Samrat Ashok ko mahan kyu kaha jata hai

सम्राट अशोक को महान क्यों कहा जाता है?

इस पोस्ट में हमने अशोक का इतिहास में क्या महत्व है?, अशोक के धम्म की मुख्य विशेषताएं क्या थी?, सम्राट अशोक के कल्याणकारी कार्य, मौर्यकाल में सामाजिक, आर्थिक, सभ्यता और संस्कृति के बारे में, मौर्यवंश का पतन कैसे हुआ। सम्राट अशोक का हृदय परिवर्तन कैसे हुआ, सम्राट अशोक का कलिंग युद्ध, अशोक महान की जीवनी, अशोक चक्र, अशोक सतम्भ आदि विषयों पर चर्चा करेगें।

Table of Contents

सम्राट अशोक का परिचय

अशोक बिन्दुसार का पुत्र और चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र था। अपने उन्नत धार्मिक विचार, सुसंगठित शासन-प्रबन्ध, विशाल साम्राज्य की सुरक्षा, मानव समाज के हित, मानव की विराट चेष्टा आदि के कारण वह न केवल भारत के वरन् विश्व के महान् सम्राटों में अद्वितीय स्थान रखता है। वह 273 ई० पू० में गद्दी पर बैठा परन्तु उसका राज्याभिषेक 269 ई० पू० में हुआ।

सिंहली परम्पराओं के अनुसार अशोक अपने पिता के देहावसान के चार वर्ष उपरान्त सिंहासनारुढ़ हुआ। कुछ विद्वानों का कहना है कि चार वर्ष के इस काल में अशोक को राजसिंहासन के लिए अपने भाइयों के साथ एक अत्यन्त भयानक एवं अनवरत उत्तराधिकार की लड़ाई लड़नी पड़ी जिसमें उसके भाई सुसीम की पराजय और हत्या हुई। सिंहली बौद्ध लेखकों के अनुसार अशोक ने राज्य के लोभ में अपने 99 भाइयों को मरवा डाला था। परन्तु इस वृत्तान्त की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं किया जा सकता। राज्य सिंहासन पर बैठने के बाद अशोक ने ‘देवानाम् प्रिय’ और “प्रियदर्शी’ की उपाधि धारण की।

कलिंग-विजय (261 ई० पू०)-

अपने शासन-काल के प्रारम्भिक काल में अशोक ने अपने पूर्वजों की साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। अपने राज्याभिषेक के आठ वर्ष के उपरान्त (261 ई० पू०) उसने कलिंग राज्य पर आक्रमण कर दिया और उसे युद्ध में परास्त कर अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया । अशोक के तेरहवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि कलिंग युद्ध में एक लाख व्यक्ति हताहत हुए थे और डेढ़ लाख बन्दी बनाये गये थे। युद्ध की भीषणता एवं रौद्र संहार का अशोक के कोमल हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा।

कलिंग युद्ध का परिणाम-

इस युद्ध के भीषण हत्याकांड के पश्चात् अशोक ने यह घोषणा की ‘अब भेरीघोष के स्थान पर धर्मघोष की गूंज सुनाई देगी और दिग्विजय के स्थान पर धर्म-विजय का प्रयत्न किया जायेगा।’

अशोक का साम्राज्य-

विजय के कारण अशोक के साम्राज्य की सीमा बंगाल की खाड़ी तक फैल गई। नेपाल तथा कश्मीर उसके अधीन थे। दक्षिण में अशोक का साम्राज्य पन्नार नदी तक फैला था।

शासन-प्रबन्ध-

अशोक की शासन-प्रणाली ठीक उसी प्रकार की थी जिस प्रकार की प्रणाली चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में प्रचलित थी। उसका विस्तृत साम्राज्य प्रान्तों (विषयों) में विभक्त था जिसका प्रबन्ध. कुमारामात्य करते थे। जनता के हित के लिए उसने महामात्र नामक नये कर्मचारी वर्ग की नियुक्ति की।

