धर्म-दर्शन का क्षेत्र
पिछले खंडों में धर्म तथा दर्शन के स्वरूप और धर्म-दर्शन की परिभाषा के विषय में जो कुछ कहा गया है उससे यह स्पष्ट है कि धर्म संबंधी सभी समस्याएँ किसी न किसी रूप में धर्म-दर्शन के क्षेत्र के अंतर्गत आती हैं। धर्म-दर्शन उन सभी विषयों का विवेचन तथा मूल्यांकन करता है जिनका मनुष्य के धार्मिक जीवन से संबंध है और जिन पर तर्कसंगत रूप से विचार किया जा सकता है। उदाहरणार्थ धर्म का स्वरूप, मूल्य, आविर्भाव तथा विकास और उससे संबंधित सभी अनुभूतियाँ, क्रियाएँ, मान्यताएँ, विश्वास, कर्मकांड, संस्थाएँ एवं सिद्धांत धर्म-दर्शन के क्षेत्र के अंतर्गत सम्मिलित मूल विषय हैं। धर्म-दर्शन इन सभी विषयों की पूर्वाग्रहरहित विवेचना तथा आलोचनात्मक परीक्षा करता है।
इस प्रकार मानव के धार्मिक जीवन से संबंधित सभी पक्ष प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से धर्म-दर्शन के क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं और उसके क्षेत्र की यह धर्म विषयक परिधि ही उसे दर्शन की अन्य शाखाओं से पृथक करती है। यह सत्य है कि धर्म-दर्शन का क्षेत्र मनुष्य के धार्मिक जीवन तक ही सीमित है, किंतु, जैसा कि हम प्रथम खंड में स्पष्ट कर चुके हैं, धर्म मानव-जीवन के सभी पक्षों को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। इस दृष्टि से धर्म-दर्शन के क्षेत्र की परिधि भी बहुत विस्तृत हो जाती है। मनुष्य का ऐसा प्रत्येक कार्य उसके अध्ययन और मल्यांकन का विषय हो सकता है जो किसी धार्मिक मान्यता, विश्वास या सिद्धांत द्वारा प्रभावित होकर किया जाता है। इसी कारण धर्म-दर्शन के क्षेत्र को धर्म-इतिहास, धर्म-मनोविज्ञान, धर्म विषयक समाजविज्ञान तथा धर्मशास्त्र के क्षेत्र की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक माना जाता है।
धर्म-दर्शन के क्षेत्र की उपर्युक्त व्यापक परिधि का अनुमान उन प्रश्नों से लगाया जा सकता है जिन पर धर्म-दर्शन विचार करता है और जिनके समुचित उत्तर खोजने का वह प्रयास करता है। धर्म-दर्शन के कुछ आधारभूत महत्त्वपूर्ण प्रश्न निम्नलिखित हैं :- धर्म का स्वरूप क्या है और मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में उसकी क्या भूमिका है? प्राचीन काल से वर्तमान यग तक मनुष्य जिन धार्मिक मान्यताओं, विश्वासों, कर्मकांड तथा सिद्धांतों को स्वीकार करता रहा है वे कहाँ तक सत्य और तर्कसंगत हैं? क्या धार्मिक क्रियाओं तथा अनुष्ठानों का कोई तर्कसंगत आधार है ? धार्मिक अनुभति या अनुभव क्या है और यह मनुष्य के अन्य सभी प्रकार के अनुभवों से किस प्रकार भिन्न हैं ?
ईश्वर का स्वरूप क्या है और क्या उसके अस्तित्व को तर्कों अथवा युक्तियों द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है ? क्या ईश्वर ही ब्रहमांड का रचयिता, संचालक तथा संहारक है? क्या सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ तथा अत्यंत दयाल ईश्वर की अवधारणा के साथ संसार में विद्यमान अशभ या बराई की तार्किक दष्टि से संगति स्थापित की जा सकती है ? क्या ईश्वर की पूजा या उपासना से ही मनुष्य के समस्त दुःखों का अंत हो सकता है ? अथवा क्या प्रार्थना का मनुष्य के लिए केवल मनोवैज्ञानिक महत्त्व है? क्या ‘आत्मा’ नामक किसी ऐसी वस्तु का अस्तित्व है जो शरीर के नष्ट हो जाने के पश्चात भी शेष रहती है ? यदि हाँ, तो इस आत्मा का स्वरूप क्या है और इसकी अमरता को किन तर्कों द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है?
