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कृषक समाज की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए

 

कृषक समाज की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए

 

प्रारम्भ से लेकर वर्तमान समय तक भारत गाँवों का देश और कषि प्रधान अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित रहा है। भारत की 72% जनसंख्या गाँवों में निवास करते हये कृषि के माध्यम से जीविकोपार्जन करती है। देश की कुल सक्रिय श्रम शक्ति का लगभग 70% भाग आज भी कृषि के साथ जुड़ा हुआ है, जिसके द्वारा भारत की राष्ट्रीय आय का लगभग 50% भाग उत्पन्न किया जाता है। स्पष्ट है कि भारत जैसा देश कृषि के समुचित विकास बिना आथिक क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकता है। परम्परागत एवं विकासशील भारत के सम्मुख मुख्य समस्या आर्थिक विकास तथा सामाजिक न्याय की है। भारत एशिया का वह विकासशील दशका जो कि नियोजित आयोजन तथा विकास कार्यक्रमों के माध्यम से बहमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर है। भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में ग्रामीण पुनर्निर्माण’ को प्रधानता दी गई है कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति लाने का प्रयास किया गया है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भूमि सुधारों के माध्यम से किराये पर भूमि जोतने वालों (Tenants), बैंटाईदारी में खेती करने वालों (Share-croppers) और भूमिहीन श्रमिकों (Landless Labours) की स्थिति राधारी के क्षेत्र में यन्त्रीकरण लाया गया है। लोग ट्रैक्टर्स, पम्पिंग सेट और अन्य कृषि उपकरणों का प्रयोग कर रहे हैं। नये किस्म के उन्नत बीज, रासायनिक खादों, नई कषि सिंचाई की सुविधाओं के कारण कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है। मान समय में मुख्य समस्या केवल उत्पादन वृद्धि की ही नहीं है, वरन यह है कि उत्पादित वस्तुओं का वितरण समाज के विभिन्न वर्गों में न्यायोचित ढंग से हो। विकास कार्यक्रमों का लाभ कुछ ही शक्ति-सम्पन्न लोगों को नहीं मिले, सामान्य व्यक्ति को भी मिले, उसका रहन-सहन का स्तर ऊचा उठे। कृषि क्षेत्र में विकास कार्यों को करने तथा वस्तुस्थिति समझने के लिये ग्रामीण कृषि संरचना और कृषिक सम्बन्धों को समझना आवश्यक है।

 

कृषिक सम्बन्ध का अर्थ एवं कृषिक व्यवस्थाओं का अध्ययन

 

भारतीय ग्राम भूमि-स्वामित्व, नियन्त्रण और उसके प्रयोग की दृष्टि से पर्याप्त विभेदीकृत कार के हैं। कृषक भूस्वामियों के अतिरिक्त अन्य सामाजिक वर्ग भी पाये जाते हैं। ग्रामीण समदायों में एक तरफ स्वयं खेती न करने वाले बड़े-बड़े भू-स्वामी तथा दूसरी तरफ टाईदारी में खेती करने वाले भूमिहीन श्रमिक पाये जाते हैं। ग्रामीण समुदायों में साहकार, व्यापारी, कुटीर-उद्योग से जुड़े लोग और सेवा प्रदान करने वाली कुछ जातियाँ भी हैं. जिनका कृषि से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है। इस दृष्टि से भारतीय ग्रामीण समुदाय के लिये ‘कृषक समाज’ या ‘कृषक वर्ग’ शब्द का प्रयोग भ्रमात्मक है। आन्द्रे बिताई के अनुसार, कृषिक व्यवस्थाओं का अध्ययन भूमि तथा उत्पादन कार्यों के लिये उसके प्रयोग की समस्या से सम्बन्धित है। भूमि पर आधारित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में कृषि-विषयक व्यवस्थाओं के अध्ययन का विशेष महत्व है, किन्तु अभी तक इस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। भारत में भूमि के उपयोग सम्बन्धी अनेक प्रौद्योगिक व्यवस्थायें देखी जाती हैं।

भारतीय कृषि के क्षेत्र में विभिन्न पारिस्थिति विविधताओं के भी  दर्शन होते हैं। कुछ क्षेत्रों में बहत अधिक वर्षा तो कुछ में कठिनता से ही थोड़ी सी वर्षा हो पाती है। कुछ क्षेत्रों में सिंचाई की पर्याप्त सुविधायें हैं, तो कुछ में नहीं के बराबर। इसी प्रकार विभिन्न क्षेत्रों में तापमान, नमी, धूप की दृष्टि से-अन्तर पाये जाते हैं। इन सब बातों का प्रभाव फसलों की विभिन्न किस्मों एवं उनके लिये प्रयोग में लाई जाने वाली प्रौद्योगिकी पर पड़ता है। कृषि व्यवस्थाओं के बारे में समुचित जानकारी पाने के लिये कृषि क्षेत्र के काम में ली जाने वाली प्रौद्योगिकी के महत्व को जानना जरूरी है।

