सिन्धु सभ्यता की खोज
सिन्धु सभ्यता की खोज सन् 1922 ई० में परातत्ववेत्ता श्री राखाल दास बनर्जी एक बौद्ध स्तूप की खुदाई करवा रहे थे। सहसा अतीत में सोये हुए नगर के भग्नावशेष निकल आये। मात्र कुछ भग्न खण्डहर ही नहीं सम्पूर्ण नगर का अस्तित्व उत्खनन द्वारा प्राप्त हो गया। यहीं से भारतीय इतिहास में एक नवीन अध्याय की सृष्टि हुई। उत्खनन में उपलब्ध प्रमाणों से विद्वानों का अनुमान है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता का विकास ठीक उस समय हो रहा था जबकि मिश्र एवं मेसोपोटामिया सभ्यताएँ फल-फूल रही थीं।
सभ्यता का क्षेत्र-
यह सभ्यता काफी विस्तृत क्षेत्र में फैली थी। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चहुन्दड़ो, झूकटदड़ो, बलूचिस्तान एवं केलात तक इसका विस्तार हो चुका था। इसके अतिरिक्त राजस्थान (कालीबंगा), गुजरात (लोथल तथा सूरकोटड़ा) एवं पंजाब (रोपड़) के अन्य क्षेत्रों में भी इसका विस्तार था।
सभ्यता के निर्माता-
सिन्धु सभ्यता के निर्माता कौन थे? यह प्रश्न विवादग्रस्त है। इस प्रश्न के सम्बन्ध में इतिहासकारों के चार मत हैं। पहले मत के अनुसार सिन्धु सभ्यता के निर्माता ‘असर’ थे, जिन्हें आर्यों ने पराजित करके भगा दिया था। दूसरे मत के अनुसार सिन्धु प्रदेश के मूल निवासी द्रविण थे। तीसरे मत के अनुसार सिन्धु सभ्यता के निर्माता आर्य ही थे। चौथे मत के अनुसार सिन्धु प्रदेश में विभिन्न जातियों के लोग रहते थे, जिन्होंने एक उच्चतम सभ्यता का विकास किया था।
सिन्धु सभ्यता की विशेषताएँ
नगर-योजना एवं भवन-निर्माण-
सिन्धु घाटी के लोग बड़े-बड़े नगरों में रहते थे। खुदाई से पता चलता है कि नगर एक निश्चित योजना के अनुसार बसाये जाते थे। नगर की सड़कें सीधी होती थीं जो एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। प्रमुख सड़कें 10 मीटर तक चौड़ी होती थीं।
सड़कों के किनारे कूड़ा फेंकने के जो बड़े-बड़े बर्तन पाये गये हैं, उनसे अनुमान किया जाता है कि सफाई के लिए म्युनिस्पैलिटी जैसी कोई संस्था रही होगी। नगर के गन्दे पानी को बाहर ले जाने के लिए नालियाँ पक्की ईंटों की बनी होती थीं। नालियों के ढंकने के लिए ईंटों तथा पत्थरों का प्रयोग किया जाता था। इस सम्बन्ध में अंग्रेज इतिहासकार ए० एल० बाशम ने लिखा है-” No other ancient civilization until that of Romans had so efficient system of drains.”-A. L. Basham.
