रग्वेद में यमुना नदी का तीन बार जबकि गंगा नदी का एक बार उल्लेख हुआ है। इसमें कश्मीर की एक नदी मरुधा का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में सिंधु नदी का सर्वाधिक बार उल्लेख हुआ है, जबकि ऋग्वैदिक आर्यों की सबसे पवित्र नदी सरस्वती थी जिसे ‘मातेतमा,’ “देवीतमा’ एवं ‘नदीतमा’ (नदियों में प्रमुख) कहा गया है। सिंधु नदी को उसके आर्थिक महत्व के कारण ‘हिरण्यनी’ कहा गया है तथा इसके गिरने की जगह परावत’ अर्थात अरब सागर बताई गई है। गंगा-यमुना के दोआब एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रों को आर्यों ने ‘ब्रह्मर्षि देश’ कहा। आर्यों ने हिमालय और विंध्याचल पर्वतों के बीच का नाम ‘मध्य देश’ रखा। कालांतर में आर्यों ने संपूर्ण उत्तर भारत में अपना विस्तार कर लिया, जिसे ‘आर्यावर्त’ कहा जाता था।
*1400 ई. पू… के बोगजकोई (एशिया माइनर) के अभिलेख में ऋग्वैदिक काल के देवताओं । (इंद्र, वरुण, मित्र तथा नासत्य) का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वैदिक काल की नदियां
प्राचीन नाम आधुनिक नाम
अस्किनी चेनाब
विपासा व्यास
परुष्णी रावी
वितस्ता झेलम
कुमा काबुल
कुमु कुर्रम
गोमती गोमल
सुवास्तु स्वात
सदानीरा गडक
शुतुद्रि सतलज
दृशद्वती घग्गर
*वैदिक साहित्य को श्रुति भी कहा जाता है। ‘श्रुति’ का शाब्दिक अर्थ है सुना हुआ। भारतीय साहित्य में वेद सर्वाधिक प्राचीन हैं। वेद चार हैं-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। त्राग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद को ‘वेदत्रयी’ या ‘त्रयी’ कहा जाता है। प्रत्येक वेद के चार भाग होते हैं-संहिता, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद। ऋग्वेद में कुल 10 मंडल तथा 1028 सूक्त और 10552 ऋचाएं हैं। 1017 सूक्त साकल में तथा 11 सूक्त बालखिल्य में हैं। ऋग्वेद के 2 से 7 तक के मंडल प्राचीन माने जाते हैं।
ऋग्वेद के मंडल एवं उसके रचयिता-
ऋग्वेद के मंडल रचयिता
प्रथम मंडल मधुच्छम्दा, मेधातिथि
द्वितीय मंडल गृत्समद
तृतीय मंडल विश्वामित्र
चतुर्थ मंडल वामदेव
पंचम् मंडल अत्रि
षष्ठम् मंडल भारद्वाज
सप्तम् मंडल वशिष्ठ
अष्टम् मंडल कण्व एवं आंगिरस
नवम् मंडल सोम देवता और अन्य ऋषि
दशम् मंडल विमदा, इंद्र, शची और अन्य
*ऋग्वेद के तृतीय मंडल में ‘गायत्री मंत्र’ का उल्लेख है। इसके रचनाकार विश्वामित्र है। यह सविता (सूर्य देवता) को समर्पित है। *ऋग्वेद के नौवें मंडल के सभी 114 सूक्त ‘सोम’ को समर्पित हैं। प्रारंभ में हम तीन वर्णों का उल्लेख पाते हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य। शूद्र शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में हुआ। है। ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण करके यज्ञ संपन्न कराने वाले परोहित को ‘होता’ कहा जाता था। ऐतरेय तथा कौषीतकि ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रंथ है। पतंजलि के अनुसार, ऋग्वेद की 21 शाखाएं हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में शुनःशेप आख्यान का वर्णन मिलता है।
*यजुर्वेद में स्तोत्र एवं कर्मकांड वर्णित हैं। यह वेद गद्य एवं पद्य दोनों में है। यजुर्वेद के कर्मकांडों को संपन्न कराने वाले पुरोहित को ‘अध्वर्यु’ कहा जाता था। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद जो पद्य और गद्य दोनों में है और शुक्ल यजुर्वेद जो केवल पद्य में है। यजुर्वेद का अंतिम भाग ‘ईशोपनिषद’ है, जिसका संबंध याज्ञिक अनुष्ठान से न होकर आध्यात्मिक चिंतन से है। शुक्ल यजुर्वेद की मुख्य शाखाएं काण्व तथा माध्यन्दिन हैं। शुक्ल यजुर्वेद की संहिताओं को ‘वाजसनेय’ भी कहा गया है, क्योंकि वाजसनी के पत्र याज्ञवल्क्य इसके द्रष्टा थे।