प्रान्तों में दण्डसमता एवं व्यवहारसमता स्थापित करने के लिए अशोक ने न्याय-कार्य राजुकों को सौंप दिया। अशोक अपने पूर्वजों की भाँति अपने मन्त्रियों के परामर्श से देश का शासन चलाता था। मन्त्रि परिषद् के अतिरिक्त अन्य अनेक उच्च कर्मचारियों का उल्लेख भी शिलालेखों में मिलता है।

वैदेशिक सम्बन्ध-

सुदूर दक्षिण में स्थित चार स्वाधीन राज्यों के साथ अशोक ने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। ये राज्य चोल, पांड्य, सत्यपुत्र, केरलपुत्र थे । सीरिया, मिस्र, मकदूनिया और एपिरस के यूनानी शासकों के साथ भी उसने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखा। लंकाद्वीप एवं सुवर्ण भूमि (बर्मा) के साथ भी उसकी मैत्री थी।

अशोक की धम्म विजय से क्या तात्पर्य है? उसके द्वारा देश एवं विदेश में धर्म-प्रचार के कार्यों का वर्णन

अशोक का धर्म (धम्म) कलिंग-

विजय के बाद अशोक के हृदय में करुणा और पश्चाताप की जो धारा बही उसने उसे बौद्ध धर्म के प्रति आकृष्ट कर दिया। अशोक बौद्ध हो गया था अथवा नहीं, इस विषय पर विद्वानों से मतभेद है। परन्तु अधिकांश विद्वानों ने उसके बौद्ध होने का समर्थन किया है। अतः यह बात निश्चित है कि कलिंग युद्ध के कुछ समय बाद अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया था।

बौद्ध धर्म का अनुयायी होते हुए भी अशोक ने अपनी प्रजा को जिस धर्म का अनुसरण करने का उपदेश दिया उसमें सभी धर्मों का समावेश था। उसने अपनी प्रजा को नैतिकता और सदाचार के नियमों का पालन करने का उपदेश दिया जो सभी धर्मों का आधारभूत सिद्धान्त है। उसने अपने व्यक्तिगत धर्म को किसी पर लादने का प्रयत्न नहीं किया। अशोक ने अपने धर्म में सभी धर्मों की अच्छी बातों को स्वीकार किया। अशोक के ‘धम्म’ के अनेक सिद्धान्त हैं, जो इस प्रकार है-

(1) पशु-हत्या का निषेध;

(2) किसी प्राणी को हानि न पहुँचाना,

(3) माता-पिता एवं वृद्धों की सेवा-सुश्रूषा

(4) गुरुजनों के प्रति आदर सम्मान,

(5) ब्राह्मणों, श्रमणों, मित्रों तथा आर्यों के प्रति दान, दया तथा उचित व्यवहार करना।

धर्म के निम्नलिखित गुणों के पालन को उसने आवश्यक बतालाया-(1) दान, (2) दया, (3) सत्य, (4) पवित्रता, (5) सज्जनता।

पाप से बचने के लिए उसने निम्नलिखित दोषों को दूर करने का उपदेश दिया है-

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(1) क्रोध, (2) निष्ठुरता, (3) अभिमान, (4) ईर्ष्या, (5) चण्डता। अशोक ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि धार्मिक भावना व आचरण के विकास के लिए मनुष्य को समय-समय पर आत्म-निरीक्षण करना चाहिए।

अशोक का धर्म-प्रचार

एन० एन० घोष का कथन है कि “इतिहास में अशोक की ख्याति एक महान बौद्ध शासक एवं बौद्ध धर्म के संरक्षक के रूप में है। उसने अपना सारा समय, शक्ति तथा राज्य के साधन भारत तथा भारत के बाहर बौद्ध धर्म के प्रचार में लगा दिये।” अशोक ने धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित कार्य किये :

(1) धर्म-यात्रा-

प्रारम्भ में अशोक अन्य भारतीय राजाओं की भाँति अपने सैनिकों और उच्च कर्मचारियों के साथ विहार और आखेट के लिए निकला करता था। अब उसने विहार यात्राएँ बन्द कर दी और उनके स्थान पर धर्म-यात्रा या तीर्थ-यात्रा आरम्भ की। उसने गया, लुम्बिनी वन, सारनाथ, कपिलवस्तु तथा कुशीनगर आदि स्थानों की धर्म-यात्रा की। सम्राट की इन यात्राओं ने लोगों को बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित किया।

