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शेरशाह सूरी और हुमायूं के बीच युद्ध का वर्णन

शेरशाह सूरी और हुमायूं के बीच युद्ध का वर्णन

 

हुमायूँ का व्यक्तित्व व चरित्र

हुमायूँ बादशाह के व्यक्तित्व तथा चरित्र में अनेक गुणों तथा दोषों का सम्मिश्रण था। उसकी चारित्रिक विशेषताओं को निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत समझा जा सकता है

(1) परिवार-प्रेमी-

हुमायूँ एक परिवार प्रेमी बादशाह था। वह एक आज्ञाकारी पुत्र, दयावान तथा क्षमाशील भाई था। उसने अपने पिता बाबर की आज्ञा का पालन करके साम्राज्य का विभाजन अपने भाइयों-कामरान, हिन्दाल तथा अस्करी में कर दिया। इस कार्य से उसे अनेक काइयाँ उठानी पड़ीं, परन्तु अपने कर्तव्य से वह पीछे नहीं हटा । उसने अपने शत्रुओं के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार किया।

(2) साहसी व पराक्रमी-

हुमायूँ में साहस एवं पराक्रम की कमी नहीं थी। उसने गजरात के शासक बहादुरशाह को पराजित करने में सफलता प्राप्त की थी और शेरखाँ को भी चुनार का दुर्ग छोड़ने के लिये बाध्य कर दिया था। लेकिन उसमें दृढ़ संकल्प शक्ति और संयमशीलता की कमी थी। इसलिये वह एक सफल सेनानायक और प्रशासक न बन सका।

(3) धार्मिक सहिष्णुता-

हुमायूँ एक धर्म सहिष्णु सम्राट था। यद्यपि वह एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था, तथापि वह अन्य सभी धर्मों का आदर करता था। उसने धर्म के नाम पर हिन्दुओं पर अत्याचार नहीं किये । वह सूफी सन्तों का काफी सम्मान करता था। अकबर का संरक्षक और उसका स्वामिभक्त सेवक बैरम खाँ एक शिया मुसलमान था। हुमायूँ ने ईरान में शिया धर्म भी स्वीकार कर लिया था।

(4) साहित्य व कला-प्रेमी-

हुमायूँ विद्या और साहित्य का विशेष प्रेमी था। वह स्वयं अरबी, फारसी और तुर्की भाषा का अच्छा ज्ञाता एवं विद्वान था। उसके दरबार में खोन्द मीर, बयाजिद जैसे विद्वान आश्रय पाते थे। उसका अफताबची (हुक्का भरने वाला) जौहर भी एक अच्छा विद्वान था, जिसने ‘तजकिरातुल वाक्यात’ नामक पुस्तक लिखी थी। हुमायूँ ने एक विशाल पुस्तकालय भी बनवाया था, जिसमें बहुत से दुर्लभ ग्रन्थ थे। हुमायूँ को संगीत तथा चित्रकला से विशेष प्रेम था। वह संगीत की महफिलों का आयोजन करता था। उसने मीर सैयद अली और ख्वाजा अब्दुल समद नामक चित्रकारों । को मध्य एशिया से बुलवाकर अनेक पुस्तकों में चित्रकारी करवायी थी। हुमायूँ ने अनेक सुन्दर इमारतों का भी निर्माण करवाया था।

(5) दानशील-

हमायूँ एक दानी बादशाह था। निजामुद्दीन अहमद ने लिखा है कि-“हुमायूँ बादशाह इतना दानी था कि हिन्दुस्तान का सारा धन भी उसकी दानशीलता के समक्ष पर्याप्त न था।”

(6) हमार्य के चारित्रिक दोष-

हुमायूँ के चरित्र में अनेक दोष भी थे। उसमें दृढ़ संकल्प का सर्वथा अभाव था। क्षणिक विजय प्राप्त होते ही वह भोग-विलास में डूब जाता था और अपने शत्रुओं के प्रति उदासीन हो जाता था। उसमें एक अच्छे सेनानायक और शासक के गुण न थे। उसमें दूरदर्शिता का अभाव था। इसके अतिरिक्त उसे युद्ध आदि। में रुचि न थी। वह एक शान्तिप्रिय व्यक्ति था। उसने शासन की ओर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। जिस प्रकार बाबर जीवन भर विजय प्राप्त करने में लगा रहा और शासन को सुसंगठित करने की ओर प्रयत्न करता रहा, उसी प्रकार हुमायूँ विद्या की ओर झुका रहा।

