सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन में अन्तर

सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन में अन्तर | Difference Between Social and Cultural Change in Hindi

सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन में अन्तर समझने से पहले हमें सामाजिक परिर्वतन को समझने का प्रयास करेंगे की सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा क्या है, सामाजिक परिवर्तन का अर्थ और परिभाषा को समझने का प्रयास करेंगे।

सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा

प्रत्येक समाज परिवर्तनशील है, क्योंकि उसमें निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। समाज में यह परिवर्तन क्यों होते है, इसका स्पष्टीकरण करके हुये ग्रीन (Green) ने लिखा है कि, – “परिवर्तन समाज में विद्यमान रहता है, क्योंकि प्रत्येक समाज में कुछ न कुछ असन्तुलन पाया ही जाता है। किसी विद्वान ने उचित ही कहा है कि एक नदी में दो बार घुसना असम्भव है। यह कथन उचित है। वैसे तो एक बार नदी में घुसने वाला व्यक्ति उसमें कई बार घुस सकता है, किन्तु एक बार नदी से बाहर निकल आने पर उस व्यक्ति में भी परिवर्तन आ जाता है और नदी का जल भी वही नहीं रह पाता। स्पष्ट है कि परिवर्तन एक शाश्वत एवं निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है। जिस प्रकार दो व्यक्ति परस्पर एक जैसे नहीं होते, उसी प्रकार दो समाज भी। प्रत्येक समाज अलग-अलग भी समय के साथ-साथ परिवर्तित होता जाता है। प्रत्येक समाज अपने-अपने उद्देश्यों के अनुसार अपने व्यवहारों तथा सम्बन्धों में भी परिवर्तन करता रहता है। राबर्ट बीरस्टीड के अनुसार – “भिन्न-भिन्न समाजों की राहें (Tracks) एक ही मार्ग का अनुकरण नहीं करती। भिन्न-भिन्न मार्गों से वे भिन्न-भिन्न मंजिलों पर पहुँचती है।” सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा के ही सन्दर्भ में समाजशास्त्री ऑगबर्न एवं निमकॉफ ने भी कहा है, – “प्रत्येक समाज में कुछ ऐसी शक्तियाँ भी विद्यमान रहती है, जो कि स्थापित संगठन में हास करती है, उनके कार्यों को विदीर्ण करके सामाजिक समस्याओं को जन्मती हैं। उदाहरण के तौर पर आर्थिक संगठन में हास होने पर बेरोजगारी आदि अनेक आर्थिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती है।” समाज में कुछ प्रतिकारक शक्तियाँ भी विद्यमान होती है जो समाज के सामंजस्य की प्रक्रिया को क्रियाशील बनाए रखती है, जिनके द्वारा समाज प्रगति की दिशा में अग्रसर रहता है। यदि – हम भारतीय समाज का ही उदाहरण देखें तो ज्ञात होता है कि वर्तमान रीति-रिवाजो, परम्पराओं व रहन-सहन के तरीकों में अत्यधिक परिवर्तन आ चुका है। स्पष्ट है कि सामाजिक वर्तन एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है, जो सभी युगों, स्थानों, भौतिक तथा अमौतिक वस्तुओं के साथ सम्बन्धित है।

 

सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा

सामाजिक परिवर्तन की गति युग की आवश्यकता, दृष्टिकोण और बहुत कुछ आर्थिकसामाजिक ढांचे या संरचना पर निर्भर करती है। भारत में वैदिक युग से लेकर मनुस्मृति के युग तक परिवर्तन की गति बहुत ही धीमी थी, क्योंकि इस लम्बे युग में आर्थिक और सामाजिक ढांचे के दर्शन में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं आया, जो व्यक्तियों में मूल्यों, विचारों और कार्य करने की पद्धति में परिवर्तन ले आता। थोड़े बहत जो परिवर्तन देखने को मिलते है, वह धार्मिक क्षेत्र में दिखाई पड़ते है । वास्तव में सामाजिक परिवर्तन की गति में जो तीव्रता आई, वह विशेषतः औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात ही आई है। औद्योगिक क्रान्ति ने केवल आर्थिक ढांचे को ही परिवर्तित नहीं किया, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संरचना से संबंधित अनेक मूल्यों को भी परिवर्तित कर दिया है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जितनी तीव्रता से प्रौद्योगिक और वैज्ञानिक क्षेत्र में परिवर्तन होंगे, उतनी ही तीव्रता से सामाजिक परिवर्तन भी होंगे।

