सामाजिक प्रगति की अवधारणा
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः वह समाज के बिना जीवित नहीं रह सकता। इसके अतिरिक्त वह एक “क्रियाशील और उद्देश्यपूर्ण’ (Creative and Purposive) प्राणी भी है, अतः वह प्रकृति के साथ केवल अनुकूलन ही नहीं करता, बल्कि प्रकृति को अपनी सुख-सुविधाओं के अनुकूल परिवर्तित भी करता है। समाज एवं संस्थाओं का उद्विकास (Evolution) होता है, यह उद्विकास दोनो ही दिशाओं की ओर हो सकता है – उन्नति एवं अवनति की ओर । प्रत्येक परिवर्तन उन्नति नहीं है, क्योंकि जब परिवर्तन कुछ निश्चित उद्देश्यों के अनुसार अच्छी तरह से होता है, तो उसे प्रगति कहा जाता है। उदाहरण के लिये भारत में कृषि की दशा खराब है। कृषि-प्रधान देश होने पर भी यदा-कदा बाहर से अनाज का आयात करना पड़ता है। यदि इस उद्देश्य को सम्मुख रखते हुये खेती की दशा को सुधारा जाये तथा यह उद्देश्य प्राप्त हो जाएं, तो हम इस परिवर्तन को उन्नति कह सकते हैं, प्रगति सामाजिक परिवर्तन का ही अंग है। बिना परिवर्तन के प्रगति सम्भव नहीं है। भेद केवल। इतना ही है कि परिवर्तन किसी भी दिशा में हो सकता है, किन्तु प्रगति के लिये अत्यावश्यक। है कि ऐच्छिक दिशा की ओर ही हो। स्पष्ट है कि समाज के किसी भी क्षेत्र में लक्ष्य प्राप्ति की ओर बढ़ना या अग्रसर होना ही प्रगति कहलाता है।
प्रगति की प्रकृति
प्रगित की प्रकृति निम्नलिखित है-
1. प्रगति का निर्धारण मूल्यों से होता है। मूल्य समुदाय की संस्कृति द्वारा निश्चित होते हैं। अतः प्रगति समुदाय एक विचार पर आधारित होती है।
2. प्रगति इच्छित परिवर्तन होता है। प्रगति की परिभाषा से यह बात स्पष्ट होती है कि जब निरन्तर निश्चति, सम्बन्धित, परिवर्तन इच्छित दिशा में होता है तब उसे प्रगति कहा जाता है।
3. प्रगति में अस्थिरता पायी जाती है। यह पर्यावरण के साथ परिवर्तित होती रहती है। यह अपना अर्थ परिवर्तित करती रहती है। इसका कोई भी सार्वभौमिक अर्थ निर्धारित नहीं किया जा सकता है।
4. प्रगति स्वचालित नहीं होती है। कहने का आशय है कि मनुष्यों को प्रगति के लिए प्रयास करते रहना चाहिए। व्यक्ति को समाजोपरि शक्तियों अथवा अन्य शक्तियों पर आश्रित नहीं बने रहना चाहिए। यही सिद्धान्त व्यक्तिगत प्रगति के लिए भी लागू होता है। व्यक्ति को भाग्य के सहारे नहीं रहना चाहिए।
5. बिना परिवर्तन के प्रगति सम्भव नहीं है। अतः परिवर्तनों से भय नहीं करना चाहिए अपितु उनका स्वागत करना चाहिए। किन्तु परिवर्तनों को अपनी इच्छित दिशा में निर्देशित करना अति आवश्यक है।
प्रगति का अर्थ
‘प्रगति’ आंग्ल भाषा के शब्द ‘प्रोग्रेस’ (Progress) का हिन्दी रूपान्तर है, जिसकी व्यत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘प्रोग्रेडियर’ (Progredior) से हुयी है। ‘प्रोग्रेडियर’ शब्द का , अर्थ है – आगे बढ़ना (To step forward) | किन्तु ‘आगे बढ़ने से ही प्रगति शब्द पूर्णतया स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि जब तक हम कतिपय निश्चित उद्देश्यों को सामने रखकर एक निश्चित दिशा में परिवर्तन करते है तथा वह परिवर्तन जीवन के लिये अधिक उपयोगी/ मुल्यवान होता है, तो उसे प्रगति कहा जाता है। इस दृष्टि से प्रगति को सामाजिक नियोजन का पर्यायवाची रूप भी कहा जा सकता है। नियोजन के अन्तर्गत वर्तमान परिस्थितियों को इच्छित दिशा में बदलता जाता है। कूले (Cooley) के शब्दों में – प्रगति में समाज की सजनात्मक शक्ति निहित होती है, यह सृजनात्मक शक्ति, व्यक्ति एवं समाज को अभिव्यक्तिकरण का