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शाहजहां की मध्य एशिया नीति का परीक्षण कीजिए

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शाहजहां की मध्य एशिया नीति का परीक्षण कीजिए

 

शाहजहाँ की मध्य एशियाई नीति

किसी समय मध्य एशिया पर तैमूर का अधिकार था । उसके वंशज भी इस क्षेत्र पर अपना अधिकार बनाये रखना चाहते थे। शाहजहाँ के पूर्व मुगल सम्राट भारत की समस्याओं में ही इतने उलझे रहे कि उनका ध्यान इस ओर नहीं जा सका । शाहजहाँ के मन में उत्तर-दक्षिण में शानदार सफलता प्राप्त करने के बाद मध्य एशिया पर प्रभाव स्थापित करने की महत्वाकांक्षा उत्पन्न हुयी । इस समय तैमरी शासकों की राजधानी समरकन्द पर इमामकुली का शासन था । इमामकुली के भाई नजर मुहम्मद ने उजबेकों। को साथ लेकर दो बार काबल पर आक्रमण किया था। अतः शाहजहाँ उसे दण्ड देना। चाहता था परन्तु नजर मुहम्मद द्वारा क्षमा याचना कर लेने पर उनका विवाद समाप्त हो। गया।

1639 ई० में शाहजहाँ ने मध्य एशिया की ओर ध्यान दिया । इस समय इस प्रदेश में। आन्तरिक कलह थी। नजर मुहम्मद इमामकुली को गद्दी से हटाकर स्वयं शासक बन गया था। 1645 ई० में ख्वारिज्म में विद्रोह हुआ। नजर मुहम्मद ने अपने पुत्र अब्दल अजीज को विद्रोह का दमन करने भेजा परन्तु अब्दुल अजीज ने स्वयं को बुखारा का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। शाहजहाँ ने काबुल के सूबेदार का उजबको पर आक्रमण का आदेश दिया । मुगलों ने कुछ प्रदेश जीता किन्तु सर्दियों में वह फिर उसके हाथ से निकल । गया। अतः 1646 ई० में शाहजहाँ ने शहजादा मुराद को बल्ख पर आक्रमण करने भेजा। नजर महम्मद ने भयभीत होकर अपने पुत्र अब्दुल अजीज से संधि कर ली किन्त फिर भी वह हार गया और काबुल पर मुराद का अधिकार हो गया। नजर मुहम्मद भागकर फारस चला गया । शाहजहाँ ने विजय की खुशी में बल्ख में सिक्के चलवाये। भारत की  हरियाली में रहने वाले मुगल सरदार तथा सैनिकों का वहाँ मन नहीं लगा। आना चाहते थे। उजबेको की छापामार युद्ध प्रणाली के कारण उन्हें काबुल छोड़ना पड़ा। इस तरह शाहजहाँ की मध्य एशियाई नीति असफल तथा आर्थिक दृष्टि से सिद्ध हयी । इससे मुगल साम्राज्य को जनधन की भारी हानि हुयी तथा सैनिक बहत धक्का पहुंचा। फारस का शाह भारत पर आक्रमण का स्वप्न देखने लगा।

 

 

 ‘शाहजहाँ का काल मध्यकालीन इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है।’

 

शाहजहाँ का शासन-काल स्वर्ण-युग था शाहजहाँ का शासन-काल मुगल इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। कुछ इतिहासकार इस मत को नहीं मानते । इसमें स्मिथ प्रमुख ह। शाहजहाँ के शासन-काल को। स्वर्णयुग कहा जा सकता है या नहीं, इसका विवेचन करने के लिए दोनों मतों की समीक्षा की आवश्यकता है।

 

(1) शाहजहाँ की प्रजावत्सलता और श्रेष्ठ शासन-

शाहजहाँ की शासन नीति के। बारे में समसामयिक इतिहासकार और विदेशी पर्यटक दोनों ने ही उसकी प्रजवत्सलता और न्यायपूर्ण शासन-व्यवस्था की प्रशंसा की हा समकालीन इतिहासकार खाफी खाने शाहजहाँ की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “विजेता तथा व्यवस्थापक के रूप में अकबर सर्वश्रेष्ठ था, किन्तु जहाँ तक राज्य की व्यवस्था तथा सुप्रबंध, वित्त तथा प्रत्येक विभाग के सुशासन का सम्बन्ध है भारत में कभी कोई ऐसा शासक नहीं हुआ जिसकी तुलना शाहजहाँ से की जा सके।”