धर्म और नैतिकता में क्या संबंध है? क्या धर्म ही नैतिकता का आधार है ? अथवा क्या धर्म स्वयं नैतिकता पर आधारित है? मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? क्या यह लक्ष्य मुक्ति अथवा मोक्ष है? यदि हाँ, तो इस मोक्ष का वास्तविक स्वरूप क्या है और इसे किन उपायों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है? क्या धर्म और विज्ञान में अनिवार्य विरोध है ? अथवा क्या ये दोनों परस्पर परक हैं ? श्रद्धा, आस्था एवं श्रुति का क्या अर्थ है और मनुष्य के धार्मिक जीवन में इनका क्या स्थान है? क्या आस्था और तर्कबद्धि अनिवार्यतः परस्पर विरोधी है? अथवा क्या इन दोनों को एक-दसरे का पूरक माना जा सकता है ?
क्या तथ्यात्मक ज्ञान की भांति धार्मिक ज्ञान भी संभव है ? यदि हाँ, तो इस धार्मिक ज्ञान का स्वरूप क्या है और इसकी प्रामाणिकता के लिए कौन-से प्रमाण प्रस्तुत किए जा सकते हैं ? धार्मिक भाषा का स्वरूप क्या है ? क्या यह भाषा अन्य सभी प्रकार की भाषाओं से भिन्न होती है ? क्या मानव-जीवन के लिए संसार के सभी धर्मों का मूल्य अथवा महत्त्व समान है ? क्या इन सभी धर्मों में किसी प्रकार के समन्वय की कोई संभावना है? क्या मानवतावाद को वास्तविक अर्थ में ‘धर्म’ माना जा सकता है और क्या यही मनुष्य के लिए सर्वोच्च धर्म है ? इन सभी तथा ऐसे ही अन्य अनेक प्रश्नों पर धर्म-दर्शन के अंतर्गत तार्किक दृष्टि से विचार किया जाता है। धर्म-दार्शनिक पर्वाग्रहों से मुक्त होकर इन सभी प्रश्नों के तर्कसंगत उत्तर खोजने का प्रयास करता है। प्रस्तत पस्तक के अगले अध्यायों में धर्म-दर्शन संबंधी इन सभी प्रश्नों पर विस्तारपूर्वक विचार किया जाएगा। यहाँ इतना कह देना ही पर्याप्त है कि ये सभी प्रश्न धर्म-दर्शन के क्षेत्र की व्यापकता को स्पष्ट रूप से प्रमाणित करते हैं।
उपर्युक्त सभी प्रश्नों पर निष्पक्ष रूप से विचार करने तथा उनके तर्कसंगत उत्तर खोजने के लिए धर्म-दर्शन उन सभी नियमों का प्रयोग करता है जो दर्शन के आधारभूत नियम हैं और जिनका उल्लेख हम इस अध्याय के दसरे खंड में कर चके हैं। इन नियमों की सहायता से धर्म-दर्शन प्रत्येक प्रश्न से संबंधित सभी तथ्यों की निष्पक्ष रूप से परीक्षा करके पर्याप्त एवं विश्वसनीय प्रमाणों के आधार पर उसका तर्कसंगत उत्तर देने का प्रयास करता है। धर्म-दर्शन धर्म संबंधी समस्याओं की विवेचना के लिए इन नियमों का प्रयोग किस प्रकार करता है, इस प्रश्न पर हम पिछले खंड में विचार कर चके हैं, अतः यहाँ इस संबंध में अधिक विस्तार से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः दर्शन विषयक ये मूल नियम धर्म-दर्शन की विवेचना-प्रक्रिया के अनिवार्य अंग हैं। इन नियमों के अतिरिक्त धर्म संबंधी समस्याओं की विवेचना के लिए धर्म-दर्शन इतिहास, मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र से भी सहायता लेता है।
