रेगुलेटिंग एक्ट के प्रमुख उद्देश्य क्या है
(1988) रेग्यूलेटिंग एक्ट पास होने के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी पहले एक व्यापारिक संस्था थी। बाद में यह कम्पनी व्यापारिक संस्था न रहकर एक राजनैतिक संस्था हो गई। इस पर इंग्लैण्ड की सरकार का कोई नियन्त्रण नही था। अतः कम्पनी की आर्थिक दशा बड़ी शोचनीय हो गई। कम्पनी को ब्रिटिश सरकार से ऋण के लिए याचना करनी पड़ी। सन् 1772 ई० में सरकार ने यह अनुभव किया कि यदि कम्पनी को आर्थिक सहायता नहीं दी गई तो इनका दीवाला निकल जायगा। ऐसी दशा में कम्पनी की स्वतन्त्रता को समाप्त करने तथा उस पर पार्लियामेंट का नियन्त्रण स्थापित करने का निश्चय कर लिया गया। इस ध्येय की पूर्ति के लिए 1773 ई० में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने कम्पनी के शासन-संचालन के कुछ नियम बनाये जो रेग्यूलेटिंग (Regulating) एक्ट के नाम से प्रसिद्ध हैं।
रेग्यूलेटिंग एक्ट की धाराए-
रेग्यूलेटिंग एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं-
(1) इस एक्ट (कानून) के द्वारा कम्पनी के संचालकों की संख्या 24 निश्चित की गई और उनके कार्यकाल को एक वर्ष से बढ़ाकर चार वर्ष कर दिया गया। यह भी व्यवस्था। की गई कि एक चौथाई संचालक प्रति वर्ष अवकाश ग्रहण करेंगे और उनके स्थान पर नये सदस्य निश्चित होंगे।
(2) बंगाल के लिए गवर्नर-जनरल की व्यवस्था की गई। उसके कार्यों में सहायता करने के लिए चार सदस्यों की समिति (कौसिल) का निर्माण किया गया। गवर्नर-जनरल
(3) बम्बई तथा मद्रास के गवर्नर, गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिये गये। उनके लिए देशी राज्यों से संधि तथा युद्ध करने के मामले में गवर्नर-जनरल तथा उसकी समिति की पूर्व स्वीकृति लेना आवश्यक था।
(4) कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई जो, ब्रिटिश भारत में सबसे ऊँचा न्यायालय था। इसके निर्णय के विरुद्ध अपील इंग्लैण्ड में होती थी।
(5) कम्पनी के कर्मचारियों को भेंट उपहार लेने का निषेध कर दिया गया। कर्मचारियों के वेतन बढ़ा दिये गये।
रेग्यूलेटिग एक्ट के दोष-
(1) इस एक्ट का मुख्य दोष यह था कि गवर्नर-जनरल को अपनी कौसिल के बहुमत के अनुसार कार्य करना पड़ता था, जिससे गवर्नर-जनरल को निष्क्रिय-सा रहना पड़ता था।
(2) दूसरा प्रमुख दोष यह था कि गवर्नर-जनरल और मद्रास व बम्बई के गवर्नरों का सम्बन्ध दोषपूर्ण था। मद्रास तथा बम्बई के गवर्नरों पर बंगाल सरकार का नियन्त्रण था। और वह भी स्पष्ट नहीं था। वे बिना उसकी अनुमति के देशी राज्यों में युद्ध व संधि नहीं करते थे।
(3) इसका बहुत बड़ा दोष यह था कि गवर्नर-जनरल तथा उसकी कौंसिल के साथ सुप्रीम कोर्ट का सम्बन्ध स्पष्ट नहीं किया गया था। इससे अधिकार क्षेत्र के लिए प्रायः संघर्ष हुआ करता था।
(4) सुप्रीम कोर्ट को न्याय सम्बन्धी मामलों में इंग्लैण्ड के नियमों का अनुसरण करना। पड़ता था जो इस देश के लिए उपयुक्त न थे। इनके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट का अधिकारक्षेत्र भी सुस्पष्ट न था।
(5) कम्पनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार पर नियन्त्रण लगाया गया, परन्तु उनकी । आय में वृद्धि नहीं की गई जिससे वे आमदनी बढ़ाने के लिए अन्य उपाय सोचने लगे फलतः भ्रष्टाचार तथा घूसखोरी बहुत बढ़ गई। ।
दोषों का निवारण
(1) पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा गवर्नर-जनरल की समिति के सदस्यों की संख्या घटा कर तीन कर दी गई।
(2) सन् 1781 ई० के अनुसार सुधार एक्ट द्वारा यह व्यवस्था की गई कि गवर्नर जनरल अपने निर्णय को रद्द कर सकता है।
(3) सन् 1781 ई० के घोषणा एक्ट द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के बहुत से दोषों को दूर कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र निश्चित कर दिया गया और यह नियम कर दिया गया कि गवर्नर-जनरल तथा उसकी कौसिल सुप्रीम कोर्ट के अधीन नहीं रहेगी।