 

(2) देश की समृद्धि-

अब्दुल हमीद लाहोरी के कथनानुसार सन् 1644 ई० में। शाहजहाँ के राज्यकोष मे 5 करोड़ 20 लाख रुपये की कीमत के जवाहरात तथा मोती थे।। उसने शाही खानदान की शान-शौकत की वस्तुओं के निर्माण के लिए किलों में कारखाने । खुलवाये। विदेशी व्यापार उन्नति पर था। इसके अतिरिक्त कृषि से भी अब अधिक आय। होने लगी थी।

 

(3) विदेशी व्यापार की अत्यधिक उन्नति-

शाहजहाँ के शासन काल में पश्चिमी । एशिया के देशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्बध पहले की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ हा। गये और यूरोपीय देशों की यहाँ से जिन वस्तुओं का निर्यात किया जाता था उनस। भारतीय व्यापारियों को प्रचुर आय होती थी।

 

(4) शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग-

सामान्यताः शाहजहाँ का शासन-काल व्यापक रूप से शान्ति एवं सुव्यवस्था का युग था। उसक समय में किसी विदेशी शक्ति को भारत। पर आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ। यद्याप उसक शासन काल में कुछ विद्रोह हुए परन्तु वे शाहजहाँ द्वारा सफलतापूर्वक दबा दिये गये।

 

(5) सम्राट का न्यायाप्रयता आर कर्तव्य-परायणता-

शाहजहाँ बड़ा परिश्रमी और कर्तव्य-परायण सम्राट था। वह शासन की सभी समस्याओं को स्वयं देखा करता था। वह न्यायप्रिय शासक था। वह सदैव जनता के साथ निष्पक्ष न्याय करता था। यदि न्यायाधीश अपने कर्तव्य का पालन करने में उदासीनता दिखलाते थे, तो उन्हें कठोर दण्ड देता था।

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(6) वैभव का युग-

शाहजहाँ के शासन काल में वैभव और ऐश्वर्य की दृष्टि से भारत संसार के सभी देशों से आगे था। इस सम्बन्ध में डॉ० त्रिपाठी का कथन है “शानशौकत के प्रेमी शाहजहाँ ने भारतीय साम्राज्य के गौरव को संसार की दृष्टि से बढ़ाने का पूरा प्रयल किया।”

 

(7) वास्तु-कला की उन्नति-

शाहजहाँ के शासन-काल में सांस्कृतिक उन्नति बहुत हुई। शाहजहाँ विद्वानों और कलाकारों का आश्रयदाता था। उसकी व्यक्तिगत अभिरुचि के कारण कला और साहित्य के विकास को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला और राजसभा में  कवियों तथा कलाकारों का निरन्तर जमघट लगा रहता था।

शाहजहाँ के शासन-काल में वास्तुकला का सौन्दर्य खूब निखरा और कला समीक्षकों  के अनुसार शाहजहाँ का समय वास्तुकला का स्वर्ण-युग था। शाहजहाँ ने अनेक भव्य भवनों का निर्माण कराया। उसके शासन काल की सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वविख्यात इमारत ताजमहल है। इसकी गणना संसार की उत्कृष्टतम इमारतों में की जाती है। शाहजहाँ द्वारा निर्मित इमारतों में आगरा की मोती मस्जिद भी विशेष उल्लेखनीय है। दिल्ली में उसने ‘जामा मस्जिद’ और ‘लाल किला’ बनवाया। किले के अन्दर के ‘दीवाने-ए-आम, और ‘दीवाने-ए-खास’ की भीतरी छत चाँदी की थी और इसकी दीवारें बहुमूल्य पत्थरों तथा सोने से जड़ी हुई थीं। दीवारों पर सजावट का काम अति सुन्दर हुआ था। इनके अतिरिक्त उसने लाहौर, कश्मीर तथा अजमेर में भी इमारतें बनवाई। ये सब अपनी कलात्मक श्रेष्ठता के लिए प्रसिद्ध हैं।

