सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारक

सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारक | Factors of Social Change in Hindi

सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारकों पर प्रकाश

 

विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक परिवर्तन के लिए विभिन्न कारकों को उत्तरदायी बताया है। मार्क्स ने आर्थिक कारकों को, काॅम्टे ने बौद्धिक विकास को, स्पेन्सर ने विभेदीकरण की सार्वभौमिक प्रक्रिया को, मैक्स वेबर ने धर्म को, सोरोकिन ने संस्कृति को, आगर्बन ने सांस्कृतिक पिछड़ेपन या विलम्बन को सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी माना है। सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी मूल कारक हैं-

1. प्राकृतिक या भौगोलिक कारक,

2. जैविकीय या प्राणिशास्त्रीय कारक,

3. जनसंख्यात्मक कारक,

4. प्रौद्योगिकीय कारक,

5. मनोवैज्ञानिक कारक,

6. राजनीतिक एवं सैनिक कारक,

7. सांस्कृतिक कारक,

8. आर्थिक कारक,

9. वैचारिक कारक एवं

10. महापुरुषों की भूमिका।

 

 

सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों से आप क्या समझते हैं?

 मोटे तौर पर जनसंख्यात्मक कारक से अभिप्राय जनसंख्या के आकार और घनत्व में वृद्धि तथा ह्रास से है। जनसंख्यात्मक कारकों के अन्तर्गत जनसंख्या के गुणात्मक पक्षों का अध्ययन न करके, उसके सांख्यिकीय पक्षों (जन्म दर, मृत्यु दर, स्त्री-पुरुषों का आयु का अनुपात, आवास की दर, आदि) का अध्ययन किया जाता है। जनसंख्यात्मक कारक यथा – जनसंख्या की रचना, गठन, वितरण, जन्म एवं मृत्यु दर, देशान्तरण, जनसंख्या का वृद्धि तथा ह्रास, जनसंख्या में होने वाले परिवर्तनों तथा उनके प्रभावों, आदि का अध्ययन करने वाला विज्ञान ‘जनांकिकी (Demography) कहलाता है। जनसंख्यात्मक कारक सामाजिक-सांस्कृतिक तथ्यों को प्रभावित करते हैं और स्वयं भी उनसे प्रभावित होते हैं।

जनसंख्या का आकार, जनसंख्या की गतिशीलता, जनसंख्या की रचना, जन्म व मृत्यु-दर, आदि का प्रभाव सामाजिक परिवर्तन लाने में सहायक है। भारतीय समाज के संदर्भ में इन सबकी विवेचना निम्नानुसार की जा सकती है –

