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पाठ योजना का अर्थ, महत्व, विशेषतायें, उपागम, पाठ योजना के सोपान, गृहदत्त-कार्य योजना

इसमें पाठ योजना की विशेषताएं, पाठ योजना का अर्थ(Meaning of Daily Lesson Plan), शिक्षण हेतु नियोजन के विविध उपागम (Various Approaches of Planning for Teaching), शिक्षण योजना का महत्त्व(Importance of Teaching Plan) , शैक्षिक नियोजन की विशेषताएं,, आदर्श पाठयोजना की विशेषतायें(Characteristics of An Ideal Lesson Plan), पाठयोजना के विविध उपागम, गृहदत्त कार्य-योजना (Home Assignment Plan), गृहदत्त-कार्य योजना, चित्रकला गृहदत्त-कार्य संशोधन विधि आदि का अध्ययन करेेगें।

 

 

Table of Contents

 शिक्षण हेतु नियोजन के विविध उपागम

(Various Approaches of Planning for Teaching)

किसी भी कार्य को सुव्यवस्थित, सुनियोजित व समय सीमा में भली-भाँति सम्पन्न करने हेतु उसकी पूर्वयोजना अत्यन्त आवश्यक होती है। इसी प्रकार शिक्षक के लिए भी अपने शिक्षण को सफल बनाने तथा अपने उद्देश्यों की सुगमता से प्राप्ति के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह पर्वचिन्तन कर शिक्षण योजना का निर्माण करे। ये शिक्षण योजनायें सत्रपर्यन्त चलने वाली विभिन्न शैक्षिक एवं सहशैक्षिक गतिविधियों एवं वार्षिक मासिक साप्ताहिक दैनिक व गृहकार्य सम्बन्धी कार्यों के आधार पर बनाई जानी चाहिये। इस अध्याय में दैनिक गृहकार्य, इकाई, वार्षिक पाठ-योजनाओं का वर्णन प्रारूप सहित प्रस्तुत किया जा रहा है।

शिक्षण योजना का महत्त्व

(Importance of Teaching Plan) 

1. यह शिक्षक को विषय के सम्बन्ध में सुसंगठित,सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप से सोचने के लिए प्रेरित करती है,

2. इससे शिक्षक पाठ के उद्देश्यों को भली-भाँति समझकर छात्रों में पाठ के प्रति रुचि उत्पन्न करने के साथ ही अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करता है,

3. इससे शिक्षण कार्य को निश्चित दिशा प्राप्त हो जाती है

4. यह कक्षा नियन्त्रण,छात्रों में अभिप्रेरणा तथा उनकी व्यक्तिगत भिन्नताओं को महत्त्व देती

5. इससे नवीन पाठ को पूर्व पाठ के साथ जोड़ने में सहायता मिलती है,

6. इससे शिक्षक में आत्मविश्वास आता है तथा वह अपने शिक्षण का मूल्यांकन कर सकता

7. इससे शिक्षक को अमूर्त वस्तुओं के शिक्षण में सहायता मिलती है,

8. इससे समय, शक्ति व धन की बचत होती है

9. इससे शिक्षण प्रभावी व सुग्राह्य बनता है

10. इसके निर्माण में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का अनुसरण किया जाता है जिसके कारण कक्षा में सीखने का उपयुक्त वातावरण बन जाता है,

11. इससे कक्षा में अनुशासन बना रहता है।

 

दैनिक पाठ-योजना का अर्थ

(Meaning of Daily Lesson Plan)

पाठयोजना पाठ की पूर्व तैयारी का एक ऐसा माध्यम होता है जिसमें शिक्षक यह पूर्व-निर्धारित कर लेता है कि उसे कक्षा में विषयवस्तु को किस क्रम से, किन शिक्षण-विधियों के माध्यम से एवं कौन-कौन से दृश्य-श्रव्य उपकरणों के माध्यम से कितने समय में प्रस्तुत करना है वस्तुतः पाठयोजना शिक्षण व्यवस्था के सभी पक्षों के व्यावहारिक रूपों का आलेखन है। एन.एल. बॉसिंग के अनुसार, “शिक्षण क्रियाओं तथा उद्देश्यों के आलेख को पाठयोजना कहते हैं। शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षक जिन क्रियाओं का नियोजन करता है, उनके आलेख को पाठ-योजना की संज्ञा दी जाती है।”

 

आदर्श पाठयोजना की विशेषतायें

(Characteristics of An Ideal Lesson Plan)

1. यह छात्रों के पूर्वज्ञान पर आधारित होनी चाहिये।

2. इसकी भाषा सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिये।

3. यह किसी न किसी उद्देश्य अथवा उद्देश्यों पर आधारित होने चाहिये।

4. इसमें प्रत्येक सोपान पर की जाने वाली क्रियाओं, विधियों तथा प्रविधियों तथा सहायक सामग्री का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिये।