साधन प्रदान करती है। स्पष्ट है कि इस सृजन शक्ति की अभिव्यक्ति विचार तथा संस्थाओं में नवीन रूपों में होती है, अतः सामाजिक शक्तियाँ जब सृजनात्मक दिशा की ओर अग्रसर होती है, तो समाज की प्रगति होती है। उदाहरणार्थ – पहले कलम एवं दवात से लेखन कार्य होता था, जगह-जगह स्याही भरी दवात लाने-ले जाने में बड़ी असुविधा होती थी, अतः इस असुविधा को दूर करने के लिये ‘फाउन्टेन पेन’ का आविष्कार किया गया। इस दृष्टि से पेन प्रगति है। इस सन्दर्भ में स्मरणीय है कि प्रगति की धारणा अलग-अलग समाजों और संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न भी हो सकती है अर्थात् जिसे हम प्रगति कहते हैं, आवश्यक नहीं है, कि दूसरे भी उसे प्रगति ही कहें, वह दूसरों के लिये अवनति भी हो सकती है।
गिडिग्स के अनुसार प्रगति दो बातों पर निर्भर करती हैं – 1. बुद्धि संगत सामाजिक पसन्द एवं 2. सामाजिक मूल्यों का सम्मिलन। प्रगति हेतु समाज का बुद्धि संगत सुधार आवश्यक है, जो कि समालोचना पर आधारित होता है।
सामाजिक पसन्द के नियम को दो रूप होते हैं। 1. प्राप्त होने वाले लक्ष्यों की वरीयता का नियम तथा 2. सामाजिक पसन्द के हितों के समन्वय का नियम | सामाजिक पसन्द के नियम हेतु कुछ निश्चित आदर्शों की आवश्यकता होती है। इसमें शक्तिशाली व्यक्ति या समुदाय के आदर्श सर्वाधिक प्रभावशाली होते हैं, जबकि द्वितीय स्थान सुख, समृद्धि एवं उपयोगितावादी गुणों के आदर्श का, तृतीय स्थान संयम और प्यूरिटन (Puritan) गुणों के आदर्श का तथा चतुर्थ स्थान दया एवं उदारता के गुणों के आदर्शों का होता है। इसी तरह सामाजिक सम्मिलन मूल्यों के नियम हेतु भी कुछ निश्चित तत्वों की आवश्यकता होती है।
1. गुरविच एवं मूर के शब्दों में – “स्वीकृत मूल्यों के सन्दर्भ में इच्छित उद्देश्यों की ओर बढ़ना ही प्रगति है।’
2. लुम्ले के अनुसार, – “यह परिवर्तन है, किन्तु इच्छित या मान्यता प्राप्त दिशा म परिवर्तन है, न कि प्रत्येक दिशा में।”
3. मैकाइवर के अनुसार – “प्रगति का अभिप्राय केवल दिशा मात्र से ही नहीं, एक एसी दिशा की ओर अग्रसर होना है, जो कि अन्तिम लक्ष्य की ओर ले जाता तथा जिसका निर्धारण क्रियाशील वैषयिक विचार से न होकर, आदर्श के द्वारा हुआ हो।’
सामाजिक प्रगति की विशेषताऐं/लक्षण
सामाजिक प्रगति की कुछ विशिष्ट विशेषताऐं या लक्षण होते हैं, जिनके आधार पर सामाजिक प्रगति का मापन किया जा सकता है, यथा-
1. परिवर्तनशील प्रकृति – सामाजिक प्रगति की सर्वप्रथम विशेषता उसकी परिवर्तनशील प्रकति है। परिवर्तन की अनुपस्थिति में प्रगति सम्भव नहीं है, क्योंकि पानि स्वयं भी एक प्रकार का परिवर्तन ही है।
2. मान्यता प्राप्त दिशा – केवल उसी परिवर्तन को ही प्रगति कहा जा सकता है जो कि एक निश्चित दिशा में हो। परिवर्तन किसी भी दिशा में हो सकता है, किन्तु जो परिवर्तन मान्यता प्राप्त दिशा में हो, केवल उसी को ही प्रगति कहा जायेगा।
3. निश्चित उद्देश्य – केवल वही परिवर्तन प्रगति के अन्तर्गत सम्मिलित है, जो कि कतिपय निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किये जाते हैं। स्पष्ट है कि उद्देश्यहीन । परिवर्तन को प्रगति नहीं कहा जा सकता है।
4. सार्वभौमिकता का अभाव- सभी स्थानों में प्रगति के तत्व पाये जाते हैं अतः प्रगति सार्वभौमिक है, किन्तु प्रगति धारणा सार्वभौमिक नहीं होती क्योंकि प्रगति देश व राज्य में गिरगिट की भाँति रंग बदलती रहती है। भारतीय समाज में आध्यत्मिकता की प्राप्ति को प्रगति माना जाता है, किन्तु आवश्यक नहीं कि पाश्चात्य समाज के लोग भी आध्यात्मिकता को प्रगति मानें। उनके मतानुसार भौतिक उन्नति प्रगति का मानदण्ड हो सकती है। स्पष्ट है कि प्रत्येक समाज के कुछ निश्चित आदर्श/मूल्य होते हैं, अतः जब उन्हीं के अनुसार परिवर्तन किया जायेगा, तो उसे प्रगति कहेंगे।