  1. अति जनसंख्या का प्रभाव – अति जनसंख्या का तात्पर्य उस स्थिति से है, जब देश में खाद्यान्न का अभाव है तथा आबादी तीव्र गति से बढ़ रही है। अति जनसंख्या से समाज की संरचना में विभिन्न परिवर्तन होते हैं। समाज में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी बढ़ती है। जनता का रहन-सहन का स्तर और स्वास्थ्य गिरता है। व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है।
  2. जन्म-दर तथा मृत्यु-दर का प्रभाव – यदि देश में जन्म-दर घटती है और मृत्यु-दर बढ़ती है, तो उसकी जनसंख्या कम हो जाती है। फलस्वरूप उसमें कार्यशील व्यक्ति की कमी होती है, जिससे देश की आर्थिक स्थिति गिर जाती है। यदि किसी देश या समाज की मृत्यु-दर कम हो रही है तथा जन्मदर बढ़ रही है, तो वह अति जनसंख्या का शिकार हो जाएगा। इस स्थिति में देश का आर्थिक एवं औद्योगिक विकास होगा तथा उसके निवासियों का जीवन स्तर भी ऊँचा होगा। जन्म दर बढ़ने से समाज में विलम्ब विवाह, गर्भ निरोध, गर्भपात, शिशु हत्या, आदि बढ़ते हैं। यदि जन्म-दर कम होती है, तो समाज में ऐसी प्रथाएँ एवं जनरीतियाँ विकसित होती हैं, जिनसे जनसंख्या में वृद्धि हो। स्पष्ट है कि जन्म और मृत्यु दर दोनों ही विभिन्न प्रकार से सामाजिक परिवर्तन में अपना योगदान देती है।
  3. जनसंख्या की बनावट का प्रभाव – जनसंख्या की बनावट या रचना में  व्यक्तियों की आयु, लिंग, वैवाहिक स्तर, बच्चों तथा युवाओं का अनुपात, स्त्रियों-पुरुषों का संख्या, आदि को सम्मिलित करते हैं। इनका सामाजिक संगठन व स्वरूप पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि किसी समाज में बच्चों तथा वृद्धों की संख्या अधिक होगी, तो उस देश में  युवाओं के अभाव के कारण आर्थिक उत्पादन अधिक नहीं हो पाएगा। यदि समाज में स्त्रियों की संख्या  पुरुषों के अनुपात से अधिक होगी, तो वहाँ बहुपत्नी प्रथा और वर-मूल्य प्रथा बढेगी। यदि समाज में पुरुषों की संख्या अधिक होगी, तो बहुपति प्रथा एवं वधू-मूल्य प्रथा का प्रचलन होगा। इस प्रकार जनसंख्या की बनावट भी समाज के सामाजिक, राजनीतिक, पतिक एवं आर्थिक जीवन को प्रभावित करती है।
  1. आप्रवास/देशगमन एवं उत्प्रवास/देशान्तरगमन का प्रभाव – देशागमन या प्रवास (Immigration) का तात्पर्य दूसरे देशों से लोगों को आना और देशान्तरगमन या उत्पवास (Emigration) का अर्थ देश के लोगों का अन्य देशों में जाना है। इन दोनों ही स्थितियों में समाज में विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक परिवर्तन होते हैं। जनसंख्या की बनावट में परिवर्तन होता है तथा समाज में होने वाले समस्त परिवर्तन इससे सम्बन्धित होते हैं। भारत में विभाजन के उपरान्त लाखों की संख्या में शरणार्थी पाकिस्तान से आकर बस गए। फलस्वरूप भारतीयों की सांस्कृतिक विशेषताएँ परिवर्तित हो गई। यूरोप, अफ्रीका और एशिया से अमेरिका में पढ़ने अथवा रोजगार की अच्छी सम्भावनाओं को देखकर प्रतिवर्ष  लोग वहाँ आते हैं और फिर वहीं बस जाते हैं।

 

 

सामाजिक परिवर्तन के धार्मिक कारकों की विवेचना कीजिए।

 धर्म एक प्रकार का विश्वास है, जो लोगों को एक अलौकिक शक्ति से बांधे रखता है। इसकी मूल अवधारणा को आत्म कल्याण की शक्ति के स्पष्ट दर्शन होते हैं। सामाजिक परिवर्तन के एक कारक के रूप में धर्म का एक विशिष्ट स्थान है। भारत एक धर्मप्रधान देश है और विभिन्न धर्मों की एक अनोखी रंगभूमि भी। इसी कारण यहाँ धर्म ने सामाजिक परिवर्तन लाने में योगदान दिया है। वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय प्रगति, औद्योगीकरण तथा शहरीकरण, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, सरकारी कानून, धार्मिक आन्दोलन, आदि कारकों के प्रभाव से धार्मिक संस्थाओं में कई परिवर्तन देखे जाते हैं। इन परिवर्तनों से फलस्वरूप सामाजिक जीवन में निम्नलिखित परिवर्तन आए हैं