(2) धर्म महामात्रों की नियुक्ति-

धर्म-प्रचार के लिए अशोक ने एक धर्म-विभाग की स्थापना की जिसका प्रधान पदाधिकारी “धर्म महामात्र” कहलाता था। उसका मुख्य कार्य “धर्म की प्रतिष्ठा, धर्म की उन्नति एवं धर्म के अनुयायियों की रक्षा और आनन्द के लिए राजकीय प्रयत्न करना था। ये अधिकारी राज्य में भ्रमण करके बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे।

(3) धार्मिक प्रदर्शन-

अशोक ने जनता के बीच धार्मिकता का प्रचार करने के लिए एक बड़ा सुन्दर मार्ग अपनाया। उसने लोगों को पुण्यात्माओं द्वारा स्वर्ग में भोगे जाने वाले सुख एवं आनन्द के दृश्य दिखलाने की व्यवस्था की जिससे वे प्रभावित होकर धर्म के मार्ग पर अग्रसर हों।

(4) धार्मिक शिक्षाओं को लिपिबद्ध कराना-

अशोक ने धर्म प्रचार के लिए धर्म के सिद्धान्तों तथा आदेशों को स्तम्भों और चट्टानों पर उत्कीर्ण करवाकर उन्हें सबके लिए तथा सदैव के लिए सुलभ तथा स्थायी कर दिया।

(5) बौद्ध-धर्म को अपनाना-

बौद्ध धर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था। परिणामस्वरूप राज्य की सहायता, सहानुभूति तथा संरक्षण में बौद्ध-धर्म का बड़ी तेजी से प्रचार हुआ।

(6) धर्म-प्रचारकों का संगठन-

अशोक के धर्म-प्रचार के कार्य केवल उसके साम्राज्य तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि भारत के प्राय सभी स्वतंत्र राज्यों और विदेशों में भी उनका प्रचार करवाया। उसने भारत के स्वतंत्र राज्यों एवं विदेशों में धर्म प्रचार के लिए उत्साही भिक्षुओं-भिक्षुणियों के जत्थे का संगठन किया। सिंहली जनश्रुतियों के अनुसार अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को सिंहल (लंका) में धर्म-प्रचार के लिए भेजा था।

(7) धर्म-विजय-

तेरहवें शिलालेख से विदित होता है कि कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने धर्म-विजय को अपनाया था। इस युद्ध के पश्चात् भेरी-घोष बन्द हो गया और धर्म-घोष ही सुनाई देने लगा। इससे लोगों में धार्मिकता की भावना का प्रचार हुआ।

(8) धर्म-श्रावण-

सातवें स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि अशोक अपनी जनता के लिए धर्म-सन्देश प्रसारित करता था। इन सन्देशों को धर्म-श्रावण कहा गया है।

(9) लोक-कल्याण के कार्य-

सम्राट अशोक ने लोक-कल्याण के अनेक कार्य किये जो -उसके धर्म-प्रचारार्थ प्रयत्नों के ही अन्तर्गत थे। सातवें स्तम्भ लेख में अशोक कहता है,

“मैंने सड़कों पर मनुष्यों और पशुओं को छाया देने के लिए वट वृक्ष आरोपित किये हैं, आम्र-कुन्ज लगवाये हैं, आधा-आधा कोस पर कुएँ खुदवाये हैं।” उसने मनुष्यों और पशुओं . की चिकित्सा का समान रूप से प्रबन्ध किया।

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(10) बौद्ध संगीति का आयोजन-

महान अशोक ने अपने शासन-काल में तीसरी बौद्ध संगीति (सम्मेलन) बुलाई थी जिसमें बौद्ध-धर्म के दोषों का निराकरण हुआ। इस सम्मेलन ने भी धर्म के प्रचार में काफी सहायता प्रदान की।