 

(8) तख्तताऊस (मयूर सिहासन)-

शाहजहाँ बड़े ठाठ-बाट का बादशाह था। मयूर सिंहासन भी उसकी अद्भुत वस्तुओं में से एक है। यह सिंहासन 32 गज लम्बा, 21 गज चौड़ा व 5 गज ऊँचा था। इसके चंदोबे के बाहरी हिस्से में माणिक लगे हुए थे और। उसके भीतरी भाग में मीनाकारी की हुई थी जिसमें रल लगे थे। यह सिंहासन सात वर्षा। में बन कर तैयार हुआ और इसमें एक करोड़ से अधिक रुपये खर्च हुए।

 

(9) साहित्य की प्रचुर उन्नति-

शाहजहाँ के शासन-काल को हिन्दी कविता के रीति। काव्य का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठित कवि जसे-सेनापति, मतिराम, बिहारी, सुन्दरदास, देव आदि इसी समय म हुए थे। शाहजहाँ का पुत्र दारा। उच्चकोटि का विद्वान तथा फारसी एवं संस्कृत दाना हा भाषाआ का अच्छा ज्ञाता था। उसने संस्कृत के कई उपनिषदों तथा अन्य ग्रन्थों का फारसी भाषा में अनुवाद किया था। ‘बादशाहनामा’ और ‘शाहजहाँनामा’ इस काल के दा एतिहासिक ग्रन्थ हो।

 

(10) संगीत की उन्नति-

संगीत की उन्नति की दृष्टि से शाहजहाँ का शासनकाल चिरस्मरणीय है। दीवान-ए-खास में संगीत के जो आयोजन हुआ करते थे, उनकी टवर्नियर नामक फ्रांसीसी पर्यटक ने काफी प्रशंसा की है। उसके दरबार में प्रसिद्ध संगीतज्ञा लालखौ, जनार्दन भट्ट, सूरसेन आर पण्डितराज जगन्नाथ थे।

 

 

शाहजहाँ के काल के प्रारम्भिक विद्रोहों का विवरण

 

शाहजहाँ 4 फरवरी, 1628 ई० को आगरा के सिंहासन पर बड़ी धूमधाम से बैठा । सिंहासनारूढ़ होते ही उसे निम्नलिखित विद्रोहों का सामना करना पड़ा।

 

(1) जुझारसिंह बुन्देला का विद्रोह-

जुझारसिंह, अबुलफजल के हत्यारे वीरसिंह। बुन्देला का पुत्र था । जहाँगीर के शासन काल में वीरसिंह बुन्देला को राजाश्रय प्राप्त था। उसकी मृत्यु के उपरान्त जुझारसिंह गद्दी पर बैठा, किन्तु वह अपने पिता की भाँति स्वामिभक्त नहीं था। इधर शाहजहाँ ने उस पर यह आरोप भी लगाया कि उसके पिता ने अनुचित रूप से कुछ सम्पत्ति प्राप्त की थी । इस आरोप को जुझारसिंह ने अपना अपमान समझा तथा राजधानी ओरछा पहुँचकर उसने विद्रोह कर दिया । शाहजहाँ ने महावत खाँ। की अध्यक्षता में शाही सेना को बन्देलों पर विजय हेतु भेजा । इस युद्ध में महावत खाँ। विजयी हुआ तथा जुझारसिंह को शाहजहाँ से माफी मांगनी पड़ी तथा काफी धन हर्जान के रूप में शाहजहाँ को देना पड़ा । कुछ समय बाद जुझारसिंह ने अपने पड़ोसी नारायण का वध कर दिया तथा चौरागढ़ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया । इस पर शाहजहाँ ने उसको राजकोष में 10 लाख भेजने की आज्ञा दी, किन्तु जुझारसिंह ने इस ओर कोई। ध्यान नहीं दिया । औरंगजेब के नेतत्व में विशाल सेना भेजी गयी । जुझारसिंह मारा। गया। उसके दो पुत्रों को मुसलमान बना लिया गया, तीसरे की हत्या कर दी गई । कुछ। स्त्रियों को शाही हरम में भी भेज दिया गया था। साथ ही शाहजहाँ ने जुझारसिंह की। समस्त सम्पत्ति को लूट लिया । मन्दिरों को नष्ट कर उसके स्थान पर मस्जिद बना दी। गयी।