  1. स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन – स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व सती प्रथा, पर्दा प्रथा, विधवा पुनर्विवाह पर रोक, दहेज प्रथा, आदि कुरीतियों के कारण भारत में स्त्रियों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। इन सभी कुरीतियों में से अधिकांश को धर्म का समर्थन प्राप्त था। आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन जैसी धार्मिक संस्थाओं तथा उनसे सम्बद्ध धर्म सुधारकों ने स्त्रियों से सम्बद्ध इन कुरीतियों का उन्मूलन करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए। आर्य समाज ने वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया। आर्य समाज के मन्दिरों में अन्तर्जातीय और विधवा पुनर्विवाह कराए गये। इन संस्थाओं ने स्त्री-शिक्षा पर बल दिया, जिससे स्त्रियों को अपनी दुरावस्था को दूर करने में सहायता मिली। आज स्त्री को ‘चरणदासी’ नहीं, वरन् ‘गृहस्वामिनी’ और ‘गृहलक्ष्मी’ माना जाता है।
  2. अछूतों की स्थिति में परिवर्तन – भारत में धार्मिक कट्टरता दूर करने में समाज तथा धर्म सुधार आन्दोलन का उल्लेखनीय योगदान है। धार्मिक कट्टरता के कम होने के कारण अतीत में जिनको ‘अस्पृश्य’, ‘अन्त्यज’, ‘हरिजन’ माना जाता था, उन्हें अब न वैसा नहीं माना जाता। अछूतों की सभी धार्मिक निर्योग्यताओं को दूर कर दिया गया है। उन्हें पूजा-पाठ तथा मन्दिरों/देवालयों में प्रवेश के अधिकार प्रदान कर दिये गये हैं। आज अछूत भी धार्मिक क्रियाकलापों में भाग लेते हैं। दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी, डा0 भीमराव अम्बेडकर आदि ने अस्पृश्यता का अन्त करने में महत्वपूर्ण साव भूमिका का निर्वाह किया।
  1. धर्म द्वारा धर्म में परिवर्तन – परम्परागत भारतीय धर्म की मुख्य विशेष है – धार्मिक कट्टरता, धार्मिक कर्मकाण्डों की जटिलता और मूर्ति की पूजा। अतः आन्दोलनों के प्रवर्तकों द्वारा सर्वप्रथम इन्हीं विशेषताओं को बदलने का प्रयास किया गया। आर्य समाज और ब्रह्म समाज ने मूर्ति पूजा का निषेध किया । धार्मिक कर्मकाण्डों में अविश्वास जागृत किया। अछूतों को हरि का जन बताकर उनके प्रति कट्टरता की भावना को करने का प्रयास किया। इस संदर्भ में ‘सर्व धर्म समभाव’ और ‘सभी धर्म समान हैं। परिवर्तन वर्तमान समय की सर्वश्रेष्ठ धार्मिक उपलब्धि मानी जाती है, क्योंकि इसी से माना के धर्म तथा धर्मनिरपेक्षता के विचार को विकसित होने में सहायता प्राप्त हुई है।
  2. शैक्षिक क्षेत्र में परिवर्तन – भारत में धार्मिक आन्दोलनों के कारण शिक्षा के क्षेत्र में भी कई उल्लेखनीय परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए। आर्य समाज व रामकृष्ण मिशन जैसी धार्मिक संस्थाएँ इस क्षेत्र में विशेष सराहनीय सिद्ध हुई। इन्होंने अविद्या का नाश और विद्या का विस्तार करने के लिए भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विद्यालयों, कॉलेजों एवं महाविद्यालयों को स्थापित किया। इनमें भावी पीढ़ी को अच्छे तरीके से शिक्षित करने की व्यवस्था की गई। है। इन संस्थाओं द्वारा लड़कियों के लिए भी अनेक स्कूल, कॉलेज स्थापित किए गए हैं। इन धार्मिक संस्थाओं में स्त्री-शिक्षा की विशेष व्यवस्था करके परम्परागत रूप से सर्वथा उपेक्षित स्त्रियों की स्थिति को अच्छी दिशा में परिवर्तित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।
  3. सामाजिक कुरीतियों में परिवर्तन – आर्य समाज नामक धार्मिक संस्था ने जन्म पर आधारित जाति-पांति सम्बन्धी भेदभाव, दहेज प्रथा, बाल विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह का निषेध आदि सामाजिक बराइयों की खुलकर भर्त्सना की तथा उन्हें समाप्त करने का प्रयास भी किया। स्वामी विवेकानन्द जाति-पांति के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव और छुआछूत के बड़े निन्दक थे। उनका कहना था कि इससे भारतीय समाज कमजोर हुआ है। उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा, आदि कुरीतियों का विरोध किया। इन सभी प्रयासों के कारण सामाजिक करीतियों की विकराल ज्वाला काफी कुछ शान्त हुई। धार्मिक संस्थाओं द्वारा स्थापित अनाथालयों, विधवाश्रमों तथा अस्पतालों में अनगिनत दुखियों, निराश्रितों को सहारा मिला है।
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सामाजिक परिवर्तन में सहायक सूचना प्रौद्योगिकीय एवं जनसंचारात्मक कारकों पर प्रकाश