श्री अवधबिहारी लाल पाण्डेय ने हुमायूँ के चरित्र का मूल्यांकन करते हुए लिखा है-“यदि हम उसके गुण-दोषों की सामूहिक रूप से समीक्षा करें तो वह सम्मान सहानुभूति तथा स्नेह का पात्र प्रतीत होता है और उसके ऊपर हमें दया आ सकती है. किन्तु क्रोध नहीं।” एस० आर० शर्मा का मत है कि-“मुगल शासन को हुमायूँ की देन केवल इतनी है कि वह प्रतिभाशाली अकबर का पिता था।”

 

 हुमायूँ और शेरखों के मध्य संघर्ष

शेरखाँ एक महत्वाकांक्षी अफगान सरदार था। उसने कुछ समय तक बाबर की सेना में कार्य किया था। 1528 ई० में वह बिहार के शासक की सेना में शामिल हो गया। अपनी योग्यता व दूरदर्शिता के बल पर वह धीरे-धीरे पूरे बिहार का स्वतंत्र स्वामी बन गया। उसने चुनार दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। फिर उसने बंगाल पर आक्रमण किया और वहाँ के सूबेदार महमूदशाह को बुरी तरह परास्त किया। अब उसने हुमायूँ पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

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हुमायूँ भी शेरखाँ की बढ़ती हुई शक्ति से आतंकित था, अतः हुमायूँ ने हिन्दूबेग को शेरखाँ की गतिविधियाँ ज्ञात करने के लिये जौनपुर भेजा। लेकिन हिन्दूबेग शेरखाँ से मिल गया और उसने हुमायूँ से कहा कि शेरखाँ से भय न करें, वह तो मुगलों का मित्र है। इसके बाद जब शेरखाँ ने बंगाल पर अधिकार कर लिया, उस समय बंगाल के शासक महमूदशाह की प्रार्थना पर हुमायूँ ने चुनार के दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। छह माह में हमायँ ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया। पर शेरखाँ की स्थिति पूर्ववत् दृढ़ बनी रहीं और रोहतासगढ़ दुर्ग पर उसका प्रभुत्व कायम रहा। अन्त में हुमायूँ और शेरखाँ में सन्धि हो गयी जिसके अनुसार बंगाल पर शेरखाँ का अधिकार हो गया और उसने मुगलों को 10 लाख रुपये प्रतिवर्ष देने का वचन दिया। लेकिन यह सन्धि स्थायी सिद्ध नहीं हुई। हमायँ ने इस संघर्ष के शीघ्र बाद ही बंगाल पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में अफगान शेरखाँ पराजित हुआ और शेरखाँ ने कोसी व गंगा नदियों के मध्य का प्रदेश हथिया लिया । हुमायूँ तथा शेरखाँ के संघर्ष का विवरण निम्न है

(1) चौसा का युद्ध-

1539 ई० में हुमायूँ को पटना के मार्ग से आगरा लौटते समय चौसा नामक स्थान पर पता चला कि शेरखाँ उसका सामना करने से लिए आ डटा है। शेरखाँ ने हुमायूँ को संधि के प्रस्ताव के बहाने चकमा दिया तथा हुमायूँ के असावधान होते ही वह मुगलों पर बेतरह टूट पड़ा। हुमायूँ वीरतापूर्वक लड़ा परन्तु उसकी गहरी हार हुयी । हुमायूँ ने घोड़े सहित गंगा में कूदकर अपनी जान बचायी। इस युद्ध में 8000 मुगल सैनिक और सरदार मारे गये।

(2) कन्नौज का युद्ध-

हुमायूँ ने 1539 ई० में कालपी के मार्ग से आगरा पहुँचकर पुनः सेना संगठित की। उसने अपने भाइयों में सहायता माँगी किन्तु उसमें वह सफल न हो सका। वह प्रयत्नपूर्वक 40,000 सैनिक एकत्र कर अफगानों का सामना करने आगरा से चल पड़ा। चौसा विजय के पश्चात् शेरखाँ ने शेरशाह की उपाधि धारण की उसने अपने नाम खुत्बा पढ़वाया तथा सिक्के ढलवाये । उसने बंगाल जीतकर भारत-विजय की योजना बनाई। हुमायूँ से युद्ध करने वह कन्नौज पहुँच गया। कन्नौज के पास दोनों की सेनाएँ एक माह तक पड़ाव डाले रहीं। अचानक भारी वर्षा होने के कारण मुगल शिविर में पानी भर गया। हमायँ ने अपनी सेना किसी ऊँचे स्थान पर ले जाने का फैसला ने उपयुक्त अवसर जान मुगलों पर धावा बोल दिया। हुमायूं, हैदर, अस्करी और वीरतापूर्वक लड़े परन्तु परास्त हुए। हुमायूँ गंगा पार कर आगरा की ओर भाग