हम पिछले खंड में देख चुके हैं कि इतिहास और मनोविज्ञान धर्म से संबंधित कुछ विशेष तथ्यों पर विचार करते हैं। इन तथ्यों का समुचित ज्ञान धर्म-दर्शन के लिए धर्म संबंधी समस्याओं की विवेचना में सहायक हो सकता है। उदाहरणार्थ धर्म विषयक इतिहास से वह यह जान सकता है कि धर्म की उत्पत्ति तथा उसके विकास के मूल कारण क्या थे और विभिन्न युगों में धर्म ने मानव-समाज को किस प्रकार प्रभावित किया। इससे धर्म-दार्शनिक को यह ज्ञात हो सकता है कि प्राचीन काल से वर्तमान युग तक मनुष्य के धार्मिक जीवन में कौन-कौन-से परिवर्तन हुए, इन परिवर्तनों के प्रमख कारण क्या थे और इन्होंने उसके व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव डाला। ये ऐतिहासिक तथ्य धर्म-दार्शनिक के लिए धर्म के निष्पक्ष मूल्यांकन में बहुत सहायक हो सकते हैं।
इसी प्रकार धर्म संबंधी मनोविज्ञान से धर्म-दार्शनिक यह जान सकता है कि धार्मिक अनुभूति का स्वरूप क्या है और इसका मानव के व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है। इससे वह यह भी जान सकता है कि धार्मिक अनभूति का उदय कैसे होता है, यह अनुभूति धर्मनिरपेक्ष अनुभूतियों से किस प्रकार भिन्न होती है और यह मनुष्य के संपूर्ण जीवन को किस सीमा तक प्रभावित करती है। ये तथा ऐसे ही अन्य मनोवैज्ञानिक तथ्य उसके लिए मानव-जीवन में धर्म की भूमिका की तथ्यपरक विवेचना करने में बहत सहायक हो सकते हैं।
धर्म विषयक इतिहास तथा मनोविज्ञान के अतिरिक्त धर्म संबंधी समाजशास्त्र से भी धर्म-दार्शनिक को मनुष्य के सामाजिक जीवन में धर्म की भूमिका को समझने में पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है। इससे उसे यह ज्ञात होता है कि ईश्वर, आत्मा, प्रार्थना, आस्था, पाप, पुण्य आदि धार्मिक अवधारणाओं का मनुष्य के सामाजिक जीवन में क्या महत्त्व है। वस्तुतः समस्त धार्मिक अवधारणाओं की समाजशास्त्रीय व्याख्या ने धर्म-दार्शनिक के समक्ष धर्म का एक ऐसा नवीन आयाम प्रस्तुत कर दिया है जिसकी ओर अभी तक कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। धर्म विषयक समाजशास्त्र की सहायता से धर्म-दार्शनिक मानव के सामाजिक जीवन में धर्म की उस अच्छी या बरी भूमिका को भलीभाँति जान सकता है जो वह एक सामाजिक संस्था के रूप में प्राचीन काल से अब तक निभाता आ रहा है और जिस के कारण उसकी प्रशंसा अथवा निदा की जाती रही है। इस प्रकार धर्म-दर्शन के लिए धर्म विषयक इतिहास तथा मनोविज्ञान की भाँति धर्म संबंधी समाजशास्त्र का भी बहुत महत्त्व है। वास्तव में धर्म-दर्शन अनेक मूल समस्याओं के विवेचन तथा मल्यांकन के लिए इन तीनों से उन प्रासंगिक तथ्यों का संकलन करता है जिन का किसी न किसी रूप में धर्म के साथ संबंध है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि धर्म संबंधी तथ्यों के संकलन की दृष्टि से इतिहास, मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र ये तीनों धर्म-दर्शन के लिए पर्याप्त सीमा तक सहायक सिद्ध होते हैं।
धर्म-दर्शन की विधियाँ