 

सामाजिक परिवर्तन में सहायक जनसंचार माध्यम

सांस्कृतिक गतिविधियों को गतिशील तथा सामाजिक परिवर्तन लाने में जनसंचार प्रारम्भ से ही सक्रिय कारक रहा है। वर्तमान समय में जनसंचार साधनों का विकास जैसे-जैसे हो रहा है, समाज की संस्कृति में परिवर्तन दिखाई पड़ रहे हैं। विगत दो दशकों में सूचना प्रौद्योगिकी (Info-tech) के क्षेत्र में हुए विकास के कारण ही जनसंचार (Media) के प्रभावशाली तथा गतिशील साधन भी विकसित हुए। अतः इनका प्रभाव भारतीय समाज की संस्कृति पर स्वाभाविक रूप से पड़ा है। समकालीन भारत में दूरदराज के इलाकों के निवासी ग्रामीण तथा आदिवासी लोग इन साधनों से वंचित नहीं हैं। वर्तमान समय में हम लोग सूचना-क्रान्ति के युग में रह रहे हैं। आज दूरसंचार, दूरदर्शन और कम्प्यूटर तीनों एक साथ जुड़ चुके हैं। सूचना की नवीन प्रौद्योगिकी में जनमानस के जीवन के विविध पक्षों को बदल देने की क्षमता विद्यमान है। आजकल सूचना प्रसारण का कार्य जनसंचार (Media) द्वारा सम्पन्न किया जाता है।

वर्तमान समय में विज्ञान नई-नई उपलब्धियाँ प्रदान कर रहा है। इसी कड़ी में ‘सचना प्रौद्योगिकी का आविष्कार है। सारे संसार में इसका विस्तार एक महान क्रान्ति के रूप में रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी के अंग के रूप में उपग्रह, कम्प्यूटर तथा दूरसंचार के क्षेत्र में अकल्पनीय परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। जनसंचार सांस्कृतिक गतिविधियों को ‘गतिशीलता देने और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन लाने में प्रारम्भ से ही सक्रिय रहा है। ‘जनसंचार साधनों के विकास के साथ-साथ समाजों की संस्कृतियों भी परिवर्तित हो रही है। वर्तमान समय में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुए क्रान्तिकारी विकास के कारण जनसंचार के गतिशील तथा प्रभावशाली साधन विकसित हुए हैं। अतः उनका प्रभाव समाजों की संस्कृति पर पड़ना अस्वाभाविक नहीं है।