*कृष्ण यजुर्वेद की मुख्य शाखाएं हैं- तैत्तिरीय, काठक, मैत्रायणी तथा कपिष्ठल। शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ है। इसमें पुनर्जन्म का सिद्धांत, जल-प्लावन कथा, पुरुरवा-उर्वशी आख्यान तथा पुरुषमेघ का वर्णन है। ‘साम’ का अर्थ संगीत’ अथवा ‘गान’ होता है। सामवेद में यज्ञों के अवसर पर गाए जाने पाल मंत्रों का संग्रह है। जो व्यक्ति इन मंत्रों को गाता था उसे ‘उद्गाता’ कहा जाता था। सामवेद में कुल 1875 ऋचाएं हैं, जिनमें से 75 जबकि विद्वानों के अनुसार 99 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में भी उपलब्ध सामवेद की प्रमख शाखाएं हैं-कौथमीय, राणायनीय एवं जैमिनीया ।
*अथर्ववेद में 20 कोड, 731 सूक्त तथा 5987 मंत्र है। इसमें 1200 मंत्र ऋग्वेद के हैं। अथर्ववेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाले पुरोहित, को ‘ब्रह्मा’ कहा जाता था। अथर्ववेद में मगध तथा अंग दोनों को दूरस्थ प्रदेश कहा गया है। इसमें समा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रिया कहा गया है। इसमें सामान्य मनुष्य के विचारों, विश्वासों तथा अंधविश्वासों का विवरण मिलता है। अथर्ववेद की दो शाखाएं उपलब्ध हैं-पिणलाद तथा शौनक। याज्ञवल्क्य-गार्गी के प्रसिद्ध संवाद का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद में है। “कठोपनिषद में यम और नचिकेता का संवाद उल्लिखित है। “कठोपनिषद’ कृष्ण यजुर्वेद का उपनिषद है।
*सत्यमेव जयते शब्द मुंडकोपनिषद से लिया गया है। अथर्ववेद का एकमात्र ब्राह्मण गोपथ ब्राह्मण है। इसका कोई आरण्यक नहीं है। उपनिषद दर्शन पर आधारित पुस्तकें हैं। इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। उपनिषद का अर्थ शिष्य द्वारा ज्ञान प्राप्ति हेतु गुरु के समीप बैठना है। उपनिषद में प्रथम बार मोक्ष की चर्चा मिलती है। यह शब्द श्वेताश्वर उपनिषद में पहली बार आया है।
*वेदांग की संख्या छः है, ये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष। शुल्व सूत्र में यज्ञीय वेदियों को मापने, उनके स्थान चयन तथा निर्माण आदि का वर्णन है। पुराणों की संख्या 18 है ये हैं-
(1) मत्स्य, (2) मार्कडेय, (3) भविष्य, (4) भागवत, (5) ब्रह्मांड, (6) ब्रह्मवैवर्त, (7) ब्रह्मा, (8) वामन, (9) वराह, (10) विष्णु, (11) वायु, (12) अग्नि, (13) नारद, (14) पद्म, (15) लिंग, (16) गरुड़, (17) कूर्म तथा (18) स्कंद पुराण।
* इनकी रचना लोमहर्ष ऋृषि तथा उनके पुत्र उग्रश्रवा द्वारा की गई थी। इनमें भविष्यत काल शैली में कलियुग के राजाओं का विवरण मिलता है। हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन हेतु मथानी के रूप में मंद्राचल पर्वत तथा रस्सी के रूप में सर्पों के राजा वासुकी का प्रयोग किया गया था। इसमें विष्णु ने कूर्मावतार धारण कर मंद्राचल पर्वत को अपने ऊपर रखा था।
*अनु, दूह्य, पुरु, यदु तथा तुर्वस को ‘पंचजन’ कहा गया है। जन के अधिपति को ‘राजा’ कहा जाता था। कलप परिवार का स्वामी, पिता अथवा बड़ा भाई होता था। ग्राम का मुखिया ‘ग्रामणी’ तथा विश का प्रमुख ‘विशपति’ कहलाता था। दशराज्ञ युद्ध का उल्लेख ऋग्वेद के 7वें मंडल में मिलता है। इस युद्ध में प्रत्येक पक्ष में आर्य एवं अनार्य थे। यह युद्ध परुष्णी नदी (आधुनिक रावी नदी) के तट पर लड़ा गया था। दशराज्ञ युद्ध भरतों के राजा सुदास (त्रित्सु राजवंश) तथा दस राजाओं के एक संघ (इसमें पंचजन तथा पांच लघु जनजातियों-अलिन, पक्थ, भलान, शिव तथा विषाणिन के राजा सम्मिलित) के मध्य हुआ था। इस युद्ध में सुदास की विजय हुई। सुदास के पुरोहित वशिष्ठ थे।