भवन निर्माण-
भवनों की बनावट, दीवालों की मोटाई, ईंटों की सुन्दरता आदि उस समय की गृह-निर्माण कला के परिचायक हैं। भवनों का निर्माण सड़कों तथा गलियों के किनारे होता था । भवनद्वार किसी प्रमुख सड़क की ओर होने की अपेक्षा पीछे की किसी गली में हुआ करते थे। मकानों में खिड़कियाँ अधिक नहीं होती थीं। प्रायः सभी मकान क पंक्ति में सड़क के दोनों ओर बने होते थे।
व्यक्तिगत मकानों के अलावा कछ सार्वजनिक बड़े-बड़े भवन तथा विशाल कमरे या हाल हुआ करते थे, जो शायद सार्वजनिक सभा, सम्मेलन या उपासना आदि के लिए प्रयोग किये जाते थे।
मोहनजोदड़ो के स्नान-कुण्ड-
मोहनजोदडो से प्राप्त भग्नावशेषो में एक स्नान-कुण्ड सबसे महत्वपूर्ण है। इसकी लम्बाई 19 मीटर, चौडाई 7 मीटर और गहराई 2.4 मीटर है। इसके चारों ओर बरामदे, गैलरियाँ और कमरे हैं। यह स्नान-कंड जल से भरा और खाली भी कर दिया जाता था। पानी के निकास के लिए 6 फीट ऊँची नाली का निर्माण किया जाता था। जलाशय के दक्षिण-पश्चिम की ओर आठ स्नानागार बने हुए है। इस नागार के साथ एक हम्माम भी था जिससे यह प्रमाणित होता है कि यहाँ के निवासियों को स्नानार्थ गर्म जल की व्यवस्था का ज्ञान था और उसका ये प्रयोग भी करते थे।
धार्मिक दशा या धर्म
मातृ देवी का पूजा-
पूजा के क्षेत्रों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा उस जिसकी आराधना प्राचीन काल में ईरान से लेकर इंजियन सागर तक होती थी। खुदाई में अनेक ऐसी मुहरें तथा मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें खडी का चित्र अंकित है। सर जॉन मार्शल के मतानुसार यह मातृ-देवी की प्रतिमा है।
शिव की पूजा हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त एक मुहर पर योग-मुद्रा में और समावृत्त त्रिमुखधारी एक देवता की आकृति उत्कीर्ण है जो सर मार्शल के विचार मूर्ति है। डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी का कथन है “यदि मुहर पर उत्कीर्ण आकति पशुपति मूर्ति है तो शैव धर्म का आज के प्रचलित धर्मों से सबसे प्राचीन होना जायेगा।” अनेक प्रस्तर आकृतियों से यह सिद्ध हो जाता है कि उस काल में लिंग तथा योनि की आराधना भी प्रचलित थी। इसी प्रकार मुहरों पर वृक्ष-पूजन और पशु-पूजन को अनेक प्रकार से अंकित किया गया है। जल-पूजा तथा अग्नि-पूजा भी प्रचलित थी।
सांस्कृतिक जीवन
कला-
कला के क्षेत्र में सैन्धव सभ्यता उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गई थी। भाण्डों पर चित्रकारी करना इस सभ्यता के लोगों को अधिक प्रिय था। नर्तकी की एक मूर्ति मिली है जिसको देखने से यह पता चलता है कि वे लोग कला में कितने निपुण थे। कला के क्षेत्र में सबसे सुन्दर नमूने छोटी-बड़ों मुहरों पर अंकित रेखाचित्रों और आकृतिय से मिलते हैं। इन चित्रों में विशेषकर साँड़ का अंकन विशिष्ट और अनुपम है। मूर्ति-कला में वे बड़े कुशल थे।
ये लोग विभिन्न धातुओं को गलाना, ढालना, काटना एवं सम्मिश्रण करना जानते थे। डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी का कथन है कि “इन मूर्तियों की उपलब्धि ने यह प्रमाणित कर दिया है कि सैन्धव सभ्यता के नागरिक प्राचीन यूनानियों की भाँति कला के जागरूकप्रेमी थे और ये चारु तथा सम्मोहक अंकन कर सकते थे।”
लेखन-कला
सिन्धु घाटी के नागरिक लेखन-शैली से परिचित थे। यद्यपि यह ठीक है कि मेसोपोटामिया और मिस्र की भाँति यहाँ कोई लिखित प्रस्तर-पत्र अथवा मिट्टी का पात्र नहीं प्राप्त हुआ है परन्तु मुहरों की जो राशि (लगभग 500) खुदाई में मिली है वह यह सिद्ध करने में अकाट्य प्रमाण है कि ये लोग लेखन-शैली से परिचित थे। इन मुहरों पर भेड़ें, साँड़ और अन्य पशुओं की आकृति के साथ-साथ एक प्रकार का अभिलेख भी उत्कीर्ण है । विद्वानों का मत है कि इनकी लिपि चित्र-प्रधान थी और इनका प्रत्येक चिह्न समूचे शब्द अथवा वाक्य को प्रकट करता है।
निष्कर्ष
वस्तुतः सिन्धु सभ्यता एक उत्कृष्ट सभ्यता थी। इस सभ्यता के लोग शान्तिमय तथा स जावन व्यतीत करते थे। वे कुशल कलाकार तथा सिद्धहस्त निर्माता थे।
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