5. प्रगति सामाजिक होती है – प्रायः सुना जाता है कि अमुक व्यक्ति ने बहुत अधिक उन्नति/प्रगति की है। यद्यपि यह कहना गलत नहीं है, तथापि समाजशास्त्र के अन्तर्गत इसका वृहद अर्थों में प्रयोग किया जाता है। समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है, अतः स्वाभाविक है कि समाजशास्त्र में प्रगति का आशय समाज की प्रगति से ही है। एक व्यक्ति की उन्नति/तरक्की को प्रगति नहीं कहा जाता। प्रगति चूँकि सामाजिक होती है, अतः उसका सम्बन्ध -समग्र समाज से है।
6. प्रगति ऐच्छिक होती है- प्रगति स्वचालित नहीं होती, बल्कि व्यक्ति एवं समाज की इच्छा पर आधारित हैं। प्रगति के लिये संकल्प करना पड़ता है तथा इस संकल्प की प्राप्ति हेतु लगनपूर्वक कार्य भी करना होता है। केवल प्रयास करना ही प्रगति नहीं है, क्योंकि प्रयास में सफलता एवं विफलता दोनों ही तत्व पाये जाते हैं। स्पष्ट है कि प्रगति सफल प्रयास से ही सम्बन्धित हैं।
7. प्रगति की माप मूल्यों द्वारा होती है – एक निश्चित दिशा में निश्चित उद्देश्यों को सम्मुख रखकर निरन्तर होने वाले परिवर्तन को तब तक प्रगति नहीं कहा जाता. जब तक कि उस परिवर्तन का कोई मूल्य हो। प्रगति का मापन सदैव ही मूल्यों के द्वारा किया। जाता है। स्पष्ट है कि यदि परिवर्तन मूल्यवान होगा, तभी उसे प्रगति कहा जायेगा, अन्यथा नहीं।
8. प्रगति मात्र मनुष्यों से सम्बन्धित हैं – मनुष्यों के साथ-साथ अन्य प्राणी भी प्रगति करते है, किन्तु उनके सम्मुख कोई लक्ष्य / उद्देश्य नहीं होता, अतः उसे प्रगति नहीं कहा जाता। मनुष्य चूँकि एक विवेकशील प्राणी है, अतः प्रगति का तात्पर्य मनुष्यों से ही है।
9. प्रगति में हानि-लाभ दोनों ही सम्भावित होते हैं – प्रगति से लाभ या हानि कुछ भी प्राप्त हो सकते हैं। भारतीय स्वतन्त्रता की प्राप्ति बहुत बड़ी हानि चुकाकर ही मिली। स्वतन्त्रता-संग्राम का प्रत्येक कदम प्रगति का ही एक रूप था। आज भी भारत को आर्थिक प्रगति के लिये कितने कष्ट उठाने पड़ रहे है। प्रत्येक अविष्कारक भी अनेक कष्ट उठाता है, किन्तु अन्तिम लक्ष्य तो लाभ ही होता, हानि नहीं।
सामाजिक प्रगति पर कार्ल मार्क्स के विचार
प्रख्यात साम्यवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने सामाजिक प्रगति की अपनी अवधारणा को क्रान्तिे के माध्यम से स्पष्ट किया है। उन्होंने सामाजिक प्रगति की जो अवधारणा प्रस्तुत की हैं, उसमें काॅम्टे की भाँति सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाने पर बल न देकर सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को जड़ सहित उखाड़ कर फेंक देने की बात कही है। मार्क्स ने काॅम्टे के इस विचार को नकार दिया है कि सुधारात्मक प्रगति समाज के लिए उचित, उपयुक्त एवं उपयोगी है, जिसमें कि व्यवस्था में समुचित सुधार के उपरान्त प्रगति सम्भव है। मार्क्स क्रान्ति के द्वारा सामाजिक प्रगति को स्पष्ट करते हैं। उनका विचार था कि यह क्रान्ति समाज के शोषित वर्गों द्वारा की जाएगी, जिसके फलस्वरूप एक वर्गविहीन समाज स्थापित होगा। ऐसे वर्गविहीन समाज की स्थापना ही अन्ततः सामाजिक प्रगति की दिशा होगी, जिसको साम्यवादी व्यवस्था में देखा जा सकता है। मार्क्स के अनुसार, यह वह सामाजिक व्यवस्था होगी, जिसमें समाज के सभी लोगों को समान अधिकार उपलब्ध होंगे और सभी लोग प्रसन्न एवं खुशहाल होंगे। समाज के सभी व्यक्तियों को उनकी योग्यता तथा अर्जित गुणों के आधार पर सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त होगी।