*ऋग्वैदिक युग में राजा भूमि का स्वामी नहीं था। वह प्रधानतः युद्ध में जन का नेता होता था। *विदथ आर्यों की प्राचीन संस्था थी। ऋग्वेद में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी का उल्लेख मिलता है। पुरोहित, युद्ध के समय – राजा के साथ जाता था। स्पश (गुप्तचर) तथा दूत नामक कर्मचारियों का भी उल्लेख मिलता है।
*ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार या कुल होती थी। ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक समाज था। वरुण सूक्त के शुनःशेप आख्यान से ज्ञात होता है कि पिता अपनी संतान को बेच सकता था।
*वैदिक कालीन समाज प्रारंम में वर्ग-विभेद से रहित था। ऋग्वेद में ‘वर्ण’ शब्द रंग के अर्थ में तथा कहीं-कहीं व्यवसाय चयन के अर्थ में प्रयक्त हआ है। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में सर्वप्रथम ‘शुद्ध’ शब्द मिलता है। इसमें विराट पुरुष’ के विभिन्न अंगों से चारों वणों की उत्पत्ति बताई गई है। विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्या (क्षत्रिय), उरु (जंघा) भाग से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। गोत्र शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में हुआ था। गोत्र शब्द का मूल अर्थ है- गोष्ठ अथवा वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता था परंतु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया। गोत्र प्रथा की स्थापना उत्तरवैदिक काल में हुई थी। आर्यों द्वारा अनार्यों को दिए गए विभिन्न नाम हैं- अब्रह्मन (वेदों को न मानने वाले), अयज्वन (यज्ञ न करने वाले), अनासः (बिना नाक वाले), अदेवयु (देवताओं को न मानने वाले), अव्रत (वैदिक व्रतों का पालन न करने वाले) तथा मृघवाक (कटु वाणी वाले)।
*शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को पति की अर्धागिनी कहा गया है। ऋग्वेद में ‘जायेदस्तम’ अर्थात पत्नी ही गृह है, कहकर उसके महत्व को स्वीकार किया गया है। कन्या के विदाई के समय जो उपहार एवं द्रव्य दिए जाते थे उसे ‘वहत्’ कहा जाता था। स्त्रियों में पुनर्विवाह एवं नियोग प्रथा प्रचलित थी। नियोग प्रथा से उत्पन्न संतान ‘क्षेत्रज’ कहलाती थी। समाज में सती प्रथा के प्रचलन का उदाहरण नहीं मिलता है। जो कन्याएं जीवन भर कुंवारी रहती थीं, उन्हें ‘अमाजू’ कहा जाता था। ऋग्वेद में घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा, अपाला आदि स्त्रियां शिक्षित थीं तथा जिन्होंने कुछ मंत्रों की रचना भी की थी। लोपामुद्रा अगस्त्य ऋषि की पत्नी थीं।
*आर्य मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। भोजन में दूध, घी, दही आदि का विशेष महत्व था। दूध में पकी हुई खीर (क्षीरपाकोदन) का उल्लेख मिलता है। जौ के सत्तू को दही में मिलाकर ‘करंम’ नामक खाद्य पदार्थ बनाया जाता था। *ऋग्वैदिक काल में तीन प्रकार के वस्त्र प्रचलित थे। नीवी, वासस् एवं अधिवास्स। स्त्री एवं पुरुष आभूषण पहनते थे।
*ऋग्वैदिक आर्य आमोद-प्रमोद का जीवन व्यतीत करते थे। रथदौड़, घुड़दौड़ तथा पासा खेल उनके मनोरंजन के साधन थे। वाद्यों में झांझ-मंजीरे, दुंदुभि, कर्करि, वीणा, बांसुरी आदि का उल्लेख मिलता है।