धर्म-दर्शन के क्षेत्र के विषय में ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे यह स्पष्ट है कि धर्म-दर्शन धर्म से संबंधित सभी मूल समस्याओं का अध्ययन, विवेचन तथा मूल्यांकन करता है। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि इसके लिए धर्म-दर्शन किन विधियों का प्रयोग करता है और इन विधियों में से कौन-सी विधि उसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त तथा प्रामाणिक मानी जा सकती है। हम देख चुके हैं कि धर्म-दर्शन का मख्य उद्देश्य धार्मिक मान्यताओं, विश्वासों तथा सिद्धांतों का निष्पक्ष एवं तर्कसंगत मूल्यांकन करना ही है। वह समस्त पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर धर्म संबंधी सत्य का अन्वेषण करता है। यह स्पष्ट है कि वह अपने इस उद्देश्य की पूर्ति धार्मिक समस्याओं के निष्पक्ष एवं तार्किक विश्लेषण द्वारा ही कर सकता है। इस संबंध में किसी विशेष धार्मिक परंपरा या सिद्धांत से प्रभावित होना उसके उक्त उद्देश्य की पूर्ति में निश्चय ही बाधक सिद्ध होगा।
इसी कारण धर्म-दर्शन के लिए वही विधि सर्वाधिक उपयुक्त हो सकती है जिसका आधार विशुद्ध तार्किक विवेचन तथा विश्लेषण हो। परंतु धर्म-दर्शन के अंतर्गत धार्मिक समस्याओं की विवेचना के लिए सामान्यतः जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है वे सभी तर्क और अनुभव पर आधारित नहीं होतीं। कुछ विधियाँ तर्क तथा अनुभव के स्थान पर श्रति और अंतःप्रज्ञा को ही महत्त्व देती हैं। उपर्युक्त तथ्यो को ध्यान में रखते हुए ई०ए० बर्ट ने अपनी पुस्तक, ‘टाइप्स ऑफ रिलीजियस फिलॉसॉफी’ (पृष्ठ 448) में धर्म-दर्शन की चार प्रमुख विधियों का उल्लेख किया है। ये चार विधियाँ निम्नलिखित हैं:
(1) श्रुतिमूलक विधि :
इस विधि के समर्थक धर्म के विषय में सत्य का अन्वेषण करने के लिए केवल श्रुति को ही प्रमाण मानते हैं जिसका स्रोत कोई पवित्र धामिक ग्रंथ होता। है। धर्म-परायण व्यक्ति इस पवित्र धार्मिक ग्रंथ को ईश्वरीय वाणी के रूप में ग्रहण करते हैं। और इसमें लिखी सभी बातों को असंदिग्ध रूप से सत्य तथा अंतिम प्रमाण मानते हैं। वेद, कुरान तथा बाइबल के विषय में क्रमशः हिंदुओं, मसलमानों और ईसाइयों की यही मान्यता है। इन धर्मों के कट्टर और रूढ़िवादी समर्थक उक्त धर्मग्रंथों में वर्णित किसी बात को असत्य या अप्रामाणिक मानने के लिए उद्यत नहीं होते। स्पष्ट है कि इस श्रुतिमूलक विधि का एकमात्र आधार धार्मिक परंपरा है और इसमें मानवीय अनुभव एवं तर्क के लिए कोई स्थान नहीं है।
इस विधि के समर्थक केवल श्रुति को ही स्वतः सिद्ध सत्य मानते हैं, अतः उनके मतानसार उसके विषय में कोई प्रश्न उठाना या संदेह करना नितांत अनचित है। इस विधि की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि यदि किन्हीं दो धर्म-ग्रंथों में परस्पर विरोधी बातें कही गई हों तो यह निर्णय करना असंभव हो जाता है कि उनमें से किसकी बात सत्य है और किसकी मिथ्या ऐसी स्थिति में तर्क पर आधारित धर्म-दर्शन के लिए यह विधि उपयुक्त नहीं हो सकती। धर्म के विषय में केवल सत्य का अनुसंधान करने वाला दार्शनिक ऐसी किसी बात को प्रामाणिक नहीं मान सकता जिसकी पुष्टि के लिए पर्याप्त एवं विश्वसनीय प्रमाण उपलब्ध न हों। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि तर्क और अनभव की उपेक्षा करने वाली श्रुतिमूलक विधि का धर्म-दर्शन में कोई स्थान नहीं हो सकता। यही कारण है कि अनेक दार्शनिक इस विधि को धर्म-दर्शन के लिए अस्वीकार करते हैं।