(4) सन् 1780-81 ई० के एक्ट द्वारा यह निश्चित किया गया कि बिना सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किये गवर्नर-जनरल प्रान्ताय न्यायालय के लिए कानून बना सकता
पिट के इण्डिया एक्ट का संक्षिप्त परिचय
सन् 1784 ई० में रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए तत्कालीन बिटिश प्रधानमन्त्री विलियम पिट के समय में संसद में एक एक्ट पारित किया गया। जिसकी निमनलिखित धाराएँ थीं-
(1)भारतीय मामलों के लिए 6 कमिश्नरों का एक बोर्ड स्थापित किया, जिसका नाम बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल रखा गया । इसके सदस्यों की नियुक्ति शासन द्वारा होती थी । यह संचालक मण्डल पर नियन्त्रण रखता था ।
(2)सेक्रेटरी ऑफ स्टेट इसका प्रधान बना । गण-पूर्ति (कोरम) तीन सदस्यों की उपसमिति थी। बराबर मत होने पर प्रधान को निर्णायक मत देने का अधिकार दिया गया।
(3) बोर्ड ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का एक अंग बन गया । वह बोर्ड हर महकमे के कार्या और पत्र-व्यवहार का निरीक्षण कर सकता था । बोर्ड के तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति बना दी गयी । बोर्ड जो गप्त आदेश भेजता वह इस समिति के माध्यम से भेजता था।
(4) गवर्नर जनरल की काउन्सिल के सदस्यों की संख्या चार से तीन कर दी गयी । इनमें एक स्थान सेनाध्यक्ष को दिया गया ।
(5) बम्बई तथा मद्रास की काउन्सिल में भी सदस्य संख्या तीन कर दी गयी, जिनमें से एक प्रान्तीय सेनापति रखा गया ।
(6) गवर्नर जनरर सेनाध्यक्ष तथा काउन्सलरों को संचालक मण्डल नियुक्त करता था तथा पदच्युत भी कर सकता था और ब्रिटिश सम्राट भी।
(7) काउन्सिल स्थित गवर्नर जनरल का अधिकार प्रान्तीय सरकारों की आय व व्यय पर भी लागू कर दिया गया ।
(8) गवर्नर जनरल तथा उसकी काउन्सिल बिना डाइरेक्टरों अथवा गुप्त समिति की आज्ञा के युद्ध या संधि नहीं कर सकते थे।
(9) भारत में ब्रिटिश प्रजाजन अपने कार्यों के लिए भारत या ब्रिटिश न्यायालय में उत्तराधिकारी बनाये गये।
(10) एक विशेष अदालत बनाया गया जिसमें भारत में किये गये शर्तों के लिए इंग्लैण्ड के लोगों पर अभियोग चल सकता था।
(11) प्रशासन में मितव्ययिता बरतने का आदेश दिया गया ।
(12) गवर्नर जनरल तथा उसकी काउन्सिल को आज्ञा दी गयी कि बिना कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स की आज्ञा के किसी शक्ति से यूद्ध या संधि न करे, जब तक कि वह कार्य अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक न हो।
यह एक्ट कम्पनी के शासन का आधार स्तम्भ बना रहा । इसके द्वारा कम्पनी का शासन सम्बन्धी कार्य ब्रिटिश सरकार के नियन्त्रण में आ गया । अब भारत से कमाई हुयी दौलत कुछ ही जेबों में न जाकर इंग्लैण्ड के राष्ट्रीय बजट का अंग बन गयी। ।
सन् 1813 ई० के आज्ञा-पत्र की विशेषताएँ
सन् 1813 ई० में पारित चार्टर एक्ट की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं-
(1) इस आज्ञा-पत्र द्वारा कम्पनी की अवधि 20 वर्ष के लिए बढ़ा दी गयी ।
(2) कम्पनी से भारतीय व्यापार का एकाधिकार छीन लिया गया ।
(3) कम्पनी को 20 वर्षों के लिए चीन पर व्यापार का एकाधिकार प्रदान किया गया।
(4) भारत से इच्छुक व्यापारियों तथा शिक्षा सुधार या अन्य वैध कार्यों के लिए जो भारत आना चाहते थे, उन्हें अनुमति-पत्र देने की व्यवस्था की गयी।
(5) सेना का व्यय राजस्व विभाग को सौंपा गया तथा फौजी अधिकारियों के प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की गयी।
(6) बिशप तथा तीन छोटे पादरियों की नियुक्ति की गयी जो भारत में योरोपीय धार्मिक हितों का ध्यान रखते थे।
(7) इस आज्ञा-पत्र द्वारा भारतीयों के नैतिक एवं शैक्षणिक उत्थान की व्यवस्था की गयी।
(8) भारतीय साहित्य के पुनरुत्थान तथा उनमें ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के लिए 1 लाख रुपये की राशि का प्रावधान किया गया ।
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