वास्तव में सामाजिक परिवर्तन को पारिभाषित करने की समस्या सामाजिक दर्शन की समस्या है। आगस्त काम्टे से लेकर आज तक अनेक विचारकों ने सामाजिक परिवर्तनों को पारिभाषित करने का प्रयत्न किया है किन्तु अभी तक ऐसी परिभाषा सामाजिक परिवर्तन की नहीं है, जिस पर सभी विद्वान पूर्णतया सहमत हो सकें।

(1) किंग्सले डेविस – सामाजिक परिवर्तन से तात्पर्य केवल उन परिवर्तनों से है, जो सामाजिक संगठन में तथा समाज की संस्था एवं कार्यों में होते हैं |

(2) मॉरिस जिन्सबर्ग – “सामाजिक परिवर्तन से मैं सामाजिक संरचना में परिवर्तन समझता हूँ, उदाहरण के लिए समाज के आकार में, उसकी बनावट अथवा भागों के संतुलन में अथवा उसके संगठनों के स्वरूप में ” ।

(3) मैकाइवर और पेज – “हम केवल सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन कहेंगे।”

 

 

सामाजिक परिवर्तन की प्रमुख विशेषताएं

 

1. सामाजिक परिवर्तन एक अनिवार्य तथ्य है। डेविस के शब्दों में – “व्यक्ति स्थायित्व एवं सुरक्षा के लिये प्रयत्न कर सकते हैं, निश्चितता की खोज पूर्णरूप से जारी रह सकती है तथा अन्ततः अडिग विश्वास कायम रह सकता है, फिर भी यह सत्य है कि अन्य घटनाओं की तरह समाज शीघ्रता एवं अनिवार्य रूप से बदलते रहते हैं।”

2. सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी करना कठिन है, क्योंकि सामाजिक परिवर्तन के कारकों का एक साथ एक ही समय में अध्ययन करना सम्भव नहीं है।

3. सामाजिक परिवर्तन की गति समान नहीं होती। जिस समाज में परिवर्तन का विरोध अधिक होता है, वहाँ परिवर्तन की गति धीमी होती है। जहाँ विरोध कम होता है, वहां गति तीव्र होती है।

4. सामाजिक परिवर्तन सार्वभौमिक तथ्य है। डासन एवं गेटिस के शब्दों में – “क्रिया एवं परिवर्तन ‘सदैव सार्वभौमिक’ तथ्य है।” लुम्ले का कथन है कि सामाजिक परिवर्तन विभिन्न कारणोंवश अनिवार्य एवं अपरिहार्य रहा है और आज भी है।

 

 

सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन में अन्तर

अनेक विद्वान समाज में तथा संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। उनकी सामाजिक परिवर्तन की परिभाषायें इतनी विस्तृत हैं कि यह समझना कठिन हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक परिवर्तन कोई अलग-अलग वास्तविकतायें हैं। सामान्य ज्ञान के आधार पर तो यह कहा जा सकता है कि समाज संस्कृति, दो पृथक-पृथक अवधारणायें हैं और समाज में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन तथा संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों को सांस्कृतिक परिवर्तन कहा जाना किन्तु समाज और संस्कृति परस्पर इतने सम्बद्ध हैं कि समाज में होने वाले परिवर्त अतिरिक्त संस्कृति में होने वाले परिवर्तन भी आखिर समाज में ही होते हैं। समाज से संस्कृति का कोई अर्थ नहीं रहता। संस्कृति को समाज की आत्मा कहा गया है। शरीर भी है और आत्मा भी। आत्मा में होने वाले परिवर्तन अन्ततः शरीर की ही क्रिया प्रतिक्रियाओं में व्यक्त होते हैं। अतः अनेक विद्वानों ने समस्त सांस्कृतिक परिवर्तनों को भी सामाजिक परिवर्तन कहा है। मानवशास्त्रियों ने संस्कृति के अन्तर्गत समस्त मानवीय क्रियाओं और कार्य प्रणालियों को शामिल किया है गिलिन और गिलिन जैसे समाजशास्त्रियों में सामाजिक परिवर्तन में जीवन शैलियों में होने वाले परिवर्तन सम्मिलित किये हैं, जबकि समाजशास्त्र के अन्तर्गत सामाजिक क्रियायें और कार्य प्रणालियाँ समाज के तत्व हैं और जीवन शैलियां संस्कृति के अंग।