(11) व्यक्तिगत आदर्श-

सम्राट अशोक धर्म के नियमों का स्वयं भी पालन करता था। उसने माँस खाना व शिकार खेलना बन्द कर दिया। इसका जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा।

अशोक को इस बात का गौरव प्राप्त है कि उसने अपने प्रजाजनों के नैतिक आचरण को ऊँचा करने का प्रयत्न किया और सम्पूर्ण भारत में ही नहीं वरन् विदेशों में भी बौद्धधर्म का प्रचार किया।

अशोक की महानता के कारण

अशोक की गणना भारतीय इतिहास में ही नहीं अपितु विश्व इतिहास के महानतम् शासकों में होती है। इसके निम्नलिखित कारण हैं :-

(1) अशोक महान् व्यक्ति था।

(2) प्रजावत्सल सम्राट था। वह जनता का कल्याण करना अपना परम कर्तव्य समझता था।

(3) वह धर्म-सहिष्णु सम्राट था । यद्यपि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था फिर भी वह सभी धर्मों का आदर करता था।

(4) उसने बौद्ध धर्म का दूर-दूर तक प्रचार किया।

(5) वह उदार एवं परोपकारी सम्राट था। उसने जनता के भौतिक एवं आध्यात्मिक कल्याण के लिए अनेक कार्य किये ।

(6) वह राष्ट्रीय एकता का पोषक था।

(7) वह शान्ति का पैगम्बर था। उसने युद्ध को तिलांजलि दे दी।

(8) वह अहिंसावादी सम्राट था। जीव के लिए उसके हृदय में अपार श्रद्धा थी।

(9) वह मानवतावादी सम्राट था। उसके हृदय में मानव के लिए अपार दया, सहानुभूति, करुणा व प्रेम था। इतिहास में ऐसे सम्राटों का अभाव है।

(10) उसके काल में कला की अभूतपूर्व उन्नति हुई। वह महान् निर्माता था।

(11) वह कुशल प्रशासक था। उसके प्रशासकीय सुधार इसके प्रमाण हैं।

अशोक की महानता के सम्बन्ध में अंग्रेज विद्वान एच० जी० वेल्स ने लिखा है,-“प्रत्येक युग तथा प्रत्येक राष्ट्र में ऐसे सम्राटों का प्रादुर्भाव नहीं होता। संसार के इतिहास में अशोक अद्वितीय सम्राट था।”

मौर्यकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का वर्णन कीजिये। 

साहित्य और कला

भाषा और लिपि-

मौर्यकाल में दो भाषाओं का प्रचलन था। पहली भाषा संस्कृत थी जो साहित्यिक भाषा थी और दूसरी भाषा प्राकृत या पालि थी, जो जन-साधारण की भाषा थी। बौद्धों के ग्रन्थ इसी भाषा में लिखे गये। ब्राह्मी और खरोष्ठी दो लिपियाँ इस काल में प्रचलित थीं। ब्राह्मी लिपि बाईं ओर से दाईं ओर को और खरोष्ठी लिपि दाहिनी ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। अशोक के अधिकांश लेख ब्राह्मी लिपि में ही लिखे गये थे।

शिक्षा और साहित्य-

स्कूल एवं शिक्षा की उच्चतर संस्थाओं का राज्य की ओर से अच्छा प्रबन्ध था। उस समय वाराणसी, राजगृह, पाटलिपुत्र आदि नगर शिक्षा के केन्द्र थे। तक्षशिला का विश्वविद्यालय संसार में प्रसिद्ध था। मौर्यकाल में अनेक ग्रन्थों की रचना हुई। इस काल में ‘गृह्यसूत्र’ धर्मसूत्र ग्रन्थ की रचना हुई। भास के नाटक इसी काल में लिखे गये।

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इस काल का सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ कौटिल्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ था जो संस्कृत में लिखा गया था। ‘बौद्ध-कथावस्तु’ तथा बौद्ध-ग्रन्थ ‘त्रिपिटिक’ भी इसी काल में रचे गये। कुछ जैन ग्रन्थों का संकलन भी इसी समय हुआ। भद्रबाहु इस युग के प्रसिद्ध जैन लेखक थे। व्याडि तथा कात्यायन के व्याकरण ग्रन्थ भी सम्भवतः इसी काल के हैं।

