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बुनियादी शिक्षण प्रतिमान (A Basic Teaching Model) | ग्लेसर का बुनियादी शिक्षण प्रतिमान

इस पोस्ट में हम लोग बुनियादी शिक्षण प्रतिमान क्या है?, ग्लेसर का बुनियादी शिक्षण प्रतिमान, बुनियादी शिक्षा से आप क्या समझते हैं?, बुनियादी शिक्षण प्रतिमान, A Basic Teaching Model, कक्षा-कक्ष के सिद्धान्त क्या-क्या होते है, कक्षा सभा शिक्षण प्रतिमान, विद्यालय अधिगम का शिक्षण प्रतिमान, कम्प्यूटर पर आधारित शिक्षण प्रतिमान आदि विषयों पर चर्चा करेंगे।

बुनियादी शिक्षण प्रतिमान (A Basic Teaching Model)

इस प्रतिमान का प्रतिपादन विलियम ग्लेसर (William Glaser) ने किया। इसे प्राथमिक शिक्षण प्रतिमान, मनोवैज्ञानिक प्रतिमान, कक्षा सभा शिक्षण प्रतिमान, मौलिक शिक्षण प्रतिमान आदि नामों से पुकारा जाता है। विलियम ग्लेसर ने इसे मुख्य रूप से ‘वास्तविक चिकित्सा’ (Reality Therapy) के आधार पर वर्णित किया। उसने व्यक्तित्व के सिद्धान्तों के आधारभत तत्त्वों तथा परम्परागत चिकित्सीय एवं शिक्षण सम्बन्धों को चनौती दी। उसका कहना है कि व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से असफल नहीं होता है, बल्कि वह सामाजिक स्तर पर असफल रहता है। दूसरे अर्थों में उसका कहना है कि व्यक्ति की प्रथम आवश्यकता है कि वह प्यार करे तथा प्यार पाये। यदि यह आवश्यकता पूर्ण नहीं होती है, तो वह स्वयं को दुखी एवं कुण्ठित पाता है तथा समाज से अपने को दूर रखना चाहता है । इसके लिए ग्लेसर ने कहा कि सप्ताह में कम से कम एक बार एक कक्षा सभा का आयोजन 30 से 45 मिनट की अवधि तक किया जाना चाहिए। उसमें छात्र एवं शिक्षक को स्वतंत्र रूप से अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर ऐसे प्रयास करने चाहिएँ जिनसे वे किसी सामूहिक निष्कर्ष पर पहुँच सकें।

एक व्यक्ति को संतोषजनक व्यवहार का स्तर बनाये रखना चाहिए। ‘वास्तविक चिकित्सा पद्धति का मानना है,कि समस्याएं इस कारण नहीं बढ़ती हैं कि हमारा स्तर बहत ऊंचा है, बल्कि हमारी निष्पत्ति बहुत निम्न स्तर की होती है। इसलिए यह पद्धति व्यक्ति की निष्पत्ति अथवा उपलब्धि (Performance) के स्तर को ऊँचा उठाने पर बल देती है। निष्पत्ति के स्तर को ऊँचा उठाने तथा अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तीन बातें आवश्यक हैं:

(1) वास्तविकता,

(2) उत्तरदायित्व; एवं

(3) अधिकार

ये तीनों बिन्दु ही वास्तविक चिकित्सा पद्धति के केन्द्रबिन्दु हैं। इस पद्धति के सिद्धान्त उपयुक्त सहभागिता, पूर्ण ईमानदारी,मानवीय सम्बन्धों पर बल देते हैं जिसमें रोगी अपने जीवन में पहली बार यह अहसास करता है कि कोई उसकी पर्याप्त देखभाल कर रहा है और उसको न केवल स्वीकार ही कर रहा है, बल्कि उसको उसकी वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति में भी सहायता दे रहा है और यही भूमिका एक शिक्षक की छात्रों के साथ होनी चाहिए। ग्लेसर के अनुसार सहभागिता (Involvement) में प्यार और अनुशासन दोनों सम्मिलित हैं।