समकालीन भारत में सूचना प्रौद्योगिकी से नगरों, महानगरों के साथ-साथ कस्बों, ग्रामीण क्षेत्रों तथा दूर-दराज के बीहड़ क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी भी इन साधनों से लाभान्वित हो रहे। भारत के कोने-कोने में जनसंचार साधनों का घना जाल बिछता जा रहा है। दूरसंचार, दूरदर्शन और कम्प्यूटर तीनों एक साथ जुड़ गये हैं। इस नवीन प्रौद्योगिकी में जन साधारण के जीवन के विभिन्न पक्षों को बदलने की क्षमता पाई जाती है। कहने का अभिप्राय है कि वर्तमान समय में हम सूचना क्रान्ति के रूप में रह रहे हैं। जनसंचार द्वारा विश्व भर में सूचना प्रसारित की जाती है।

वर्तमान युग में जनसंचार में अन्तर करना व्यर्थ है, क्योंकि केन्द्राभिमुखता के इस नए दौर में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुए क्रान्तिकारी विकास के फलस्वरूप रेडियो, टेलीविजन, इन्टरनेट, टेलीफोन तथ मोबाइल की दूरी को इतना कम कर दिया है कि सूचना प्रसारण के ये माध्यम अब एक दूसरे के बिना अधूरे-से प्रतीत होते हैं, किन्तु सूचना व संचार प्रौद्योगिकी की यह अभिन्नता एक चिन्ता का विषय हो गई है। जैसे-जैसे जनसंचार व दूरसंचार के क्षेत्र में कन्वर्जेन्स (केन्द्राभिमुखता) हो रहा है यानी सूचना प्रौद्योगिकी के कारण दूरी कम हो रही है, संसार के लोगों के मध्य खाई बढ़ती जा रही है। एक ओर वे लोग है, जिनके पास संचार के समस्त साधन हैं और दूसरी ओर वे लोग हैं, जिनके पास संचार के न्यूनतम साधन भी नहीं हैं। इसे ‘डिजिटल डिवाइड’ की स्थिति कहा जाता है।

 इस प्रकार की डिजिटल डिवाइड (अंकीय विषमताओं) को दूर करने तथा संसार में गरीबी का उन्मूलन करने एवं विकास चक्र को तेज गति से चलाने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्गत सूचना व्यवस्था के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों को आयोजित किया जा रहा है। दिल्ली में यूनेस्को ने विकास संचार एवं सचनाओं और संचार प्रौद्योगिकी पर मानस-मंथन के अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन करके अन्य मुद्दों के अतिरिक्त गरीबी के उन्मूलन में विकास संचार की भूमिका, सामाजिक सहभागिता, पारदर्शी तथा जवाबदेश विकेन्द्रीकरण, स्वास्थ्य तथा पर्यावरण हेतु नई सूचना तथा प्रौद्योगिकीय के प्रयोग किया। जिन नई प्रौद्योगिकियों को भविष्य हेतु महत्वपूर्ण माना गया, उनमें सस्ते टेलीफोन एवं सामुदायिक रेडियो प्रमुख साधन थे। कम लागत वाले टेलीफोन कनेक्शन और ‘कम्प्यूटरों के बगैर सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित जनसंचार सम्भव है, चाहे वह रोजगार, पर्यावरण, आदि की जानकारियाँ हों अथवा ई-शिक्षा, ई-वाणिज्य तथा ई-प्रसासन है।

 

 

सूचना, जनसंचार व सांस्कृतिक परिवर्तन

जनसंचार का संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा है। भारतीय संस्कृति के विभिन्न पर जनसंचार का विस्तृत तथा व्यापक प्रभाव दिखाई दे रहा है। परम्परागत सांस्कृतिक मूल्य तथा मान्यताएँ तेजी से परिवर्तित हो रही है। संस्कृति के भौतिक व अभौतिक पक्षों में भी परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। वर्तमान समय में जनसंचार द्वारा महत्वपूर्ण सांस्कृतिक बदलाव आए हैं और हो रहे हैं। विकास एवं परिवर्तन के संदर्भ में सूचना एवं अत्यन्त आवश्यक घटक है। जनसंचार द्वारा नवीन विचारों का प्रसारण परिवर्तन हेतु उपयुक्त वातावरण बनाता है। सूचना व्यक्तियों के मानसिक ज्ञान की सीमा को विस्तृत करता है, उन्हें ऊंचा उठने की प्रेरणा देता है।

