भारत में सिन्धु घाटी सभ्यता के पूर्व का इतिहास स्पष्ट नहीं है, क्योंकि हमें इसके इतिहास का कोई लिपिबद्ध प्रमाण नहीं मिलता है। भारत के अनेक स्थानों पर पृथ्वी की खुदाई से प्राप्त अनेक हथियार, बर्तन तथा आखेट के विभिन्न औजारों के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं ने इस ‘अज्ञात काल’ को सामान्यतः तीन कालों में विभाजित किया है-
(1) पूर्व-पाषाण-काल
(2) उत्तर-पाषाण काल
(3) धातु काल
पूर्व-पाषाण काल
(क) विस्तार-
इस काल में मनुष्य अपने सभी हथियार पत्थर के बनाते थे। यही कारण है कि मानव-सभ्यता के इस प्रथम युग को पूर्व-पाषाण काल के नाम से पकारा जाता है। पूर्व-पाषाण-काल के भग्नावशेष एशिया, अफ्रीका तथा यूरोप के विभिन्न देशों से प्राप्त हुए है। भारत में इस काल के अवशेष पल्लावरम (तमिलनाडू) नर्मदा की घाटी में गोदावरी नदी की घाटी में, पैठन नामक स्थान, पंजाब, कश्मीर, तमिलनाड. महाराष्ट्र कर्नाटक, उड़ीसा आदि प्रदेशों में उपलब्ध हुए हैं।
(ख) शस्त्र-
पूर्व पाषाण-काल के हथियारों में कुल्हाड़ी, भाले एवं खोदने, काटने, छेद करने तथा छीलने के हथियार प्रमुख थे। ये हथियार भद्दे एवं बेढंगे होते थे। पत्थरों से बने हुए इन औजारों से उस युग के मनुष्य पशुओं का आखेट किया करते थे जिन पर उनकी आजीविका निर्भर थी।
(ग) भोजन एवं जीविका-
इस युग में लोगों की जीविका का मुख्य साधन आखेट था। वे जंगली पशुओं तथा मछलियों का शिकार तथा जंगल के कन्दमूल-फल से अपना पेट भरते थे। कृषि एवं पशु-पालन से ये लोग बिल्कुल अनभिज्ञ थे और उन्हें धातु का उपयोग करने का ज्ञान न था। अग्नि का प्रयोग करना वे सीख चुके थे।
(घ) निवास-
ये लोग वृक्षों की सघन छाया या पर्वत की कन्दराओं में निवास करते थे। ये लोग पाशविक एवं बर्बर जीवन व्यतीत करते थे और नग्न रहते थे परन्तु कुछ विद्वानों की धारणा है कि वे वृक्षों की पत्तियाँ, छालों तथा पशुओं के चमड़े से अपने शरीर ढकते थे।
(ङ) कला एवं शव-विसर्जन-
इस प्रस्तर युग के लोग टोलियों में संगठित थे और आहार की खोज में इधर-उधर घूमते रहते थे। फिर भी इस काल के लोग सर्वथा कलाविहीन न थे। अपने औजार पर भद्दी चित्रकारी कभी-कभी बनाया करते थे। धर्म से अनभिज्ञ थे और बर्तन बनाने की कला का ज्ञान भी इन लोगों को नहीं था। प्रायः ये लोग शवों को फेंक दिया करते थे जिन्हें पशु-पक्षी खा जाते थे। कुछ लोगों की धारणा है कि इस युग के लोग शव को गाड़ दिया करते थे और उसे लाल रंग से रंग दिया करते थे। कहीं-कहीं शव चूल्हों तथा भट्टियों के सन्निकट गड़े हुए पाये गये हैं।
उत्तर पाषाण-
काल सभ्यता के विकास की कहानी मनुष्य तथा प्रकृति के संघर्ष की कहानी है। मानवसभ्यता के विकास के दूसरे युग को उत्तर पाषाण-काल कहते हैं।
(क) विस्तार-
इस काल के अवशेष कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश के राज्यों में, नर्मदा तथा गोदावरी नदियों की घाटियों में, दक्षिण में करनूल के क्षेत्र में, गुजरात में साबरमती नदी की घाटी, बम्बई, कश्मीर तथा सिन्ध और उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले से उपलब्ध