5. शिक्षण के तीनों स्तर (स्मति, बोध एवं चिन्तन) का समन्वय होना चाहिये।

6. इस योजना में समय सीमा का विशेष ध्यान रखना चाहिये।

7. शिक्षण की सफलता ज्ञात करने हेतु पाठयोजना में मूल्यांकन को भी स्थान देना चाहिये।

8. पाठयोजना में लचीलापन होना आवश्यक है जिससे कि पाठ नई परिस्थितियों में भी भली-भाँति क्रियान्वित किया जा सके।

 

 

पाठयोजना बनाते समय ध्यान रखने योग्य बातें :

1. उद्देश्य की स्पष्टता,

See also  शिक्षण के चर | शिक्षण की अवस्थाएँ | Variables Of Teaching in Hindi

2. विषय का पूर्ण ज्ञान,

3. उससे सम्बन्धित विषयों का सामान्य ज्ञान,

4. शिक्षण के सिद्धान्तों व विधियों का ज्ञान,

5. विद्यार्थियों की योग्यता का ज्ञान,

6. कक्षा स्तर का ज्ञान,

7. समय का ज्ञान,

8. सोपानों का समुचित विभाजन,

9. सहायक सामग्री का उचित प्रयोग,

10. लचीलापन।

 

पाठयोजना बनाते समय शिक्षक को बहत सावधानी से कार्य करना चाहिये। डेविस न इन्हीं भावों को अपने शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है, “शिक्षक के लिए कोई और वस्तु इतनी घातक नहीं है जितनी कि अपूर्ण तैयारी।”

 

पाठयोजना के विविध उपागम

पाठयोजना के निर्माण हेतु शिक्षाशास्त्रियों ने अलग-अलग उपागमों का प्रयोग किया है, जिनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण उपागमों का वर्णन यहाँ प्रस्तुत है :

1. हरबार्ट उपागम :

हरबार्ट उपागम पाठयोजना के विभिन्न उपागमों में सर्वप्राचीन व सुप्रसिद्ध उपागम है। इस उपागम में हरबार्ट ने शिक्षण के स्तरों में से स्मृति स्तर को महत्त्व दिया है। उनका मानना है कि जब विद्यार्थियों की किसी विषय में रुचि होती है तो वे उस विषय की ओर आकर्षित होते हैं। छात्रों को नवीन ज्ञान प्रदान करते समय यदि उनके पूर्वज्ञान से नवीन ज्ञान को सम्बन्धित करके पढ़ाया जाये तो उनका अधिगम अधिक प्रभावशाली होता है। हरबार्ट ने इस धारणा का प्रतिपादन भी किया कि किसी भी पाठ की क्रियाओं को तर्कपूर्ण ढंग से निश्चित क्रम में सम्पादित करना चाहिये तथा विषयों को सहसम्बद्ध करके पढ़ाया जाना चाहिये ।

इस उपागम को हरबार्ट की पंचपदी के नाम से भी जाना जाता है जिसके पाँच सोपान हैं :

1. प्रस्तावना,

2. प्रस्तुतिकरण,

3. स्पष्टीकरण,

4. सामान्यीकरण,

5. प्रयोग।

 हरबार्ट पंचपदी के गुण :

1. यह मनोवैज्ञानिक विधि है,

2. इसमें समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया जाता है,

3. शिक्षण क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित होता है

4. इसमें आगमन तथा निगमन विधियों का प्रयोग होता है,

5. इसमें छात्र के द्वारा अर्जित ज्ञान का मूल्यांकन किया जाता है,

6. इसमें शिक्षण के सूत्रों का अनुसरण किया जाता है; एवं

7. यह ज्ञानात्मक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु उपयोगी व कम खर्चीली है।

 

हरबार्ट पंचपदी की सीमायें :

1. इसमें शिक्षक सक्रिय तथा छात्र निष्क्रिय रहते हैं

2. इसमें छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नताओं का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है,

3. यह केवल ज्ञानात्मक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उपयोगी है,

4. इसमें विभिन्न विषयों में समन्वय करना बहुत कठिन होता है ।

 

2. मूल्यांकन उपागम:

इस उपागम का प्रतिपादन बी.एस. ब्लूम ने किया। यह एक उद्देश्य केन्द्रित शिक्षण की प्रक्रिया है । इसमें मूल्यांकन केवल छात्रों की उपलब्धि तक ही सीमित नहीं होता है अपितु यह शिक्षण के विभिन्न पक्षों का मूल्यांकन भी प्रस्तुत करता है, जैसे, बालकों का व्यवहार परिवर्तन, शिक्षक का व्यक्तित्व, शिक्षण की विभिन्न प्रविधियाँ, सहायक सामग्री आदि का उपयोग।