कला-भवन-

निर्माण कला की इस युग में विशेष उन्नति हुई। मेगस्थनीज पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त का अत्यन्त विशाल तथा भव्य राजप्रासाद देखकर आत्मविभोर हो गया। चीनी यात्री फाह्यान ने अशोक कालीन राजभवनों को देखकर, जो काल के प्रभाव से बच गये थे. यह समझा कि वे देवताओं द्वारा निर्मित हैं। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने हजारों स्तूपों एवं दिहारों का निर्माण कराया था। भवन निर्माण कला में लकड़ी का प्रयोग खूब होता था।

स्थान-

स्थान पर अशोक द्वारा गड़वाये गये स्तम्भ या लाट प्रस्तर कला के जीते-जागते उदाहरण हैं। इनमें साँची, प्रयाग, सारनाथ और लोरियानन्दन के स्तम्भ अधिक प्रसिद्ध हैं।

धर्म-

यह युग धार्मिक सहिष्णुता का युग था और सभी धर्मों को फलने-फूलने का अवसर मिला। परन्तु बौद्ध धर्म को राजाश्रय प्राप्त हुआ, इस कारण इसी धर्म की विशेष उन्नति हुई।

मौर्यकालीन आर्थिक एवं सामाजिक जीवन का वर्णन

मौर्य काल की सामाजिक दशा

इसकी सामाजिक व्यवस्था का परिचय कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज के वृत्तान्तों और अशोक के अभिलेखों से प्राप्त होता है। इस काल की सामाजिक दशा निम्नलिखित थी :

वर्णाश्रम-

प्राचीन काल से चली आने वाली वर्णाश्रम परम्परा अब भी विद्यमान थी। परन्तु बौद्ध-धर्म के उत्थान के कारण जाति के बन्धन कुछ ढीले हो गये। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में चार जातियों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चार आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास का उल्लेख मिलता है।

नारी की स्थिति-

स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। विवाह में उन्हें काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी। वे न्यायालय में जा सकती थीं। बड़े घरानों में पर्दे का प्रचलन था। सती-प्रथा इस काल में नहीं थी। साधारणतः जनता में बहु-विवाह का प्रचलन नहीं था। लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता थी।

विवाह प्रथा-

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार इस समय आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे। प्रायः विवाह अपने ही वर्ण एवं जाति में होते थे परन्तु अन्तर्जातीय विवाह भी हुआ करते थे। बहु-विवाह तथा विधवा-विवाह का भी प्रचलन था। दहेज भी प्रचलित थी। वैवाहिक बन्धन का परित्याग भी स्त्री और पुरुष की सहमति से सम्भव था और स्त्री को ‘मोक्ष’ या तलाक की भी सुविधा प्राप्त थी।

आर्थिक दशा

कृषि-

जनता का मुख्य उद्यम कृषि था। कृषि की उन्नति के लिए राज्य की ओर से किसानों को प्रत्येक सम्भव सुविधा प्रदान की जाती थी, ताकि वे अच्छी उपज कर सकें। सिंचाई की अच्छी व्यवस्था था। यूनानी लेखकों के अनुसार उस समय अन्न प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होता था। उपज का छठाँ अंश राज्य को कर के रूप में दिया जाता था।

उद्योग-धन्धे-

उद्योग-धन्धों की भी खूब उन्नति हुई। कपड़ा बुनने में इस समय के लोग बड़े दक्ष थे। मथुरा, काशी व वत्स कपड़े के मुख्य केन्द्र थे। खान खोदने का भी काम होता था। सोना, चाँदी, ताँबा, शीशा, टिन आदि धातुओं का प्रयोग किया जाता था।