(ख) अस्त्र-शस्त्र-
इस काल में मनुष्य अपने हथियार तेज और चमकीला बनाने लगा था। पूर्व पाषाण-काल के औजारों की अपेक्षा इस काल के औजार अधिक सुन्दर एवं सुडौल बनाये जाते थे। कुल्हाड़ी, भाला एवं तीर आदि हथियारों का भी इस काल में आविष्कार हुआ जिसके कारण लोगों को जंगली पशुओं से अपनी रक्षा तथा आखेट करने में सुविधा मिली। पहिये तथा घिरनी का आविष्कार हो जाने के कारण हथियार एवं औजार एक स्थान से दूसरे स्थान पर बड़ी सुविधापूर्वक भेजे जा सकते थे। इन हथियारों के अतिरिक्त ये लोग हल, हँसिया, तकली, करघे आदि भी बनाने लगे थे।
(ग) भोजन, कृषि एवं पशु-पालन-
इस युग के निवासियों के रहन-सहन में बहुत परिवर्तन हो गया था। इस काल में लोगों ने सर्वप्रथम कृषि का कार्य आरम्भ किया। उपलब्ध अवशेषों से यह ज्ञात होता है कि इस काल के निवासी गेहूँ, जौ, मक्का, बाजरा तथा विभिन्न प्रकार के खाद्यान्न उत्पन्न करते थे। इस काल में नमक का प्रयोग होता था। पशुओं का पालन शुरू हो गया था। इन लोगों ने गाय, बैल, भैंस, भेंड, बकरी, बिल्ली, कुत्ता, घोड़ा आदि पालना प्रारम्भ किया। दूध एवं शहद का प्रयोग भोजन में किया जाने लगा था।
(घ) गृह निर्माण-
लोग गह-निर्माण कला से सर्वथा परिचित हो गये थे और पर्ण झोपड़ियों का निर्माण होने लगा था। उत्खनन उपकरणों से यह ज्ञात होता है
कि इस युग की झोपड़ियों की दीवारें लट्ठों तथा नरकुलों की बनी होती थीं और फर्क कच्चे तथा मिट्टी के बने होते थे।
(ड) कला-
मिट्टी के बर्तन का निर्माण कार्य भी इस काल में शुरू हो गया था। चाक को चलाकर अब मनुष्य मिट्टी के बर्तन बनाने लगा। बर्तनों पर चित्रकारी भी की जाती थी। ये चित्र गुफाओं की दिवालों पर बने हुए है। ये पशुओं के चित्र हैं। स्पेन अल्टामारी नामक गफा में ऐसे अनेक चित्र मिलते हैं। विन्ध्याचल (उत्तर प्रदेश मिर्जापुर जिले में) की पहाड़ियों की गुफाओं की दीवारों पर चित्र एवं प्यालों की-सी शक्त खरोंची हुई मिली हैं।
(च) वस्त्र-निर्माण-
उत्तर पाषाण कालीन मनुष्यों ने पौधों के रेशों तथा ऊन के धागे को कातना शुरू कर दिया था और उन्हें बुन कर कपड़ा बनाने लगे थे। खुदाई में इस युग की मिट्टी की बनी हुई तकलियाँ तथा करघे उपलब्ध हुए है।
(छ) धर्म-
सामाजिक सुव्यवस्था के अतिरिक्त इस युग के निवासियों में धार्मिक भावना भी जागृत हो चुकी थी। इस काल में मातृ-देवी की पूजा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। विद्वानों का अनुमान है कि देवता को सन्तुष्ट करने के लिए बलि की प्रथा भी आरम्भ हो गई थी।
(ज) शव-विसर्जन-
उत्तर पाषाण-काल में मुर्दो को गाड़ने का रिवाज प्रारम्भ हो गया था। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में भी कुछ मुर्दो को गाड़ने के चिन्ह मिले हैं, परन्त साथ ही शव को जलाने के भी प्रमाण उपलब्ध हैं।
धातु काल