मार्क्स का कथन है कि समाज स्वयं ही अपने को वर्गों में विभक्त कर लेता है। समाज का यह विभाजन मुख्यतः धनी एवं निर्धन, शोषित और शोषक तथा शासक और शासित वर्गों में होता है। मार्क्स का विचार है कि समाज वर्ग-संघर्षों का इतिहास है, जो कि प्रगति के लिए अनवरत चलता रहता है। कोई भी सामाजिक व्यवस्था मूलभूत बुराइयों के आ जाने के फलस्वरूप बहुत अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाती है और इसके फलस्वरूप एक नवीन व्यवस्था अर्थात् साम्यवादी समाज का आविर्भाव होता है ।
मार्क्स के अनुसार, सामाजिक प्रगति का आधार साम्यवादी समाज ही है, जिसका आविर्भाव पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था के दोषों या बुराइयों के फलस्वरूप होता है। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत पूँजीपति श्रमिकों का निरन्तर शोषण करने के कारण अधिक धनी होता जाता है, जबकि श्रमिक उतना ही निर्धन होता जाता है। इस बुराई का अन्त श्रमिकों द्वारा की जाने वाली खूनी क्रान्ति द्वारा सम्भव है, जिसमें कि पूँजीपतियों का पूर्णतः विनाश होगा और श्रमिक वर्ग द्वारा पुरानी व्यवस्था के स्थाने पर एक नवीन प्रगतिशील व्यवस्था निर्मित होगी प्रगतिशील सामाजिक व्यवस्था में सभी लोगों के लिए सामान्य रूप से सामाजिक न्याय की व्यवस्था होगी। किसी भी प्रकार के सामाजिक अन्याय एवं शोषण का स्थान नहीं होगा। इस प्रकार मार्क्स का विचार है कि सामाजिक प्रगति हेतु क्रान्ति अत्यावश्यक है, तभी सामाजिक बुराइयों को समाप्त करके सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखा जा सकता है। समाज में सबके लिए एक समान न्याय की व्यवस्था की जा सकता है।
सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक प्रगति में अन्तर
- सामाजिक परिवर्तन का कोई लक्ष्य नहीं होता, जबकि सामाजिक प्रगति का उद्देश्य निश्चित होता है।
- सामाजिक परिवर्तन की कोई दिशा निश्चित नहीं होती, यह किसी भी दिशा में हो सकता है, किन्तु सामाजिक प्रगति कि दिशा निश्चित होती है।
- सामाजिक परिवर्तन नैतिक दृष्टि से एख तटस्थ प्रक्रिया है, जिसका सामाजिक मूल्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है, जबकि सामाजिक प्रगति एख नैतिक अवधारणा होने के कारण सामाजिक मूल्यों से सम्बन्धित है।
- सामाजिक परिवर्तन से लाभ व हानि दोनों ही हो सकते हैं, किन्तु सामाजिक प्रगति से केवल लाभ होता है, हानि नहीं।
- सामाजिक परिवर्तन स्वचालित और नियोजित दोनों हो सकता है, किन्तु प्रगति स्वचालित नहीं होती, उसके लिए समुचित प्रयास करने होते हैं।
- प्रगति का सम्बन्ध केवल मानवीय समाज से है, किन्तु परिवर्तन का सम्बन्ध अन्य समाजों से भी है।
इन्हें भी देखें-
- स्पेंसर के सामाजिक उद्विकास का सिद्धांत | Spencer theory of Social Evolution in hindi
- समाज और संस्कृति के उद्विकास के स्तरों पर निबन्ध | Social Evolution Theory of Morgan in hindi
- सामाजिक उद्विकास की अवधारणा, अर्थ, सिद्धान्त तथा विशेषताएं | Social Evolution in hindi
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सामाजिक उद्विकास के प्रमुख कारक | Factors of Social Evolution in hindi
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