मूल्यांकन आधारित पाठयोजना में तीन सोपान होते हैं :

(1) शैक्षिक उद्देश्यों एवं उनके व्यवहारगत परिवर्तनों का निर्धारण,

(2) अधिगम के अनुभव उत्पन्न करना,

(3) व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन करना ।

 

 

3. मौरीसन का इकाई उपागम :

इस उपागम के प्रतिपादक एच.सी. मौरीसन हैं, उन्होंने शिक्षण की चक्रीय योजना का प्रतिपादन किया। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘सैकण्डरी स्कूल में शिक्षण अभ्यास‘ में इकाई पद्धति की विस्तृत व्याख्या की है। यह एक ऐसी मनोवैज्ञानिक पद्धति है जिसमें छात्र केन्द्रबिन्द होता है। इस उपागम में पाँच सोपानों का प्रयोग किया जाता है-अन्वेषण. पस्ततिकरण, परिपाक, व्याख्या तथा वर्णन। इन सभी सोपानों की विस्तृत चर्चा इस पुस्तक के सातवें अध्याय में की गई है। मौरीसन ‘शिक्षण की इकाई पद्धति’ में आत्मीकरण को महत्त्व देता है, जबकि हरबर्ट अपनी ‘इकाई योजना में प्रस्तुतिकरण’ पर बल देता है।

 

4. डीवी एवं किलपैट्रिक उपागम :

इस उपागम का प्रतिपादन प्रयोजनवादी जॉन डीवी तथा उनके शिष्य किलपैट्रिक द्वारा किया गया। इसमें व्यावहारिक ज्ञान पर अधिक बल दिया जाता है और अधिगम का आधार प्रायोजना कार्य होता है। इसमें छात्र स्वयं समस्याओं को सुलझाते हुए स्वयं अनुभवों को प्राप्त करते हैं। इस उपागम के पाठयोजना सहित विस्तृत वर्णन हेतु इसी अध्याय के ‘प्रायोजना कार्य’ शीर्षक को देखें।

 

5. अमेरिकन उपागम :

इस उपागम को आधुनिक रूप देने के लिए रॉबर्ट मेगर मिलर आदि ने अनेक प्रयास किये, किन्तु बी.एस. ब्लूम ने इस क्षेत्र में अपना विशिष्ट योगदान दिया। ब्लूम ने शिक्षण उद्देश्यों का ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों की दृष्टि से वर्गीकरण करते हुए उन्हें व्यावहारिक रूप में लिखने पर बल दिया। इस उपागम में शिक्षण अधिगम उद्देश्यों को प्राथमिकता दी जाती है।

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इसमें तीन सोपानों का प्रयोग किया जाता है :

(1) सीखने के अनुभव प्राप्त करना,

(2) छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन करना,

(3) शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति करना।

 

6. ब्रिटिश उपागम :

इस उपागम में शिक्षक को विशेष महत्त्व तथा विद्यार्थियों के उपलब्धि परीक्षण द्वारा मूल्यांकन को विशेष महत्त्व दिया जाता है।

 

7. भारतीय उपागम :

इस उपागम पर विदेशी उपागमों का प्रभाव दिखाई देता है। भारत में क्षेत्रीय प्रशिक्षण, महाविद्यालयों, उच्च शिक्षा संस्थान, बड़ौदा तथा एन.सी.ई.आर.टी. ने पाठ-योजना के प्रारूप तैयार किये। इनमें उद्देश्यों तथा सीखने के अनुभवों को विशेष महत्त्व दिया जाता है।

 

गृहदत्त कार्य-योजना (Home Assignment Plan)

शिक्षणोपरान्त शिक्षक अपने शिक्षण तथा छात्रों की उपलब्धि के मूल्यांकन हेतु उन्हें गृह-कार्य देता है, जिसका मुख्य उद्देश्य पाठ की सफलता तथा छात्रों के द्वारा कक्षा में अर्जित ज्ञान की उपलब्धि ज्ञात करना होता है। वर्तमान समय में गृह-कार्य का स्वरूप अत्यन्त विकृत हो गया है । प्रायः अभिभावकों तथा शिक्षकों द्वारा उस विद्यालय को अच्छा माना जाता है जिसमें गृहकार्य अधिक दिया जाता है जबकि मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि अनावश्यक गृह-कार्य के भार से छात्रों के मौलिक चिन्तन, निरीक्षण, तर्क आदि क्षमताओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक विषय को महत्त्व देते हुए सन्तुलित रूप में छात्रों की क्षमताओं को ध्यान में रख कर गृहकार्य दिया जाये। इसके लिए प्रत्येक कक्षा के सभी विषय के अध्यापकों को सत्रारम्भ में ही गृहदत्त कार्य की साप्ताहिक योजना बना लेनी चाहिये।