 

कक्षा-कक्ष के सिद्धान्त

(1) शिक्षक और छात्रों के मध्य प्रगाढ़ व सकारात्मक सम्बन्ध होने चाहिए।

(2) कक्षा समूह का वर्तमान व्यवहार से सम्बन्ध होना चाहिए,

(3) छात्र को स्वयं अपने व्यवहार का मूल्यांकन करना चाहिए,

(4) इसके बाद छात्र को अच्छी क्रियाओं का चयन करना चाहिए,

(5) चयन की गई क्रियाओं को क्रियान्वित करने हेतु छात्रों द्वारा दृढ़ संकल्प किया जाना चाहिए; एवं 1

(6) जब तक छात्रों के विशेष व्यवहार में सुधार न हो जाये तब तक शिक्षक द्वारा बार-बार अभ्यास पर बल देना चाहिए।

 

कक्षा सभा शिक्षण प्रतिमान में मुख्य रूप से चार तत्त्व सम्मिलित होते हैं :

feedback

 

(1)अनुदेशनात्मक उद्देश्य- ये वे क्रियाएँ हैं जो विद्यार्थी को शिक्षण से पूर्व करनी चाहिए। विद्यार्थी तथा शिक्षकों के उद्देश्यों को अनुदेशनात्मक उद्देश्य कहते हैं। अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को व्यावहारिक कथनों में बदलकर लिखा जाता है। इसे कार्य विवरण भी कहते हैं। इस तत्त्व द्वारा विद्यालय,शिक्षक तथा छात्र के उद्देश्यों में भी अन्तर किया जा सकता है। ये वे उद्देश्य हैं जिन्हें किसी भी इकाई के शिक्षण के बाद छात्र प्राप्त कर लेता है।

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(2) पूर्व व्यवहार- यह वह व्यवहार है, जो विद्यार्थियों की उन योग्यताओं अथवा व्यवहारों से सम्बन्धित है, जिनकी आवश्यकता पाठ्यवस्तु को समझने के लिए होती है।

(3) अनुदेशनात्मक प्रक्रिया- इस तत्त्व का अर्थ है, शिक्षण की वे क्रियाएँ जो पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतिकरण के लिए प्रयुक्त की जाती हैं। इनमें विभिन्न विधियों प्रविधियों व्यूह-रचनाओं आदि का प्रयोग शामिल होता है।

(4) निष्पत्ति अथवा निष्पादन मूल्यांकन- इसके अन्तर्गत वे परीक्षा तथा निरीक्षण विधियाँ आदि आती हैं, जिनके आधार पर शिक्षक कोई भी निर्णय लेता है। इस पद के अन्तर्गत निष्पादन का किसी भी प्रकार से मापन करें। वह विश्वसनीय, वस्तुनिष्ठ और कुशल होना चाहिए यह बात भी सम्मिलित रहती है।

इस प्रतिमान को अन्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं ।

(1) लक्ष्य अथवा केन्द्रबिन्दु (Focus)- ग्लेसर के अनुसार, मानव की समस्त समस्यायें सम्बन्ध,बद्धता तथा आत्मसम्मान के कारण होती हैं। यदि इन आवश्यकताओं जैसे प्यार तथा आत्मबोध की पूर्ति हो जाये, तब समस्याएं हल हो जाती हैं। जॉन पी. डिसैको ने कहा है- इस शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य शिक्षा उद्देश्यों को शैक्षणिक उद्देश्यों में परिवर्तित करना है। यह प्रतिमान व्यवहारों के परिमार्जन का प्रयास करता है। यह प्रतिमान मूलरूप से नैतिक विकास करता है तथा मानव मूल्यों और स्तरों को ऊंचा उठाता है।