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सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक परिवर्तन का अन्तर स्पष्ट करते हुए किंग्सले डविस ने लिखा है, ‘सामाजिक परिवर्तन से हमारा अभिप्राय केवल उनसे है, जो सामाजिक संगठन में होते है- अर्थात समाज की संरचना और कार्यों में होने वाले परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन में वे सब परिवर्तन सम्मिलित हैं, जो संस्कृति के किसी भी पक्ष में होते हैं, जस- कला, विज्ञान, साहित्य, दर्शन, फैशन, कानून आदि में तथा सामाजिक संगठन के स्वरूपों और नियमों में होने वाले परिवर्तन।’

पारसन्स ने भी सांस्कृतिक परिवर्तन का सम्बन्ध मल्यों, विचारों और प्रतीकों में होने वाले परिवर्तन से बताया है, जबकि सामाजिक परिवर्तन मनुष्यों की अन्तः क्रियाओं में होने वाला परिवर्तन है।

मैकाइवर तथा पेज के शब्दों में, ‘केवल सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तनों को हम सामाजिक परिवर्तन कहेंगे।

 

सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक परिवर्तन का भेद निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन से अधिक व्यापक अवधारणा है, जिसमें समस्त वैचारिक, मूल्यात्मक और भौतिक वस्तुयें सम्मिलित है। इसके विपरीत सामाजिक परिवर्तनों का सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक अन्तः क्रिया, प्रस्थिति तथा भूमिका और समूहों में होने वाले परिवर्तनों से है। सामाजिक परिवर्तन का क्षेत्र सीमित है।

(2) सामाजिक परिवर्तन मनुष्यों के सुनियोजित प्रयत्न से भी हो सकते हैं और प्राकृतिक तथा अप्रत्यक्ष कारणों से भी, किन्तु सांस्कृतिक परिवर्तन मानवीय चेष्टा और योजना से ही होते हैं।

(3) सामाजिक संरचना और सामाजिक प्रकार्यों में होने वाले परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन हैं। इसके विपरीत विचार, विश्वास, मूल्य, आदर्श आदि संस्कृति के विभिन्न तत्वों में होने वाले परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन कहलाते हैं।

(4) सामाजिक परिवर्तनों की गति सांस्कृतिक परिवर्तनों की अपेक्षा अधिक तीव्र होती है।

 

 

 सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमान

सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक तथ्य है। परिवर्तन सदैव एक ही दिशा में नहीं होता। वह विकास का क्रम भी है और प्रगति की दशा भी। परिवर्तन धीरे-धीरे भी हो सकता है और तीव्र गति से भी। कुछ विद्वान सामाजिक परिवर्तन को रेखीय परिवर्तन के रूप में मान्यता देते हैं। उनके विचार से सम्पूर्ण सामाजिक परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है, चाहे वह प्रगति की ओर हो और चाहे अवनति की ओर यह रेखा विभिन्न अवस्थाओं के क्रम रूप में भी हो सकती है। अन्य विद्वान सामाजिक परिवर्तन को चक्रवत् मानते हैं। परिवर्तन के स्वरूप भी अनेक होते है। सामाजिक परिवर्तन सरलता से जटिलता की ओर रूप में या इसके विपरीत प्रकट हो सकता है। वह प्रगति के रूप में अथवा क्रान्ति के रूप में भी स्पष्ट हो सकता है।

सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमान को सामान्य भाषा में परिवर्तन की दिशा (Direction) जा सकता है। परिवर्तन प्रत्येक समाज में अनिवार्य रूप से होते हैं। इस विषय में विद्वानों की भिन्न-भिन्न राय है। कुछ लोग परिवर्तन को विकास क्रम समझते हैं और प्रगति रिवर्तन का स्वाभाविक प्रतिमान मानते हैं। दूसरे प्रत्येक परितवर्तन को पतन समझते हैं। काम्टे ने सामाजिक परिवर्तन को तीन निश्चित क्रमों के रूप में परिभाषित किया है। अपके विचार से प्रत्येक समाज स्वाभाविक रूप से तीन स्थितियों से गजरता है, पहली आध्यात्मिक, दूसरी भावात्मक और तीसरी प्रत्यक्षात्मक या वैचारिक। सामाजिक परिवर्तन का, काम्टे के विचार से, यही निश्चित क्रम है। स्पेन्सर (Spencer) ने संस्कृति की विशिष्ट शैली को सामाजिक परिवर्तन का प्रतिमान स्वीकार किया है। टाॅफन्बी (Tofynbee) परिवर्तन को सभ्यताओं के विघटन के रूप में व्यक्त करता है। पैरेटो (Pareto) परस्पर निर्भर परिवर्तन चक्रों (Cycles) की व्याख्या करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि परिवर्तन के विभिन्न प्रतिमान विद्वानों ने प्रतिपादित किये हैं, यथा-

(1) प्रगति का प्रतिमान (ProgressPattern)– कुछ विद्वानों के विचार से समाज में होने वाला प्रत्येक परिवर्तन उसे प्रगति की ओर, उत्थान की ओर ले जाता है। वांछित विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और सामाजिक परिवर्तन उसका कारण। बुद्धि, विद्या और विवेक के आधार पर ही समाज के लोग किसी परिवर्तन को स्वीकार करते हैं। अतः सामाजिक जीवन के किसी न किसी क्षेत्र में प्रगति परिवर्तन का अनिवार्य परिणाम है। जंगली जीवन से बढ़कर समाज आज अणु युग में पहुंच गया है।

(2) पतन का प्रतिमान (Regress Pattern)– ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कुछ विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि समाज निरन्तर पतन की ओर जा रहा है। समाज के प्रत्येक अंग से सामाजिक सम्बन्धों में गिरावट आ रही है। भारतीय विचारकों ने भी कहा है कि ‘सतयुग’ सर्वश्रेष्ठ युग था, जिसमें सत्य और मानवीय गुणों का प्रभाव था। सुख और समृद्धि का समय था। त्रेता और द्वापर युग में क्रमशः सामाजिक जीवन में विकास आता गया और आज कलियुग में जीवन के प्रत्येक स्वरूप में पतन हो रहा है। बेईमानी, झूठ, कपट, अधार्मिकता, राजनैतिक प्रपंच, व्यभिचार, अनैतिकता, पारिवारिक संघर्ष, अविश्वास और दुख तथा विपत्तियाँ धीर-धीरे बढ़ती ही जा रही हैं।

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(3) अवस्थाओं का प्रतिमान (Stage Pattern)- काम्टे तथा स्पेन्सर आदि विद्वानों ने सामाजिक परिवर्तन की दिशा को एक निरन्तर प्रवाह की भाँति माना है, जो निश्चित लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ता है और समाज में होने वाला प्रत्येक परिवर्तन इस निश्चित धारा से होकर समाज को वैज्ञानिकता की ओर ले जाता है। स्पेन्सर ने भी समाज को सैनिक अवस्था से औद्योगिक अवस्था की ओर बढ़ता हुआ बताया है। रूसी विद्वान निकाइलेइक मिखाइलोवस्की (Nickalaik Mikhailovsky) ने भी इसी प्रकार सामाजिक परिवर्तन की तीन अवस्थाएँ बताई हैं।

(4) अन्तर्निहित परिवर्तन का प्रतिमान (Immanent Pattern)- यह सिद्धान्त बहुत ही प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों ने माना है, उनके अनुसार मनुष्य की बुद्धि, विवेक या पारश्रम परिवर्तन की दिशा को निर्धारित नहीं करता। सामाजिक या प्राकृतिक शक्तियाँ स्वतन्त्र रूप से कार्य करती हई ऐसी दशायें उत्पन्न करती हैं कि एक निश्चित दिशा में अनिवार्य रूप से परिवर्तन हो जाता है। मार्स, वेब्लन, और वेबर ने क्रमशः आदि औद्योगिक और सांस्कृतिक शक्तियों को सामाजिक परिवर्तन की दिशा में निर्णायक कहा है।