कुछ विद्वानों की धारणा है कि धातु-काल के लोग उत्तर पाषाण-काल के लोगों से भिन्न थे और उत्तर-पश्चिम के पर्वतीय मार्गों से आये थे, परन्तु अन्य विद्वान धातु-कला के लोगों को उत्तर पाषाण-काल के लोगों की ही संतान मानते हैं। धातु-काल प्रायः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-(1) ताम्र-काल
(2) काँस्य-काल
(3) लौहकाल
(1) ताम्र-काल-
सहस्रों वर्षों तक पत्थर का प्रयोग करते-करते मानव अब धातु का भी प्रयोग करने लगा जो उनके बौद्धिक विकास का परिचायक है । ऐसा प्रतीत होता है कि धातुओं में सर्वप्रथम ताँबे का प्रयोग किया गया | ताँबे के औजार तथा हथियार कानपुर, मथुरा, मैनपुरी तथा फतेहगढ के आस-पास उपलब्ध हए है । इस धातु का बना काइया तथा भाले और छल्ले जैसे हथियार समस्त उत्तर भारत में गड़े मिले हैं।
पालन जीविका का मुख्य साधन था। इस काल में खेती स की जाने लगी थी। अपने निवास के लिए मनुष्य ने इस काल में सर्वप्रथम गृह-निर्माण के लिए धूप में का प्रयोग किया गया । इस काल में विभिन्न प्रकार के हाने लगा । इनके आभूषण सोने और चाँदी के हलों तथा बैलों की सहायता से की जाने लगी थी। अ मकानों एवं दुर्गा का निर्माण किया। इस काल में सर्वप्रथम सुखाई एवं आग में पकी हुई ईटों का प्रयोग किया गया। इस आभूषणों तथा रंगीन वस्त्रों का प्रयोग होने लगा । इनका होते थे।
(2) वाणिज्य तथा व्यापार-
वाणिज्य एवं व्यापार में वृद्धि नावों और जहाजों द्वारा समुद्री यात्रा तय करके बेबीलोन ता एवं व्यापार में वृद्धि हुई । वे व्यापार हेतु पाना तय करके बेबीलोन तक जाते थे।
(3) धार्मिक विश्वास-
इस काल में लोग भिन्न-भिन्न देवताओं की उपासना करने लगे थे। उनके लिए मन्दिरों का निर्माण कराया गया । देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के निमित्त कभी-कभी नरबलि भी चढ़ाई जाती थी। धार्मिक भावना के जागरण के साथ अन्धविश्वासों की भी वृद्धि हुई । समाज में माता का स्थान ऊँचा था । माता के नाम से संतान पुकारी जाती थी। शवों को जलाने की प्रथा न थी बल्कि लोग शवों को ताबूत में रखकर पृथ्वी में गाड़ देते थे।
(4) कांस्य काल-
यह काल हमारे देश में नहीं था बल्कि संसार के अन्य भागों में इसका अस्तित्व था। यह ताँबा एवं टिन का मिश्रण है । इससे अस्त्र-शस्त्र बनाये जाते थे। इस धातु के आभूषण एवं कुछ बर्तन उपलब्ध हुए हैं।
(5) लौह काल-
कुछ विद्वानों की धारणा है कि उत्तर भारत में ताम्र युग पहले और लौह युग बाद में आया जब कि दक्षिणी भारत में उत्तर पाषाण-काल के उपरान्त ही लौह काल प्रारम्भ हो गया। लोगों का मत है कि इस युग के निवासी पामीर पर्वत की ओर से आये। शनैः-शनै ये लोग महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के वनों से होते हुए बंगाल तक फैल गये। ये लोहे के हथियार का प्रयोग करते थे । लौह-काल के प्रादुर्भाव से मानव जीवन का वैज्ञानिक विकास शुरू हुआ। लोहे ने मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने में तथा उसकी सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में सबसे अधिक योगदान किया ।
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