(2) संरचना (Syntax)- इस प्रतिमान में छ: पद निहित है:

(i) एकाग्रपूर्ण वातावरण- इस प्रकार के वातावरण का निर्माण करना, जिसमें शिक्षक तथा छात्र के मध्य भय एवं बन्धन नहीं होते,

(ii) समस्या का उल्लेख- वाद-विवाद के लिए समस्या का प्रस्तुतिकरण शिक्षक या छात्रों द्वारा किया जाता है तथा वाद-विवाद बिल्कुल मुक्त तथा खुला होता है,

(ii) मूल्यों का निर्णय करना- इस पद में छात्र अन्य छात्रों के व्यवहारों के सम्बन्ध में निर्णय देते हैं,

(iv) विकल्पों का चयन करना- इसमें शिक्षक तथा छात्र समस्या समाधान के विकल्प निश्चित करते हैं,

(v) समाधान के लिए वचनबद्ध होना एवं

(vi) समस्या समाधान के सम्बन्ध का अनसरण करना।

(3) सामाजिक व्यवस्था (Social System)-इस प्रतिमान में शिक्षक तथा छात्रों की भूमिका तथा सम्बन्ध महत्त्वपूर्ण होते हैं। छात्र परस्पर मिलकर समस्या का निर्माण करते हैं तथा सहयोग के सिद्धान्त पर उसका समाधान ढूंढ़ते हैं। इसमें कौशल, अवधारणा, सिद्धान्त तथा समस्या समाधान आदि प्रक्रियाओं को अपनाया जाता है। यदि इन प्रक्रियाओं का चयन सही रूप में हो तो निःसन्देह परिणाम अच्छे होते हैं। सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में तल्लीनता दायित्व एवं समाधान की प्रक्रिया में शिक्षक अभिप्रेरक बना रहता है।

(4) संभरण व्यवस्था (Support System)-इस प्रतिमान की सफलता शिक्षक के कतिपय व्यक्तित्व गुणों पर निर्भर करती है। शिक्षक का व्यक्तित्व उत्साहवर्द्धक हो, उसमें पारस्परिक सम्बन्धों को मधुर बनाने की योग्यता हो तथा सफल नेतृत्व प्रदान करने की

(5) मूल्यांकन (Evaluation)- इस प्रतिमान में मूल्यांकन हेतु उन सभी उपायों तथा प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है, जो ज्ञान व कौशल के माप के लिए उपयुक्त हैं।

(6) उपयोग (Application)– यह प्रतिमान छात्रों को अपने तथा अन्य छात्रों के परस्पर व्यवहारों को समझने में सहायता देता है तथा छात्रों में उत्तरदायित्व वहन करने की योग्यता का विकास करता है।

 

कम्प्यूटर पर आधारित शिक्षण प्रतिमान (Computer Based Teaching Model)

इस शिक्षण प्रतिमान का प्रतिपादन सन् 1965 में लॉरेन्स स्टालरो तथा डेनियल डेविस। ने किया। इस प्रतिमान में कम्प्यूटर शिक्षक का स्थान ग्रहण कर लेता है और फिर वही निर्णय निश्चित करता है तथा शिक्षण प्रदान करता है। इस प्रतिमान को सबसे जटिल प्रतिमान माना जाता है। इसमें सम्पूर्ण शिक्षण प्रक्रिया को दो स्तरों में विभाजित किया जाता है :

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(1) पूर्व शिक्षण काल; तथा

(2) शिक्षण काल।

पहले बिन्दु के अन्तर्गत विशिष्ट छात्र के लिए विशिष्ट कार्यक्रम का निर्माण किया जाता है तथा दूसरे बिन्दु के अन्तर्गत निश्चित कार्यक्रम क्रियान्वित किये जाते हैं। इस प्रतिमान में मुख्यत: तीन तत्त्व निहित होते हैं :