*आर्यों की संस्कृति मूलतः ग्रामीण थी। कृषि और पशुपालन उनके आर्थिक जीवन का मूल आधार था। ऋग्वेद में पशुपालन की तुलना में कृषि का उल्लेख बहुत कम मिलता है। ऋग्वेद के मात्र 24 मंत्रों में ही कृषि का ज उल्लेख प्राप्त होता है। *’उर्वरा’ या ‘क्षेत्र’ कृषि योग्य भूमि को कहा जाता स था। बुआई, कटाई, मड़ाई आदि क्रियाओं से लोग परिचित थे। ऋग्वेद हो में कुल्या (नहर), कूप तथा अवट (खोदकर बने हुए गड्डे), अश्मचक्र (रहट उ की चरखी) आदि का उल्लेख है। ऋग्वैदिक समाज में व्यवसाय आनुवंशिक कु (Hereditary) नहीं थे। ऋग्वेद में तक्षा (बदई), स्वर्णकार, चर्मकार, वाय (जुलाहे), कर्मा (धातु कर्म करने वाले), कुंभकार आदि का उल्लेख मिलता है। कताई-बुनाई का कार्य स्त्री-पुरुष दोनों करते थे। ऋग्वेद से पता चलता है कि सिंघ तथा गांधार प्रदेश सुंदर ऊनी वस्त्रों के लिए विख्यात थे। व्यापार अदल-बदल प्रणाली पर आधारित था। विनिमय के माध्यम के ए’ रूप में ‘निष्क’ का उल्लेख हुआ है। व्यापार-वाणिज्य प्रधानतः ‘पणि’ वर्ग की के लोग करते थे। *ऋग्वैदिक आर्य लोहे से परिचित नहीं थे।
ऋग्वैदिक कालीन शब्दावली एवं अर्थ
नीवी कमर के नीचे पहना जाने वाला वस्त्र
वासस् कमर के ऊपर पहना जाने वाला वस्त्र
अधिवासस् ऊपर से धारण किया जाने वाला चादर या ओढनी
तक्षा बढ़ई
कर्मा धातु कर्म करने वाले
वेकनाट सूदखोर
अरित्र पतवार
अरित नाविक
*वैदिक साहित्य में ऋग्वेद प्राचीनतम ग्रंथ है जिसमें हमें सर्वप्रथम बहुदेववाद के दर्शन प्राप्त होते हैं। यास्क के निरुक्त के अनुसार, ऋग्वैदिक देवताओं की संख्या मात्र 3 बताई गई है। ऋग्वेद में एक अन्य स्थल पर प्रत्येक लोक में 11 देवताओं का निवास मानकर उनकी संख्या 33 बताई गई। है। ऋग्वैदिक देवताओं का वर्गीकरण तीन वर्गों में किया गया है-
* पृथ्वी के देवता-पृथ्वी, अग्नि, बृहस्पति, सोम आदि।
*आकाश के देवता-वरुण, सूर्य, मित्र, पूषन, विष्णु, अश्विन आदि।
*अंतरिक्ष के देवता इंद्र, पर्जन्य, रुद्र, आपः, वायु, वात आदि।
*इंद्र को विश्व का स्वामी कहा गया है। इन्हें पुरंदर अर्थात ‘किलों को तोड़ने वाला’ कहा गया है।
*ऋग्वेद में सर्वाधिक सूक्त (250) इंद्र को समर्पित हैं। *इंद्र को आर्यों का युद्ध नेता तथा वर्षा का देवता माना जाता है। ऋग्वेद में अग्नि को 200 सूक्त समर्पित हैं और वह इस काल के दूसरे सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता हैं। ऋग्वैदिक देवताओं में सोम को तीसरा स्थान प्राप्त था। वरुण को समुद्र का देवता एवं ऋत् का नियामक माना जाता है। वरुण को वैदिक सभ्यता में नैतिक व्यवस्था का प्रधान माना जाता था। इसी कारण उन्हें ‘ऋतस्यगोपा’ भी कहा जाता था। ईरान में वरुण को ‘अहुरमज्दा’ तथा यूनान में ‘ओरनोज’ नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद के नौवें मंडल के सभी 114 मंत्र ‘सोम’ को समर्पित है। वनस्पतियों एवं औषधियों का देवता पूषन है। इनके रथ को बकरे द्वारा खींचते हुए प्रदर्शित किया गया है। जंगल की देवी ‘अरण्यानी’ जबकि ज्ञान की देवी ‘सरस्वती’ थीं।
*उत्तर वैदिक काल में अनु, द्रुह्म, तुर्वश, क्रिवि, पुरु तथा भरत आदि जनों का लोप हो गया। शतपथ ब्राह्मण में कुरु और पांचाल को वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि बताया गया है। छांदोग्योपनिषद से ज्ञात होता है कि कुरु जनपद में कभी ओले नहीं पड़े और न ही टिड्डियों के उपद्रव के कारण अकाल ही पड़ा। उत्तर वैदिक काल में काशी, कोशल, कुरु, पांचाल, विदेह, मगध, अंग आदि प्रमुख राज्य थे। उपनिषद में कुछ क्षत्रिय राजाओं के उल्लेख प्राप्त होते है। विदेह के जनक, पांचाल के राजा प्रवाहणजाबालि, केकय के राजा अश्वपति और काशी के राजा अजातशत्रु प्रमुख थे।
विभिन्न दिशाओं में राजा के विभिन्न नाम
पूर्व सम्राट
पश्चिम स्वराट्
उत्तर विराट
दक्षिण भोज
मध्य राजा