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कृषि कार्यों की प्रकृति अत्यधिक जटिल है। कृषि कार्यों का संगठन इस बात पर निर्भर करता है कि किस समुदाय में कृषि के लिये कौन सी प्रौद्योगिकी सुलभ है? यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि कषि कार्यों का विभाजन सामाजिक संगठन पर आधारित होता है, न कि प्रौद्योगिकी पर। समाज विशेष की संस्कृति ही यह निर्धारित करती है कि कृषि कार्यों में पुरुषों एवं स्त्रियों की भूमिका क्या होगी? जनगणना आँकड़ों से पता चलता है कि पंजाब की अपेक्षा पश्चिमी बंगाल में कृषि मजदूरी के क्षेत्र में स्त्रियों की संख्या अधिक है। अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि केरल तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में कृषि-श्रमिको में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है।

भारतीय कृषि के क्षेत्र में स्तरीकरण की व्यवस्था एवं कार्य विभाजन के मध्य एक सम्बन्ध पाया जाता है। गेहूँ तथा चावल की खेती वाले क्षेत्रों में कार्य विभाजन की दृष्टि से का अन्तर दृष्टिगोचर होता है। पंजाब एवं हरियाणा में जहाँ गेहूँ की खेती विशेषकर होती  है, सम्पूर्ण जनसंख्या में कृषि श्रमिकों का अनुपात सापेक्षतः कम है, जबकि केरल तथा पश्चिम बंगाल में जहाँ ‘गीले धान की खेती होती है, यह अनुपात अधिक और यहाँ पर बँटाईदारी में खेती करने का प्रचलन भी अधिक है।

नियोजकों तथा नीति-निर्धारकों की मान्यतानुसार, स्वयं के पारिवारिक श्रम के द्वारा की जाने वाली खेती अधिक उन्नत किस्म की हो सकती है, अपेक्षाकृत उस खेती के. जो किराये पर भूमि को जोतने वाले काश्तकारों, बँटाईदारों तथा भूमिहीन श्रमिकों द्वारा की जाती है। किन्तु उत्पादन संगठन के तरीकों में मौजूदा क्षेत्रीय अन्तरों की व्याख्या किस प्रकार से की जाये? इस पर समाजशास्त्रियों का कथन है कि ‘जाति संरचना’ ही इस व्याख्या का सूत्र है। स्वयं द्वारा खेती उन क्षेत्रों में सामान्य है, जहाँ कृषक जातियाँ प्रभावी हैं, जबकि बँटाईदारी तथा वेतनभोगी मजदूरों का प्रयोग उन क्षेत्रों में सामान्य है, जहाँ अकृषक जातियाँ भू-स्वामी हैं। अर्थशास्त्रियों का मत है कि इस अन्तर का कारण भूमि पर जनसंख्या का दबाव, अतिरिक्त श्रम की उपलब्धता एवं वेतन संरचना से सम्बन्धित भेद है।

आन्द्रे बिताई के मतानुसार, इसका एक अन्य कारण स्वयं कार्य की प्रकृति है। एक समुदाय का इस प्रकार विभाजन जहाँ कुछ व्यक्ति स्वयं काम करते हैं तथा कुछ दूसरों के लिये काम करते हैं, अंशतः कार्य की प्रकृति पर निर्भर करता है। इसीलिये पंजाब तथा हरियाणा में 10-15 एकड़ के खेत पर स्वयं कृषक परिवार ही खेती कर लेता है, जबकि तमिलनाडु, केरल एवं पश्चिमी बंगाल में पाँच एकड़ के खेत पर भी लोग दूसरों से खेती कराते हैं। पंजाब तथा हरियाणा में गेहूँ की खेती सम्बन्धी कार्य इतने कठोर और थकान उत्पन्न करने वाले नहीं हैं, जितने दक्षिण भारत में गीले धान की खेती से सम्बन्धित कार्य है।

ग्रामीण समुदाय को ऐसे दो समूहों में विभाजित नहीं किया जा सकता, जिसमें एक समूह में वे लोग आते हैं, जो कृषि कार्य करते हैं और दूसरे समूह में वे लोग, जो कृषि कार्य नहीं करते हैं। वास्तव में ग्रामीण क्षेत्र में रहने वालों में से अधिकांश लोग किसी न. किसी रूप में खेती सम्बन्धी कार्य अवश्य करते हैं। कुछ लोग किराये पर भूमि लेकर जोतते हैं, तो कछ बंटाईदारी के रूप में कृषि कार्य करते है। कुछ ऐसे भू-स्वामी हैं, जो स्वयं खेता पर हाथ से तो काम नहीं करते, किन्तु अन्य लोगों द्वारा किये जाने वाले कषि कार्यों की देखरेख करते हैं। बड़े-बड़े भू-स्वामी भूमिहीन श्रामको की सहायता से खेती का कार्य करते हैं।