 

गृहदत्त कार्य का महत्व :

(1) छात्रों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना,

(2) उनकी विषय के प्रति रुचि उत्पन्न करना,

(3) छात्रों के अवकाश के क्षणों का सदुपयोग,

(4) छात्रों में आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, स्वाध्याय तथा सृजनात्मकता के गुणों का विकास करना,

(5) पढ़े गये पाठ के अभ्यास का अवसर देना,

(6) छात्रों में नियमितता व अनुशासन की भावना का विकास करना।

 

गृहदत्त कार्य देते समय ध्यान में रखने योग्य बातें:

(1) गृहकार्य शिक्षण के उद्देश्यों पर आधारित होना चाहिए,

(2) पढ़ाये गये पाठ से सम्बन्धित होना चाहिये,

(3)उसकी भाषा सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिये

(4) छात्र की मानसिक व शारीरिक परिपक्वता को ध्यान में रखना चाहिये,

(5) यह योजनाबद्ध तथा अधिगम को दिशा प्रदान करे,

(6) छात्रों को पाठ सम्बन्धी संदर्भ-साहित्य बता दिया जाये,

(7) गृहकार्य की प्रकृति में परिवर्तन करते रहना चाहिये जैसे लिखित, प्रायोगिक, मौलिक एवं कंठस्थीकरण आदि,

(8) व्यक्तिगत भिन्नता का ध्यान।

गृहदत्त कार्ययोजना निर्माण के सिद्धान्त :

1. छात्रों की शारीरिक व मानसिक अवस्था का सिद्धान्त- एक दिन में छात्र को इतना कार्य ही दिया जाये जिससे वह थकान महसूस न करे। दस वर्ष की अवस्था वाले छात्र को। प्रायः कम गृहकार्य, ग्याहर से तेरह वर्ष की अवस्था वाले छात्र को 1 घण्टे की अवधि में पूरा करने वाला व 14 से 16 वर्ष की अवस्था वाले छात्र को अधिकतम तीन घण्टे की अवधि में पूरा होने वाला गृहकार्य देना चाहिये।

2. विषयों की प्रकृति का सिद्धान्त- कुछ विषय जटिल तथा कुछ सरल व रोचक होते हैं, अतः शिक्षक को इन दोनों तरह के विषयों के गृहकार्य को सन्तुलित रूप में छात्रों को देना चाहिये।

 

 

गृहदत्त-कार्य योजना

गृह-दत्त-कार्य योजना

 

 

चित्रकला गृहदत्त-कार्य संशोधन विधि :

गृहदत्त कार्य की श्रेष्ठ योजना बनाने के साथ-साथ उसकी भली-भाँति जाँच हो सके; इसका भी पूर्वचिन्तन शिक्षक द्वारा किया जाना अपेक्षित है। एक साथ कई कक्षाओं की बहत सारी उत्तर-पुस्तिकाओं को अच्छी तरह जाँच पाना शिक्षक के लिए अत्यन्त कठिन कार्य है। इसको भली प्रकार जाँचने हेतु निम्न विधियाँ प्रयोग में लायी जानी चाहिये :

1. कक्षा नायक पद्धति- इसमें कक्षा के छात्रों को समूहों में बाँट दिया जाता है तथा एक समूह में एक अच्छे स्तर के छात्र (नायक) द्वारा दूसरे छात्रों के गृहकार्य की जाँच करायी जाती है तथा अध्यापक नायक की कॉपी की जाँच करता है। इससे समय की बचत तो हो जाती है, लेकिन इससे समूह के अन्य छात्रों में हीन भावना आ सकती है।

2. सामूहिक जाँच कार्य- इसमें अध्यापक प्रश्नों का हल या छात्रों द्वारा की जाने वाली सम्भावित त्रुटियों को श्यामपट्ट पर लिखता है तथा छात्र अपनी उत्तर-पुस्तिका में देखकर अपनी त्रुटियों को सुधार लेते हैं। यह पद्धति जहाँ छात्र शब्दों में लिखकर लाते हैं, वहाँ पर उपयोगी नहीं है, यह प्रयोगात्मक, गणित व वैज्ञानिक परीक्षणों के लिए भी अधिक उपयोगी है।

3. यादृच्छिक प्रणाली- इसके अन्तर्गत शिक्षक छात्रों को दिये गये प्रश्नों में से सभी छात्रों के किसी एक प्रश्न को पर्णतः जाँचता है तथा अन्य प्रश्नों को छात्र स्वयं जांचते हैं। इस प्रकार इस विधि में सामान्य रूप से की जाने वाली त्रुटियों को दूर किया जा सकता है।

 

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