(2) अंतःप्रज्ञात्मक विधि :
जैसा कि इस विधि के नाम से ही स्पष्ट है, इसका मूल आधार कोई बाह्य तत्त्व न होकर मनुष्य की अपनी अंतःप्रज्ञा ही है। इस विधि से अनुसार मनुष्य अपनी अंतःप्रज्ञा द्वारा ही प्रत्यक्षतः आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार कर सकता है। इसके लिए उसे इद्रिय अनुभव, तर्क आदि किसी बाह्य साधन की आवश्यकता नहीं होती। इसके द्वारा वह आध्यात्मिक सत्यों का जो अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करता है वह स्वतः प्रमाणित असंदिग्ध होता है। रहस्यवादी प्रायः इसी अंतःप्रज्ञात्मक विधि द्वारा विश्व की परम सत्ता साक्षात ज्ञार प्राप्त करने का दावा करते हैं। उनका कथन है कि जब उनकी रहस्यात्मक अनुभूति अत्यत तीव्र तथा गहन होती है तो वे अपनी अंतःप्रज्ञा द्वारा ऐसे आध्यात्मिक सत्यो का साक्षात ज्ञान प्राप्त करते हैं जिन्हें अन्य किसी साधन द्वारा नहीं जाना जा सकता।
इस श्रुतिमूलक विधि की भांति अंतःप्रज्ञात्मक विधि में भी इंद्रिय अनभव और तर्क के लिए कोई स्थान नहीं है। रहस्यवादी स्वयं स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि वे अपनी अंतःप्रज्ञा द्वारा आध्यात्मिक सत्यों का जो अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करते है उसे अनुभव और तर्क द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में इस विधि के विरुद्ध भी दार्शनिक दृष्टि से वही आपत्ति उठाई जा सकती है जो श्रुतिमूलक विधि के विरुद्ध उठाई गई है।
तर्क और अनभव पर आधारित न होने के कारण इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान भी धर्म-दार्शनिक के लिए प्रामाणिक तथा असंदिग्ध रूप से सत्य नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्तं स्वार्थी व्यक्ति दूसरों पर अपना आधिपत्य जमाने और उनसे अपनी बात मनवाने के लिए भी इस विधि का दुरुपयोग कर सकते हैं, क्योंकि इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए एकमात्र प्रमाण अंतःप्रज्ञा ही है जिसे अन्य किसी आधार पर चनौती नहीं दी जा सकती। वस्तुतः इन्हीं आपत्तियों के कारण बहुत-से दार्शनिक उक्त अंतःप्रज्ञात्मक विधि को धर्म-दर्शन के लिए उपयुक्त तथा प्रामाणिक विधि नहीं मानते।
(3) बौद्धिक विधि :
उपर्युक्त दोनों विधियों से असंतुष्ट होने के कारण अनेक दार्शनिक धर्म-दर्शन के लिए बौद्धिक विधि का प्रयोग करना आवश्यक समझते हैं। श्रुतिमूलक तथा अंतःप्रज्ञात्मक विधियों के विपरीत यह विधि केवल तर्क के आधार पर धर्म विषयक सत्य का अन्वेषण करती है। इस विधि के समर्थक उपर्युक्त दोनों विधियों के निष्कषों को प्रामाणिक नहीं मानते, क्योंकि ये निष्कर्ष तर्क पर आधारित नहीं होते। इन दार्शनिकों का निश्चित मत है कि केवल तार्किक विश्लेषण पर आधारित बौद्धिक विधि के निष्कर्ष ही धर्म संबंधी समस्याओं का समचित समाधान कर सकते हैं। वस्तुतः तर्कों अथवा प्रमाणों के बिना केवल श्रुति या