*ऐतरेय ब्राह्मण में सर्वप्रथम राजा की उत्पत्ति का सिद्धांत मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि “समुद्रपर्यंत पृथ्वी का शासक एकराट होता है।
*अथर्ववेद में एकराट सर्वोच्च शासक को कहा गया है। अथर्ववेद में परीक्षित को ‘मृत्युलोक का देवता’ कहा गया है। छांदोग्योपनिषद और बहदारण्यक उपनिषद में उद्दालक आरुणि एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु के बीच ब्रह्म एवं आत्मा की अभिन्नता के विषय में संवाद है। अथर्ववेद में सभा और समिति को ‘प्रजापति की दो पुत्रियां’ कहा गया है। वैदिक काल में सभा एवं समिति नामक दो संस्थाएं राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। संभवतः सभा कुलीन या वृद्ध मनुष्यों की संस्था थी, जिसमें उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति ही भाग ले सकते थे। इसके विपरीत समिति सर्वसाधारण की सभा थी, जिसमें जनों के सभी व्यक्ति अथवा परिवारों के प्रमुख भाग ले सकते था सभा का ऋग्वेद में 8 बार उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में समिति का 6 बार उल्लेख मिलता है। उत्तर वैदिक काल में सभा में महिलाओं की भागीदारी बंद कर दी गई।
*संहिता एवं ब्राह्मण काल तक समिति का प्रभाव कम हो गया और यह केवल परामर्शदायिनी परिषद ही रह गई। राजसूय यज्ञ में रत्न हविस उत्सव के समय राजा रनिन के घर जाता था। अलग-अलग ग्रंथों में रलिनों की संख्या अलग-अलग प्राप्त होती है। शतपथ ब्राह्मण में सर्वाधिक 12 रत्निनों का उल्लेख है-
पुरोहित राजा का प्रमुख परामर्शदाता
सेनानी सेना का प्रमुख
ग्रामीण या ग्रामणी ग्राम का मुखिया
महिषी राजा की पत्नी
सूत रथ सेना का नायक
संग्रहीता कोषाध्यक्ष
भागदुध कर एकत्र करने वाला अधिकारी
अक्षवाप आय व्यय गणनाध्यक्ष द्यूत क्रीडा में राजा
का मित्र
पालागल विदूषक
क्षात्रि/क्षता प्रतिहारी या दौवारिक
*शतपथ ब्राह्मण तथा काठक संहिता में गोविकर्तन (गवाध्यक्ष), तक्षा पई) तथा रथकार (रथ बनाने वाला) का नाम भी रत्नियों की सूची में लता है। शतपथ ब्राह्मण में राजसूय यज्ञ का विस्तृत वर्णन है। राजसूय यज्ञ में राजा का अभिषेक 17 प्रकार के जल से किया जाता था।
*पारिवारिक जीवन ऋग्वैदिक काल के समान था। समाज पितृसत्तात्मक था। ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि अजीगर्त ने अपने पुत्र शुनःशेप को 100 गायें लेकर बलि के लिए बेच दिया था। उत्तर वैदिक काल में समाज चार वर्षों में विभक्त था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ऐतरेय ब्राह्मण में चारों वर्गों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। क्षत्रिय या राजा भूमि का स्वामी होता था। वैश्य दूसरे को कर देते थे (अन्यस्यबलिकृत)। शूद्र को तीनों वर्गों का सेवक (अन्यस्य प्रेष्यः) कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में कन्या को चिंता का कारण माना गया है। मैत्रायणी संहिता में स्त्री को पासा तथा सुरा के साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिनाया गया है। वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद का उल्लेख है। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई।
*छांदोग्योपनिषद में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है, जबकि सर्वप्रथम चारों आश्रमों का उल्लेख जाबालोपनिषद में मिलता है ये थे –
ब्रह्मचर्य (25 वर्ष), गृहस्थ (25-50 वर्ष), वानप्रस्थ (50-75 वर्ष) तथा संन्यास (75-100 वर्ष) ।
*मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानकर प्रत्येक आश्रम के लिए 25-25 वर्ष आयु निर्धारित की गई। बौधायन धर्मसूत्र के अनुसार, गायत्री मंत्र द्वारा ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार, वसंत ऋतु में 8 वर्ष की अवस्था में किया जाता। था।