 

(2) खानेजहाँ लोदी का विद्रोह-

खानेजहाँ लोदी एक अफगान सरदार था । जहाँगीर के शासन काल में वह दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया गया था । उसने अहमदनगर के सुल्तान से मिलकर तीन लाख की घूस लेकर उसे बालाघाट सौंप दिया ।। जहाँगीर की मृत्यु के कारण उसके राजद्रोह पर कोई कार्यवाही न हो सकी अतः उसका। साहस बढ़ गया । जब शाहजहाँ का दूत संदेश लेकर बुरहानपुर पहुंचा तब खानेजहाँ ने उसकी उपेक्षा की और कहला दिया कि वह शाहजहाँ की सेवा करने में असमर्थ था । इससे शाहजहाँ रुष्ट हो गया । शाहजहाँ के सिंहासनारुढ़ होने तथा उसके अजमेर पहुँचने का समाचार मिलते ही खानेजहाँ के राजपूत सहयोगी राजा जयसिंह तथा राजसिंह ने उसका साथ छोड़ दिया।

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खानेजहाँ ने तुरन्त स्थिति समझते ही अपना संदेशवाहक आगरा भेजकर क्षमा माँग। ली। शाहजहाँ ने उसे क्षमा कर खानदेश तथा बरार का सूबेदार बना दिया । शाहजहाँ ने शाहजहाँ ने उसे मालवा भेज दिया। उसे दक्षिण के खोये राज्यों को जीतने का आदेश दिया, किन्तु उसके ऐसा न करने पर शाहजहाँ ने उसे मालवा भेज दिया।

खानेजहाँ ने पूनः विद्रोह कर दिया। अतः शाहजहाँ ने ख्वाजा अबल हसन के नेतृत्व में एक सेना उसके पीछे भेजी । खानेजहाँ और उसका पुत्र युद्ध क्षेत्र से भाग निकला तथा अहमदनगर जा पहुंचा। उसने अहमदनगर के शासक से गठबंधन कर लिया किन्त यह गठबंधन अधिक स्थायी न रह सका । बाद में वह भागकर बुंदेलखण्ड पहुँचा | शाही सेना ने जो उसका निरंतर पीछा कर रही थी, उसे परास्त कर उसका वध कर दिया।

(3) बुन्देलों का विद्रोह-

1628 ई० में ओरछा शासक विक्रमाजीत ने जनता से कठोरतापूर्वक मालगुजारी वसूल की अतः शाहजहाँ ने इस कार्य की जाँच-पड़ताल की आज्ञा दी । सशंकित हो जुझारसिंह दरबार छोड़कर बुंदेलखण्ड भाग गया ।

शाहजहाँ बुंदेलखण्ड तथा बुंदेलों की वीरता से परिचित था, इसलिए उसने अनेक तरफ से बुंदेलखण्ड पर आक्रमण करने का आदेश दिया । विवश होकर जुझारसिंह ने 1629 ई० में आत्मसमर्पण कर दिया । बादशाह ने उसे क्षमा कर दिया तथा दक्षिण भारत के युद्ध में नियुक्त किया। 1635 ई० में उसने पुनः विद्रोह कर दिया । औरंगजेब को उसके दमन के लिए भेजा गया । जुझारसिंह पराजित हआ तथा उसका पुत्र मारा गया। बाद में जुझारसिंह का। शीश काटकर दरबार में भेजा गया । देवीसिंह को वहाँ का शासक बनाया गया ।।

 

 

शाहजहाँ के शासन-काल के अंत में हुए उत्तराधिकार के युद्ध पर वृत्तान्त

 

भूगलों की शासन व्यवस्था में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं । अतः शासक की मृत्यू होते ही उत्तराधिकार के लिए युद्ध होना एक परम्परा-सी थी। हुमायू, अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ को सिंहासन के लिए संघर्ष करना पड़ा शाहजहाँ के शासन काल के अंत में उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध हए।