प्रेस, समाचार पत्र, पत्रिकाओं को छाप करके जन-जन तक प्रेषित करता है। समाचार पत्र में सारे संसार की मुख्य दैनिक घटनाएँ मुद्रित होती हैं। वर्तमान समय में समाचार पत्र दैनिक जीवन के आवश्यक अंग बन गये हैं। समाचार पत्र अब महानगरों, शहरों, कस्बों एवं गाँवों तक में जनप्रिय हो गये हैं। होटल, रेस्टोरेन्ट, चाय की दुकानों, सैलूनों, ढाबों आदि में समाचार पत्र की एक प्रति को कई लोग पढ़ते देखे जाते हैं। समाचार पत्रों को प्रजातंत्र का सजग एवं सशख्त प्रहरी माना जाता है। समाचार पत्र सरकार की छवि बनाते हैं, गलती होने पर उसे बिगाड़ भी देते हैं। समाचार पत्र के माध्यम से लोग अपनी इच्छा, विरोध और आलोचना प्रकट करते हैं। समाचार पत्रजनमत को वाणी प्रदान करते है, वे जनमत भी तैयार करते हैं। टेलीविजन की सामाजिक सूचना के प्रसारण तथा मनोरंजन का कारगर स्रोत बन गया है। स्पष्ट है कि जनसंचार की तेजी से बढ़ती हुई लोकप्रियता भारतीयों के जीवन में नये-नये परिवर्तन ला रही है।

प्रेस, टेलीविजन एवं रेडियो भ्रष्ट-तंत्र के विरुद्ध आवाज उठाते हैं। वे सृजनात्मक कार्य भी कर रहे हैं। मानव अधिकार, मद्य निषेध, पर्यावरण प्रदूषण, परिवार नियोजन, कल्याण, सूखा, बाढ़, अकाल, भुखमरी, भूकम्प, आदि के क्षेत्र में समाज को जागृत करते हुए कल्याणकारी कार्य करते हैं। भारतीय समाज में युग-युग से उपेक्षित जातियों/वर्गों के लोगों को अपने खोए हुए जो अधिकार प्राप्त हुए हैं, उनका मुख्य श्रेय वास्तव में, जनसंचार साधनों को ही दिया जाता है। संचार ने ही भारतीय महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार एवं दर्जा दिलाया है। समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ मनोरंजन की दृष्टि से उपयोगी है। उनमें नई-नई किस्से-कहानियाँ, कविताएं, देशाटन एवं भ्रमण, महापुरुषों की जीवनियाँ एवं संस्मरण तथा बालोपयोगी साहित्य प्रकाशित होता है। दूरदर्शन से फीचर फिल्में, हास्य-व्यंग्य के सीरियल खेलों, ज्ञानोपयोगी चर्चाएँ/ऐतिहासिक तथा भौगोलिक ज्ञान प्राप्त होता है।

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सूचना माध्यमों के विस्तार के कारण विभिन्न सांस्कृतिक चुनौतियाँ भी प्रकट हुई हैं। वर्तमान समय में संचार के विभिन्न माध्यमों से सांस्कृतिक बदलाव शुरू हो रहा है। गाँवों में एक नए मध्यम वर्ग का उदय हुआ है, जिसने राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति प्रस्तुत की है। इसी प्रकार पिछड़े वर्ग के लोगों में एक नए प्रकार की मा उत्पन्न हुई है। लोकतत्र में संख्या बल के महत्व को जानकर उन्होंने अपना एक पृथक वोट बैंक बनाया है। इसी प्रकार दलित वर्गों के लोगों ने भी अपनी अस्मिता की सुरक्षार्थ कमर कस ली है। नगरीय समाज में उच्च शिक्षित मध्यम वर्ग का उदय हुआ है, कौशल तथा योग्यता को प्रदर्शित करने की महत्वाकांक्षा से युक्त है।