इस सिद्धान्त के अनुसार समाज का परिवर्तन चक्र के रूप में होता है। जिस दिन के बाद रात, गर्मी के बाद सर्दी, शैशव के बाद यौवन आता है, उसी प्रकार – जीवन में भी बचपन, विकास, यौवन, वृद्धावस्था क्रम से आते हैं और अन्तिम अवस्था पहुंच कर एक चक्र पूरा हो जाता है तथा फिर समाज अपनी पहली अवस्था पर है। इस मत का प्रतिपादक ‘स्पेन्गलर’ (Spengler) था। सोरोकिन (Sorokin) ऐतिसाहिक तथ्यों का सहारा लेकर सभ्यता के विकास के तीन चरण बताये हैं। पहले में सामाजिक जीवन विचारात्मक (Ideational) होता है, जिसमें भगवान और देवी-देवता से मानव-जीवन प्रभावित रहता है। इसके पश्चात् आदर्श प्रधान जीवन आता है कि भावना और यथार्थ का मिश्रण हो जाता है। अन्तिम चरण ‘इन्द्रियात्मक’ (Sonate) है, जिसमें सारा सामाजिक जीवन इन्द्रियों और भौतिकवादी विचारों से प्रभावित होता है। इस प्रकार एक चक्र समाप्त होकर प्रत्येक समाज फिर विचारात्मक (Ideational) अवस्था में आ जाता है और फिर वही क्रम चलता है। ‘टायनी’ ने भी इसी प्रकार सामाजिक जीवन के जन्म, विकास और अंत का चक्र सामाजिक परिवर्तन की निश्चित दिशा के रूप समझाया है।

उपरोक्त सिद्धान्तों के अनुसार किसी विशेष परिणाम पर पहुंचना कठिन है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन निरन्तर होने वाली घटना है, जिसकी दिशा सदैव निश्चत नहीं होती। यह तो किसी भी दिशा में परिवर्तन है। समाज यदि शक्तिशाली है तो परिवर्तन को अपने अनुकूल बनाकर उसका निश्चित दिशा में प्रयोग कर सकता है।

 

 

सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप

 

सामाजिक परिवर्तन की दिशा पर विचार करने के बाद उसके भिन्न-भिन्न स्वरूपों को समझना कठिन नहीं रहता। सामाजिक परिवर्तन जैसा कि पहले कहा जा चुका है एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।

सामाजिक प्रक्रिया (SocialProcess)- सामाजिक परिवर्तन निरन्तर चलता है। जो परिवर्तन चलता रहे, रुके नहीं, सामाजिक प्रक्रिया कहलाती है । सामाजिक प्रक्रिया में ‘समय’ बड़ा महत्त्वपूर्ण तत्व है, एक समय में जो वस्तु जैसी है दूसरे समय में वह वैसी नहीं है, यह परिवर्तन है, किन्तु यदि दूसरे समय में उस वस्तु का अस्तित्व ही न रहे अर्थात् परिवर्तन से वह वस्तु ही समाप्त हो जाये, तो यह परिवर्तन नहीं बल्कि नाश हो गया। दूसरे समय, तीसरे समय हर बार जब वह वस्तु पहली जैसी न रहे किन्तु समाप्त न हो यह परिवर्तन की निरन्तरता (Continuity) है। कोई परिवर्तन प्रक्रिया तभी कहलाता है, जब लगातार होता रहे।

प्रक्रिया का दूसरा गुण है निश्चितता, वही परिवर्तन प्रक्रिया है जो हर बार नये परिवर्तन को निश्चित करता है. इस प्रकार प्रक्रिया के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं – (1) वस्तु अथवा घटना, (2) समय, (3) अंतर अथवा परिवर्तन, (4) निरन्तरता और (5) परिवर्तन को निश्चित करने वाली शक्ति ।

उपरोक्त पांचों तत्वों के होने से ही कोई परिवर्तन प्रक्रिया कहलाता है। अतः किसी सामाजिक तथ्य में वर्तमान शक्तियों के सहयोग से समय के साथ निरन्तर परिवर्तन होते रहना सामाजिक प्रक्रिया कही जा सकती है। इस प्रकार समाज का प्रत्येक रूप किसी सामाजिक प्रक्रिया का परिणाम है।

 

 

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