कन्नौज की लड़ाई ने मुगलों और अफगानों के भाग्य का निर्णय कर लिया राज्य विहीन शासक था और शेरशाह अफगान सल्तनत का संस्थापक। हमाय ने जाकर शाह से सहायता माँगी किन्तु उसे शिया धर्म स्वीकार करना पड़ा। 1555 ई०में उसका दिल्ली पर पुनः अधिकार स्थापित हो गया।

 

 

हुमायूँ की कठिनाइयाँ

 

बाबर की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र नासिरुद्दीन 29 दिसम्बर, 1530 ई० को मिली के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ परन्तु जिस राजसिहासन पर हूमायूँ आसीन हुआ वह फूलो  की शैय्या न होकर काँटो की शय्या थी क्योंकि गद्दी पर बैठते ही इस सम्राट की अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। ये कठिनाइयों निम्नलिखित थी

(1) असंगठित राज्य-

बाबर से जो साम्राज्य हुमायू का प्राप्त हुआ था वह सुदृढ़ न। हो सका था। इसकी बुनियाद कमजोर थी । बाबर ने एक बहुत बड़ा राज्य अवश्य जीता। था । परन्तु उस विशाल एवं नवविजित साम्राज्य को सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित करने का था । परन्तु नहीं मिला था व्यवस्था-बाबर एकवस्था को उन्नत का

(2) कमजोर शासन-

व्यवस्था-बाबर एक महान विजेता था, परन्तु वह कुशल शासक न था। उसने अपने राज्य की शासन-व्यवस्था को उन्नत करने का तनिक भी प्रयास नहीं किया । उसने लोदी वंश की दोषपूर्ण शासन-व्यवस्था को अपनाया जिसमें जागीर प्रथा का प्रचलन था । बाबर की मृत्यु के बाद ये जागीरदार हुमायूँ के शत्रु बन गये। मुगलों को जनता का समर्थन भी प्राप्त नहीं था।

(3) रिक्त राजकोष-

यद्यपि बाबर को भारत-विजय से अतल धनराशि मिली थी। परन्तु उसने इसका उचित उपयोग न करके अनियमित रूप से उपहार, पुरस्कार आदि में धन का अपव्यय किया, जिससे राजकोष रिक्त हो गया और हुमायूँ की आर्थिक अवस्था । सोचनीय हो गई।

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(4) सम्बन्धियों के षड्यन्त्र-

हुमायूँ का सबसे बड़ा शत्रु मुहम्मद जमान मिर्जा था, जो हुमायूँ की सौतेली बहन का पति था । हमायूँ का दूसरा प्रमुख विरोधी शव बाबर का भाई मुहम्मद सुल्तान मिजा था। हुमायूँ का तीसरा प्रमुख शत्र बाबर का बहनोई मीर। मुहम्मद मेहदी था। राजवंश के होने के कारण ये लोग दिल्ली के राजसिंहासन पर अपना । अधिकार मानते थे और इसके लिए सदैव विद्रोह करने के लिए तैयार रहते थे।

(5) अफगानों का उत्कर्ष-

यद्यपि अफगान बाबर द्वारा पराजित होकर घोड़ी देर के लिए अवश्य दब गये परन्तु बाबर के मरते ही ये बंगाल एवं बिहार में जम गये और अपनी खोई हुई शक्ति को फिर से प्राप्त करने का प्रयल करने लगे। इसी समय इनको शेर खाँ जैसा योग्य नेता मिल गया जिसने आगानों की बिखरी हुई शक्ति को एकत्रित और संगठित किया । शेर खाँ ने हुमायूँ के साथ दो युद्ध किये और दोनों में हुमायूँ की पराजय हुई।

(6) बहादुरशाह का विरोध-

मालवा एवं गुजरात का शक्तिशाली शासक बहादरशाह भी हमायूँ का भयानक शत्र सिद्ध हुआ । वह हुमायूँ के शत्रुओं को अपने यहाँ। आश्रय देने लगा और दिल्ली को जीतने की योजनायें बनाने लगा।