जनसंचार के माध्यमों/साधनों ने समाज के विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में संस्कृति आदान-प्रदान की प्रक्रिया को तीव्र गति प्रदान की है। संचार माध्यमों की दुनिया के विभिन्न देशों में संस्कृति के प्रतिमानों को सरलतापूर्वक एक दूसरे से गृहण किया जा रहा है, किन्तु सांस्कृतिक आदान-प्रदान में आई तेजी के बाद भी भारतीयों ने अपनी सांस्कृतिक पहचान और अस्मिता को बचाए रखा है। उनमें अपने सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति आज भी अभिरुचि कायम है। जनसंचार साधनों ने भारत के सांस्कृतिक वैभव तथा लोक परम्पराओं को और भी अधिक उभार दिया है।

सूचना प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप समकालीन समाज में अनेक सामाजिक परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं। कृषि क्षेत्र एवं ग्रामीण परिवेश, धार्मिक क्षेत्र, सांस्कृतिक क्षेत्र, शिक्षा, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं, और हो रहे हैं। ज्ञान का प्रसार बढ़ा है, लोगों में सामाजिक जागरूकता बढ़ी है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण ग्रहण किया जा रहा है, आदि।

 

 

सामाजिक परिवर्तन के सामाजिक-आर्थिक और औद्योगिक संगठन पर पड़ने वाले प्रभाव

प्राचीन भारत में सामाजिक संगठन का मूलाधार जाति व्यवस्था थी। किन्तु कलान्तर में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ने जाति व्यवस्था में बदलाव करके सामाजिक संगठन को निम्नलिखित तरीके से प्रभावित किया है –