शाहजहाँ के चार पुत्र थे-दाराशिकोह, शुजा, औरंगजेब और मुराद तथा दो पुत्रियाँ जहाँआरा और रोशनआरा थीं। शाहजहाँ के चारो पुत्र परस्पर प्रतिद्वन्द्वी थे। शाहजहाँ ने उन्हें अलग-अलग प्रांतों का सूबेदार नियुक्त किया था। दाराशिकोह शाहजहाँ का ज्येष्ठ पुत्र था। वह उदार विचारों वाला था। उसकी अध्ययन में रुचि थी किन्तु उसमें सैनिक प्रतिभा एवं कूटनीतिज्ञता का सर्वथा अभाव था। वह पंजाब का सूबेदार था। वह शाहजहाँ का प्रिय था अतः शाहजहाँ उसे ही अपना । उत्तराधिकारी बनाना चहता था किन्तु अपनी अयोग्यता के कारण वह शासक न बन सका।

शुजा शाहजहाँ का द्वितीय पुत्र था बुद्धिमान, वीर, साहसी और एक योग्य सैनिक या किन्तु वह बड़ा विलासी तथा आमोद-प्रमोद प्रिय था। अतः वह भी गद्दी न प्राप्त कर सका। शाहजहाँ का तृतीय पुत्र औरंगजेब था। वह भाइयों में सबसे अधिक चतुर, साहसी। दृढ़प्रतिक्षा एवं योग्य सैनिक था। उसमें कूटनीतिज्ञता तथा समय और परिस्थिति की। पहचानने की विलक्षण प्रतिभा थी। शाहजहाँ का चौथा पुत्र मुराद मई, मद्यप और विलासी था। उसमें शासक होने के गुण नहीं हैं।

शाहजहाँ की मृत्यु का समाचार मिलते ही शुजा और मुराद ने स्वयं को सम्राट घोषित । कर दिया। अतः दारा ने उनको दबाने के लिए सेना भेज दी। बनारस के पास दारा के। पत्र सलेमान शिकोह से राजा की मठभेड हुई और युद्ध में शुजा की पराजय हुई औरंगजेब ने शुजा का साथ देकर संयुक्त रूप से दारा का मुकाबला करने का निर्णय लिया।

1658 ई० में दोनों की संयक्त सेना में शाही सेना से मुकाबला किया। परमत नामका स्थान पर दोनों पक्षों में भयंकर यह हुआ जिसमें शाही सैना की हार हुयीं। इस युद्ध का फलस्वरूप औरंगजेब और मराद को सैनिक प्रतिष्ठा एवं मनोबलम वृद्धि हुयी दाराशिकोह अपनी खोई प्रतिष्ठा पनः प्राप्त करने के लिए एक विशाल सेना के साथ। 1658 ई० में सामूगढ़ के निकट आ इटा और घमासान युद्धहा । विवश हा बारा का रणक्षेत्र से भोगना पड़ा। मराद और जारगजेब विजयी हुए।

औरंगजेब आगरा पहुँच गया। उसके पुत्र महम्मद ने पहरेदारों को मार कर शाहजहाँ की कैद में डाल दिया। आगरा पर अधिकार होने के बावजूद भी दारा और मुराद के बंदी बना लिया और उसका वध करवा दिया। जीवित रहते औरंगजेब का साम्राज्य निष्कंटक नहीं बन पाया था अतः उसने मुराद को बंदी बना लिया और उसका वध करवा दिया।  औरंगजेब एक विशाल सेना के साथ वारा और उसके पुत्र की तलाश में निकल पड़ा। कई महीनों की मुसीबतों के बाद उसकी मुठभेड़ दारा से हुयी जिसमें दारा पराजित हुजा। पराजित दारा को फटे-चिथड़े कपड़े पहनाकर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया। उसने दारा का भी वध करवा दिया। शुजा अराकान की पहाड़ियों में जा छिपा था। वहाँ के लोगों में उसका वध कर दिया। इस प्रकार औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। 1559 ई० में वह दिल्ली का सुल्तान बन बैठा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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