अंतःप्रज्ञा द्वारा धर्म विषयक सत्य का अन्वेषण संभव नहीं है। किसी भी क्षेत्र में सत्यान्वेषण की प्रक्रिया अत्यंत जटिल तथा कठिन होती है जो केवल तर्क द्वारा भलीभाँति संपन्न की जा सकती है। इस प्रकार बौद्धिक विधि के समर्थक धर्म संबंधी निष्कषों को स्वीकार करने से पर्व विश्वसनीय तथा पर्याप्त प्रमाणों द्वारा उनका प्रमाणित किया जाना अनिवार्य मानते हैं। इसी कारण यह विधि धर्म-दर्शन के लिए बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है।
(4) अनुभवात्मक विधि :
इस विधि का समर्थन करने वाले दार्शनिक सभी क्षेत्रों में ज्ञान प्राप्ति के लिए मानवीय अनुभव-विशेषत: इंद्रिय अनुभव-को सर्वोच्च स्थान देते हैं। इन दार्शनिकों का मत है कि व्यापक अर्थ में अनुभव ही हमारे ज्ञान का मूल आधार है, क्योंकि अनभव के अभाव में हम किसी प्रकार का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। जो ज्ञान हम अपने अनभव द्वारा तथ्यों के निरीक्षण के फलस्वरूप प्राप्त करते हैं उसे ही वस्तुतः यथार्थ एवं प्रामाणिक ज्ञान माना जा सकता है। धार्मिक ज्ञान के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। अनुभववादी ऐसे ज्ञान को प्रामाणिक नहीं मानते जिसे श्रुतिमूलक तथा अंतःप्रज्ञात्मक विधियों द्वारा प्राप्त किया गया है और अनुभव द्वारा जिसकी प्रामाणिकता की पष्टि करना संभव नहीं है।
इस प्रकार वे धर्म-दर्शन के लिए इन दोनों विधियों को पूर्णतः अस्वीकार करते हैं। वे कुछ धर्मपरायण व्यक्तियों के इस दावे को तर्कसंगत नहीं मानते कि उन्हें इन विधियों द्वारा अनुभवनिरपेक्ष धार्मिक ज्ञान प्राप्त होता है। परंतु अनुभववादी दाशनिक धर्म-दर्शन के लिए अनुभवात्मक विधि के साथ-साथ बौद्धिक विधि के महत्त्व को अवश्य स्वीकार करते हैं। वे यह मानते हैं कि धार्मिक ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए अनुभव तथा निरीक्षण द्वारा प्राप्त तथ्यों का तार्किक विश्लेषण आवश्यक है जो बौद्धिक विधि द्वारा ही किया जा सकता है। इस प्रकार अनुभववादी दार्शनिक धर्म-दर्शन के लिए अनुभवात्मक विधि तथा बौद्धिक विधि दोनों के समचित प्रयोग को पहत महत्त्व देते हैं, क्योंकि उनके विचार में इन दोनों विधियों की सहायता से ही किसी भी क्षेत्र में यथार्थ एवं प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
इसके विपरीत कुछ अन्य दार्शनिक धार्मिक ज्ञान को पूर्णतः अनुभवनिरपेक्ष ज्ञान मानते हैं, अतः उनके अनसार इस जान को केवल श्रुतिमूलक विधि तथा अंतःप्रजात्मक विधि के मिश्रित प्रयोग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि धार्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए धर्म-दर्शन के अंतर्गत या तो प्रथम दो विधियों का अथवा अंतिम दो विधियों का एक साथ प्रयोग किया जाता है और विभिन्न दार्शनिक अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप इन सभी विधियों का प्रयोग करते हैं। यही कारण है कि इन सभी विधियों को धर्म-दर्शन की विधियों के रूप में स्वीकार किया जाता है।
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