  1. औद्योगीकरण का तीव्र विकास – हमारे देश में औद्योगीकरण के विकास के परिणामस्वरूप औद्योगिक क्षेत्रों में ज्यादा बदलाव हुआ है । पूर्व में भारत में केवल कृषि ही मुख्य उद्यम था, किन्तु वर्तमान में उद्योग-धन्धों का विकास हो जाने से जीविकोपार्जन के अनेकों साधन उपलब्ध हुए हैं। दूसरी ओर संयंत्रों के प्रयोग होने से बेरोजगारी में वृद्धि हुई है। औद्योगिक क्षेत्रों में परिवर्तन के परिणामस्वरूप भारतीय सामाजिक संगठनों में भी विभिन्न महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं । भारतीय समाज के प्रमुख स्तम्भ जाति व्यवस्था, संयुक्त परिवार प्रणाली व ग्रामीण समाज में अत्यधिक बदलाव हुए हैं । वर्तमान समय में ग्रामीण जीवन रूढ़िवादी, परंपरावादी, अंधविश्वासी नहीं रहा है । इन पर नगरीकरण का स्पष्ट प्रभाव पड़ा है । जातीय दूरियों में कमी आई है तथा ग्रामीण समाज में जाति एवं व्यवसाय का पारंपरिक संबंध खंडित हुआ है तथा संयुक्त परिवारों का स्थान एकाकी परिवारों ने ग्रहण कर लिया है । संयुक्त परिवारों की परंपरागत संरचना एवं कार्यों में अति विशिष्ट बदलाव हुए हैं।
  1. उद्योग-धंधों का विकास – उद्योग धंधों का विकास औद्योगीकरण के पारणामस्वरूप हआ इसके विकास के कारण आर्थिक आधार पर संगठनों का निर्माण हुआ इसक निर्मित होने से जातीय भेदभाव में कमी आई है । कुछ विद्वानों का कथन है कि भारत में जाति व्यवस्था वर्ग व्यवस्था में बदलने लगी है। व्यवसायों के आधार पर वर्ग संगठनों का विकास हो रहा है। श्रमिक संघों ने श्रमिकों व कर्मचारियों के हितों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण योगदान किया है ।
  1. जजमानी व्यवस्था का अंत – औद्योगीकरण, वैश्वीकरण, वैश्वीकरण, लौकिकीकरण के फलस्वरूप भारत में उद्योग-धंधों का अधिक विकास हुआ इसके विकसित जातियों में सेवाओं की अदला बदली पर आधारित जजमानी प्रथा का खात्मा नगरों में यह लगभग बिल्कुल समाप्त सी हो गई है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में डर न के बराबर है।
  2. आर्थिक आधार पर सामाजिक वर्गों का निर्माण – वर्तमान समय देश में आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप आर्थिक आधारों पर सामाजिक वर्गों के रहा है । उदाहरणार्थ – मध्यम वर्ग, श्रमिक वर्ग, पूँजीपति वर्ग व बुद्धिजीवी वर्ग आदि। वर्ग निर्मित होने के साथ-साथ संघवाद की भावना का विकास भारतीय समाज में दिखाई तथा हर एक वर्ग अपने हितों की रक्षार्थ अधिक सजग हो गया है । इसलिए कुछ कि कथन है कि भारतीय समाज में स्तरीकरण का दौर जाति से वर्ग व्यवस्था में रूपांत रहा है । अब नियोजित सामाजिक परिवर्तन को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है।
  3. समान मौलिक अधिकारों की प्राप्ति – सरकार ने समाज के कमजोर, दलि पिछड़ी व अनुसूचित जातियों की सुविधाओं में वृद्धि की है । उन पर लगाई गई प्रत्येक प्रकार की सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक निर्योग्यताओं को खत्म करके सामाजिक प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया गया है । वर्तमान में वैवाहिक, व्यावसायिक व सामाजिक सहवास संबंधी प्रतिबन्धों में न्यूनता परिलक्षित होती है । इस संबंध में सरकार ने प्रत्येक को समान मौलिक अधिकारों को देकर अस्पृश्यता को खत्म करने में सहयोग किया है।
  4. जातीय पंचायतों का महत्व – वर्तमान समय में जातीय पंचायतों का महत्व करीब-करीब खत्म सा हो रहा है । इनका स्थान वैधानिक पंचायतों ने ले लिया है। इन पंचायतों ने ग्रामीण जनता के सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका को निर्वहन कर रही है। कमजोर महिलाओं, जनजातियों, अनुसूचित जातियों के सदस्यों को सरकार ने आरक्षण देकर पहले की अपेक्षा अब ज्यादा सख्त किया है ।।
  5. जाति प्रथा में परिवर्तन – औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप अब मशीनों पर कार्य करने के कारण खान-पान, छुआछूत आदि के नियम कमजोर हो गये हैं जातीय दूरी में निकटता आयी है | आवागमन के साधनों के विकास से जनसंपर्क बढ़ा है तथा संस्कृतियों का विनिमय हुआ है । इससे जातिप्रथा के बंधनों में शिथिलता आई है । हमारी सरकार ने विवाह विच्छेद, विवाह व बाल विवाह संबंधी अधिनियमों को पारित करके जाति प्रथा में व्यापक परिवर्तन किये हैं।
  6. अन्य परिवर्तन – उपरोक्त के अतिरिक्त कुछ अन्य परिवर्तन भी उल्लेखनीय हैं – 1. परिवार तथा विवाह संस्था में परिवर्तन, 2. महिलाओं की स्थिति में उन्नति, 3. जाति एवं वर्गों में परिवर्तन, 4. धार्मिक सहिष्णुता की भावना का विकास, 5. जीवन-स्तर में वृद्धि, 6. औद्योगीकरण तथा शहरीकरण की प्रक्रिया से उत्पन्न विघटन एवं विचलन, 7. निम्न एवं अछूत जातियों की स्थिति में सुधार, 8. शिक्षा की गुणात्मक वृद्धि, 9. सामाजिक कुरीतियों के प्रति जागरूकता की उत्पत्ति, आदि।

 

 

 

इन्हें भी देखें-

 

 

 

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