*त्रिष्टुप मंत्र द्वारा क्षत्रिय बालक का उपनयन संस्कार ग्रीष्म ऋतु में 11 वर्ष की अवस्था में होता था।
*जगती मंत्र द्वारा वैश्य बालक का उपनयन संस्कार शरद ऋतु में 12 वर्ष की अवस्था में होता था। वैदिक काल में जीविकोपार्जन हेत वेद-वेदांग पढ़ाने वाला अध्यापक उपाध्याय कहलाता था। ब्रह्मवादिनी वे कन्याएं थीं, जो जीवन भर आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करती थीं। जबकि साद्योवधू विवाह पूर्व तक शिक्षा प्राप्त करने वाली कन्याएं थीं। गृहस्थ आश्रम में मनुष्य को 5 महायज्ञ का अनुष्ठान करना पड़ता था। ये पंच महायज्ञ हैं-
*ब्रह्म यज्ञ-प्राचीन ऋषियों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना।
*देव यज्ञ-देवताओं का सम्मान।
*भूत यज्ञ-सभी प्राणियों के कल्याणार्थी।
*पितृ यज्ञ-पितरों के तर्पण हेतु।
*मनुष्य यज्ञ-मानव मात्र के कल्याण हेतु।
*शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं का उल्लेख हुआ है। ये हैं-जुताई, बुवाई, कटाई तथा मड़ाई। काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हलों को खींचने का उल्लेख मिलता है। उत्तर वैदिक काल में उत्तर भारत में लोहे का प्रचार हुआ। उत्तर वैदिक साहित्य में लोहे को ‘कृष्ण अयस’ कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिए “कुसीद’ तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिए ‘कुसीदिन’ शब्द मिलता है। माप की विभिन्न इकाइयां थीं-निष्क, शतमान, कृष्णल, पाद आदि। कृष्णल संभवतः बाट की मूलभूत इकाई थी। गुंजा तथा रत्तिका भी उसी के समान थे। रत्तिका को साहित्य में ‘तुलाबीज’ कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों का उल्लेख हुआ है। वाजसनेयी संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण में विभिन्न व्यवसायों की लंबी सूची मिलती है। इनमें प्रमुख हैं-रथकार, स्वर्णकार, लुहार, सूत, कुंभकार, चर्मकार, रज्जुकार आदि। स्त्रियां रंगाई, सुईकारी आदि में निपुण थीं। उत्तर वैदिक काल में व्यापार वस्तु विनिमय पर आधारित था।
*उत्तर वैदिक काल में धर्म और दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। ऋग्वैदिक काल के वरुण, इंद्र आदि का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रुद्र-शिव ने ले लिया। यज्ञों में पशुबलि को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य आहुतियां गौण होने लगीं। राजसूय, अश्वमेध तथा वाजपेय जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान किया जाने लगा। अग्निष्टोम यज्ञ सात दिनों तक चलता था। पहली बार शतपथ ब्राह्मण में पुनर्जन्म के सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। उपनिषदों में ब्रह्म एवं आत्मा के संबंधों की व्याख्या की गई। पुरुषार्थ की संख्या चार है-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षा *धर्म, अर्थ तथा काम को त्रिवर्ग कहा गया है।
गृह्य सूत्रों में 16 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है ये हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन संस्कार, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह एवं अंत्येष्टि।
गृह्य सूत्र में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है ये हैं-ब्रह्मा, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, गंधर्व, असुर, राक्षस एवं पैशाच विवाह।
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