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कृषि के क्षेत्र में हाथों से किये जाने वाले कामों में भी एक स्तरीकरण के दर्शन होते हैं, सर्वाधिक परिश्रम-साध्य कार्य निम्नतम जातियों या स्तरों के पुरुषों व स्त्रियों को करने पड़ते हैं। कृषि क्षेत्र में किसे कौन-सा कार्य दिया जायेगा, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि समाज विशेष में विभिन्न कार्यो का मूल्यांकन किस प्रकार से किया। जाना है? कार्यो के विभाजन में इस बात को महत्व प्रदान किया जाता है कि किसके पास कितनी भमि है और अन्य भौतिक साधनों पर किसका कितना नियन्त्रण है? आन्द्रे बिताई नें अपने अध्ययन में पाया कि सामान्यतः यह दिखाई देता है कि कठोर और सबसे अधिक। परिश्रम-साध्य कार्य उन्हें सौपे जाते है, जो कि भूमिहीन और सामाजिक स्तरीकरण के निम्नतम स्तर पर है। बड़े भू-स्वामी स्वयं कार्य नहीं करते हैं, क्योंकि वे दूसरों से अपने  कार्यों को कराने में साधनों की सम्पन्नता के कारण सक्षम हैं।

यदि उत्पादन के सामाजिक संगठन को देखा जाये, तो हम यह पाते हैं कि यह कार्य एवं साम्पत्तिक अधिकारों के एक विशिष्ट प्रतिमान को व्यक्त करता है। यहाँ उत्पादन संगठन के तीन प्रतिमान देखे जाते हैं- प्रथम प्रतिमान पारिवारिक श्रम पर आधारित है, जबकि दूसरा प्रतिमान किराये के श्रम पर आर तीसरा प्रतिमान काश्तकारी/किराये पर आधारित है। प्रत्येक प्रतिमान के विभिन्न रूप-भेद भी दिखाई देते है। कुछ स्थानों तीनों प्रतिमानों का मिश्रित रूप भी दृष्टिगोचर होता है।

जहाँ उत्पादन पारिवारिक श्रम पर आधारित होता है, वहाँ परिवार के सदस्यों को भिन्न कार्य सोपे जात हा कार्य-विभाजन का एक मुख्य आधार ‘लिंग-भेद’ है। जहाँ र के सभी लोग स्वयं के खेत पर कार्य करते हैं, वहाँ साथ ही उन्हें समयानुसार यकता होन पर बाहरा लागा का सहयोग भी प्राप्त करना पड़ता है। यह सहयोग नकद तान या वस्तु के रूप में होता है। जहाँ काश्तकारी/पटटेदारी या किराये पर एक निश्चित विधि हेतु दूसरो का भूमि जोती जाती है या बंटाईदारी में खेती की जाती है, वहाँ दो परिवारों के मध्य सम्बन्ध पनपते है। इनमें से एक परिवार भू-स्वामी और दूसरा परिवार काश्तकार या बटाईदार होता है। इन दो श्रेणियों के अन्तर्गत आने वाले लोग अधिकारों, व्यों एवं दायित्वों का दाट से परस्पर बंधे रहते हैं। भू-स्वामी परिवार तथा वेतनभोगी जटरों के मध्य भी कुछ निश्चित प्रकार के सम्बन्ध स्थापित होते हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कृषक सम्बन्धों में पर्याप्त भिन्नता देखी जाती है। समाजशास्त्रियों तथा मानवशासियों को इस बात का पता लगाना चाहिये कि इन विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों में बँधने वाले व्यक्तियों के प्रथा या कानून की दृष्टि से एक-दूसरे के प्रति सैद्धान्तिक रूप में कौन से अधिकार और दायित्व है तथा व्यवहार में उनका रूप क्या है? उत्पादन संगठन की विभिन्न प्रणालियों पर विचार से हमारा ध्यान सामाजिक स्तरीकरण के एक महत्वपूर्ण पक्ष की ओर जाता है। कृषि क्षेत्र में पारिवारिक श्रम, वेतनभोगी श्रम और काश्तकारी या बंटाईदारी पर आधारित उत्पादन पर ध्यान देने पर हमारी दृष्टि स्वतः ही भू-स्वामी (खेतिहरों, काश्तकारों, बंटाईदारों) तथा कृषि श्रमिकों की ओर जाती है। इन्हीं विभिन्न श्रेणियों एवं इनके आपसी सम्बन्धों से ‘कृषिक स्तरीकरण प्रणाली’ की रचना होती है, जो भारत की ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था की एक मुख्य विशेषता मानी जाती है।

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