वाणिज्य-

व्यापार-वाणिज्य काफी प्रगतिशील तथा सुचारु रूप से चल रहा था। चीन, रोम, सीरिया, मिस्र तथा यूनान के साथ भारत का व्यापार होता था। दक्षिण भारत शंख, हीरे-मोती आदि के लिए प्रसिद्ध था। समुद्री मार्ग से भी व्यापार होता था। व्यापारी एवं व्यवसायी श्रेणियों में संगठित थे।

 मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

अशोक की मृत्यु के पचास वर्ष पश्चात् विशाल मौर्य साम्राज्य का अन्त हो गया। इसके पतन के मुख्य कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है :

(1) अयोग्य उत्तराधिकारी एवं विशाल साम्राज्य-

अशोक के उत्तराधिकारी क्किडीन एवं अयोग्य थे। उनमें से कोई भी इतना योग्य न था जो इतने विशाल साम्राज्य का प्रबन्ध करने में समर्थ होता। फलतः अशोक के बाद साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हो गया।

(2)सरकारी कर्मचारियों का अत्याचार-

सुदूर प्रान्तों के राज्यों में कर्मचारियों एवं पतियों के अत्याचारों के कारण प्रजा में असंतोष फैल गया और परिणामस्वरूप वे निदोही होने लगे। बिन्दुसार एवं अशोक के काल में तक्षशिला की जनता ने इसी अत्याचार के कारण विद्रोह किया था। अत्याचारी शासन अधिक समय तक स्थायी नहीं रहता।

(3) प्रान्तीय गवर्नरों का स्वतंत्र होना-

अशोक के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता तथा अकर्मण्यता के कारण केन्द्रीय शासन दुर्बल पड़ गया। इसका लाभ उठाकर प्रान्तीय शासकों ने अपने को स्वतंत्र करना शुरू कर दिया। शीघ्र ही कश्मीर और गांधार दोनों प्रान्त स्वतंत्र हो गये। यही हाल अन्य प्रान्तों का हुआ।

(4) अशोक की अहिंसावादी नीति तथा सैनिक दुर्बलता-

कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने साम्राज्यवादी नीति को छोड़कर धर्म विजय की नीति को अपनाया । इस नीति के परिणामस्वरूप सैनिक संगठन में शिथिलता आ गई। सेना का स्तर गिर गया एवं वह दुर्बल हो गई, अतः अशोक की मृत्यु के बाद भारत में जब आन्तरिक विद्रोह एवं बाह्य आक्रमण आरम्भ हुए तो मौर्यों की कमजोर सेना उन्हें रोक न सकी।

(5) विदेशी आक्रमण-

उत्तर पश्चिम से बैक्ट्रिया के यूनानी आक्रमण ने मौर्य साम्राज्य की नींव हिला दी। ढहते हुए साम्राज्य के लिए ये आक्रमण तूफान बन गये।

(6) ब्राह्मणों का विरोध-

इसके उत्तराधिकारी ब्राह्मण धर्म के प्रति सहिष्णु एवं उदार नहीं थे। उन्होंने बौद्ध धर्म के साथ पक्षपात किया और ब्राह्मणों की अवहेलना की। परिणामस्वरूप ब्राह्मण मौर्य वंश के शत्रु बन गये। इस प्रतिक्रिया को पुष्यमित्र शुंग के नेतृत्व से बड़ा बल मिला जो मौर्य सेना का उच्च अधिकारी था। एन० एन० घोष के शब्दों में, “पुष्यमित्र ने अपने निर्बल स्वामी को सिंहासन से पदच्युत कर मगध में मौर्यों के शासन की अन्तिम क्रिया कर डाली।”

(7) आर्थिक कठिनाइयाँ-

अशोक ने लोक कल्याणकारी कार्यों में तथा स्तूप, विहार, स्तम्भ व गुफाओं के निर्माण में तथा दान देने में भारी धनराशि खर्च कर दी। अतः अशोक के बाद राज्य की आर्थिक दशा बिगड़ने लगी। धन के अभाव का राज्य के स्थायित्व पर बुरा असर पड़ा। _उपर्युक्त कारणों से सुसंगठित मौर्य साम्राज्य की सारी चेतना लुप्त हो गई और 185 ई० पू० में इसका अन्त हो गया।

 

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