 

(7) सैन्य संगठन की दुर्बलता-

हमायूँ अपनी सेना पर भी भरोसा नहीं रख सकता था, क्योंकि उसकी सेना में तर्क, उजबेक, मंगल, ईरानी, अफगान और भारतीय आदि विभिन्न जातियों के सैनिक होने के कारण उनमें एकता की भावना का सर्वथा अभाव था। उनके हित आपस में टकराते थे।

 

(8) बाबर का उत्तरदायित्व-

हुमायूँ को कुछ कठिनाइयाँ बाबर से विरासत में मिलीं। बाबर ने न तो सुदृढ़ शासन-व्यवस्था का निर्माण किया और न अपनी प्रजा के हृदय को जीतने का प्रयल किया।

 

(9) हुमायूँ की भूलें-

हुमायूँ कुछ ऐसी भयंकर भूलें कर बैठा जिन्होंने उनकी असफलता की गति को तीव्र कर दिया। कालिंजर का अभियान, उसकी भारी भूल थी। उसने व्यर्थ ही कालिंजर के शासक को अपना शत्रु बना लिया । चित्तौड़ की सहायता न करके हुमायूँ ने भूल की । यदि वह चाहता तो राजपूतों को मित्र बना सकता था। शेरशाह के विरुद्ध अभियान में भी उसने नासमझी से काम लिया और अपने भाइयों में साम्राज्य विभाजन कर उसने भयंकर भूल की । ये भूलें हुमायूँ को ले डूबी ।।

 

शेरशाह के विरुद्ध हुमायूँ की असफलता के निम्नलिखित कारण थे

(1) भाइयों का वैमनस्य-हुमायूँ के भाई प्रारंभ में तो उसके प्रति निष्ठावान रहे। कन्नौज की पराजय के पश्चात् कामरान और अस्करी उससे पृथक हो गये। कामरान उससे पृथक् रहकर अपने प्रदेशों की रक्षा करना चाहता था। चौसा युद्ध के समय हिन्दाल के विद्रोह ने हुमायूँ को पराजय का मुँह दिखाया।

(2) हुमायूँ का चरित्र-हुमायूँ में अनेक चारित्रिक दुर्बलताएँ थीं, जो उसकी असफलता का कारण बनी। वह एक उदार शासक था। वह अपने भाइयों से प्रेम करता था तथा उसके अपराध क्षमा कर देता था। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, “जब उसके भाई उसका विनाश करने पर तुले थे तब भी उसने उनके साथ उदारता का व्यवहार किया।”

(3) सैनिक अदूरदर्शिता-हुमायूँ में सैनिक दूरदर्शिता का पूर्णतः अभाव था। अनुभव, प्रबन्ध-क्षमता, छल-कपट और राजनीतिक अवसरवादिता में शेरखाँ हुमायूँ से बढ़ा-चढ़ा था । सैनिक अदूरदर्शिता भी हुमायूँ की पराजय का कारण बनी।

(4) अफगान शक्ति का सही आकलन न करना-हुमायूँ अफगान शक्ति का सही आकलन न कर पाने के कारण पराजित हुआ। प्रो० सतीशचन्द्र के शब्दों में, “शेरखाँ के विरुद्ध हुमायूँ की असफलता का सबसे बड़ा कारण उसके द्वारा अफगान शक्ति को समझ पाने की असमर्थता थी।”

(5) हुमायूँ का दुर्भाग्य-हुमायूँ की असफलता में उसके दुर्भाग्य ने भी साथ दिया। उसका भाई अस्करी, तर्दी बेग को हुमायूँ की सहायता के लिए न मना सका । कन्नौज के युद्ध में अचानक भारी वर्षा न होती तो हुमायूँ कदापि न हारता । नाम से भाग्यशाली हुमायूँ का भाग्य ने कभी साथ नहीं दिया।

(6) अदूरदर्शिता-हुमायूँ एक अदूरदर्शी शासक था। उसमें परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालने की क्षमता नहीं थी। वह परिस्थितियों को समझे बिना स्वयं को विपत्ति में फँसा लेता था। वह अपनी सुरक्षा के लिए बंगाल और गुजरात के युद्धों को टाल सकता था। वह अपनी परिस्थितियों का सही आकलन नहीं कर सका, अतः पराजित हा गया।

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