(1) विद्यार्थी का पूर्व व्यवहार,

(2) अनुदेशन के उद्देश्यों का निर्धारण; एवं

(3) शिक्षण पक्ष।

विद्यार्थी के पूर्व व्यवहारों तथा अनुदेशन के उद्देश्यों के अनुसार कम्प्यूटर शिक्षण योजना का चयन किया जाता है। विद्यार्थियों की निष्पत्तियों का निरीक्षण किया जाता है। यदि परिणाम सन्तोषजनक होते हैं तो दूसरी शिक्षण योजना प्रस्तुत की जाती है। इस प्रतिमान में व्यक्तिगत विभिन्नताओं का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। इसमें शिक्षण और निदान की क्रियाएँ एक साथ ही होती हैं। निदान के आधार पर ही उपचारात्मक अनुदेशन प्रदान किया जाता है। यदि कोई कार्यक्रम विकसित न हो तो निम्नलिखित तीन सम्भावनायें पैदा होती हैं।

(1) पुनरावलोकन सामग्री के प्रदर्शन के द्वारा छात्रों का निष्पत्ति स्तर बढ़ाना,

(2) सभी छात्रों के निम्न निष्पत्ति स्तर को ही स्वीकार कर लेना; एवं

(3) विषयवस्तु का शीर्षक बदल देना, समय बढ़ा देना तथा अन्तिम निष्पादन को घटा बढ़ाकर बदल देना।

 

विद्यालय अधिगम का शिक्षण प्रतिमान (A Teaching Model for School Learning)

इस शिक्षण प्रतिमान का प्रतिपादन सन् 1963 में जॉन कैरॉल ने किया था। इसमें समय को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है । कैरॉल ने इस प्रतिमान के सभी भागों को समय के आधार पर विवेचित किया है। उनकी धारणा है कि छात्र किसी निश्चित उद्देश्य को उस सीमा तक प्राप्त करने में सफल होगा, जिस सीमा तक वह उस कार्य को करता है।

इस प्रतिमान के पाँच भाग हैं, जिन्हें मुख्य रूप से दो श्रेणियों में निम्न प्रकार बाँटा गया है :

1. प्रवेश व्यवहार :

(क) अभिवृत्ति- किसी निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सीखने में कितना समय लगेगा इसका निर्धारण किया जाता है।

(ख) लगनशीलता- किसी शिक्षण उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए छात्र कितना समय देने की इच्छा रखता है।

(ग) सीखने की योग्यता- इसका सम्बन्ध सामान्य बुद्धि से है। सामान्य बुद्धि जितनी अधिक होगी सीखने में और उद्देश्य प्राप्ति में उतना ही कम समय लगेगा।

2. निर्देश विधि :

(क) सीखने का अवसर- इसमें इस बात पर बल दिया गया है कि एक विशेष व्यवस्था में सीखने के लिए कितना समय दिया गया है।

(ख) निर्देश का स्तर- किसी उद्देश्य को सफलतापूर्वक छात्र को प्राप्त कराने के लिए नियोजित अनुदेशन की सीमा क्या है ? इसे ज्ञात करने हेतु विभिन्न दृष्टियों से अध्ययन किया जाता है, जैसे, शिक्षण की किस्म कैसी थी ? विद्यार्थी ने विभिन्न साधनों से कितना लाभ उठाया ? अध्यापक ने कितनी स्पष्ट भाषा का प्रयोग किया आदि। इस प्रतिमान में पाँच महत्वपूर्ण तत्व निहित हैं ।

(1) उद्देश्यों की व्यावहारिक रूप में परिभाषा देना,

(2) पूर्व व्यवहार में बुद्धि तथा निष्पत्ति की अधिक प्रधानता,

(3) अनुदेशन का स्तर छात्रों के स्तर के अनुरूप होना,

(4) छात्रों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार अधिगम के लिए समय देना: एवं

(5) छात्रों को निष्पत्ति हेतु पूर्ण स्वामित्व देना।

 

 

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