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नूरजहां किस मुगल सम्राट की पत्नी थी?

नूरजहां किस मुगल सम्राट की पत्नी थी?

 

 

नूरजहाँ का चरित्र

 

नूरजहाँ जहाँगीर की बेगम थी । सन् 1611 ई०से लेकर 1627 ई० तक मुगल दरबार में साम्राज्ञी नूरजहाँ एक प्रभावशाली और शक्तिशाली महिला बनी रही । उसका व्यक्तित्व तथा चरित्र उच्चकोटि का था । उसमें न केवल अनुपम शारीरिक सौन्दर्य । ही था, वरन् वह उदार, वीर, साहसी और प्रजापालक भी थी । उसमें बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता भी उच्चकोटि की थी । वह सुशिक्षित तथा सुसंस्कृत महिला थी। कलाओं से उले विशेष प्रेम था । उसने अनेक नये फैशनों, आभूषणों, प्रसाधनों तथा आचार-व्यवहारों । को जन्म दिया । उसने बहुत-सी निर्धन कन्याओं के विवाह कराये और हजारों दीन  दुखियों की सहायता की।

मध्यकालीन भारतीय इतिहास में नूरजहाँ सबसे अधिक प्रभावशाली महिला दी। नूरजहाँ अतीव सुन्दरी, सुसंस्कृत और आकर्षक महिला थी । वह बड़ी विदुषी, साहसी, महत्त्वाकांक्षी और दूरदर्शी भी थी। उसने जहाँगीर को अपने मोहपाश में बाँधकर लगभग 15 वर्षों तक मुगल राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित किया । एक कवियित्री के रूप  में उसने अनेक रागों का आविष्कार किया । उसने अनेक नये फैशन चलाये । उदारता और दानशीलता के क्षेत्र में भी नूरजहाँ बहत बढ़ी-चढ़ी थी। उसने लगभग 500 कन्याओं के विवाह करवाये और गरीबों, दीन-दुखियों तथा असहायों की सहायता की । कूटनीतिज्ञ के रूप में नूरजहाँ ने मुगल दरबार की राजनीति को अपने इशारे पर चलाया और एक । लम्बे समय तक मुगल साम्राज्य की धुरी बनी रही।

 

 

दरबार की राजनीति में नूरजहाँ का महत्त्व ।

 

जहाँगीर से विवाह होने के उपरान्त उसने सम्राट् पर अपना पूर्ण नियन्त्रण स्थापित कर लिया और शासन प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया । राजसिंहासन के पीछे वहीं  वास्तविक शक्ति थी । उसने अपने पिता और भाई को उच्च पदों पर नियुक्त कराया । उसने अपनी पुत्री लाडली बेगम (जो उसके पहले पति से थी) का विवाह जहाँगीर के पुत्र। शहजादा शहरयार से करके अपने प्रभुत्व में और भी अधिक वृद्धि कर ली। उसने अपन। पिता को एतमातुद्दौला और भाई को आसफ खाँ की उपाधियों से विभूषित किया ।  नूरजहाँ ने बड़ी कुशलता से शासन का संचालन किया और अपने पति के व्यसनों को भी। कम करने का प्रयास किया । नूरजहाँ दरबारी गुटबन्द्रियों और षडयन्त्रों में भी उलझ गया। थी। पहले वह अपने भाई आसफ खाँ और उसके दामाद शहजादा खुर्रम (शाहजहा) का साथ थी ।

अब नूरजहाँ ने अपनी पत्री लाडली बेगम का विवाह शहजादा शहरयार का साथ कर दिया तो वह शहरयार को मगल बादशाह बनाने की इचाक हो गयी । लेकिन उसके भाई आसफ खाँ ने धोखा देते ए शहजादा खर्रम को उत्तराधिकार के संघर्ष में विजय दिला दी और नूरजहाँ यहाँ पर पराजित हो गयी थी। अतः जहाँगीर की मृत्यु के उपरान्त नूरजहाँ के अधिकारों की समाप्ति हो गयी और शाहजहाँ ने उसकी उचित पेंशन नियत कर दी। यह लाहौर में अपनी पुत्री लाडली बेगम के साथ रहने लगी। डॉ० बेनी प्रसाद ने लिखा है कि, “नूरजहाँ प्रथम मुगल महिला थी, जिसने लगभग १५ वर्षों तक मुगल राजनीति पर अपना प्रभुत्व जमाये रखा ।”

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जहाँगीर के चरित्र का मूल्यांकन

 

जहाँगीर का प्रारम्भिक जीवन जहाँगीर का जन्म 30 अगस्त, 1659 ई० को हुआ। उसकी माँ अम्बर के राजा बिहारीमल की पुत्री जोधाबाई थी। इस प्रकार जहाँगीर की नसों में राजपूत एवं मुसलमानी खून का मिश्रण था। कहा जाता है कि जहाँगीर का जन्म शेख सलीम चिश्ती नामक सन्त  के आशीर्वाद से हुआ था। इसी कारण उसका नाम सलीम रखा गया।

अकबर ने सलीम की शिक्षा का भार अब्दुर्रहीम खानखाना को सौंपा। उनके संरक्षण में सलीम ने विभिन्न भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया और साथ ही साथ सैनिक शिक्षा भी। प्राप्त की। जब जहाँगीर 15 वर्ष का हुआ तभी उसका विवाह आमेर के राजा भगवानदास की पुत्री मानवाई के साथ कर दिया गया। । सन् 1600 ई० में सलीम ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, परन्तु वह दवा दिया गया। अकबर में उसे क्षमा कर दिया और उसे राजधानी से दूर बंगाल और उड़ीसा का सूबेदार बनाकर भेज दिया। अकबर की मृत्यु के बाद वह 1605 ई० में राज्य । सिंहासन पर बैठा । उसने अपना नाम जहाँगीर रखा। सिंहासन प्राप्त करने के शुभ अवसर। पर उसने उदारता का परिचय दिया। 1627 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

जहाँगीर के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(1) जहाँगीर न्यायी सम्राट था। सताये हुए व्यक्ति की फरियाद सम्राट स्वयं सुनने को। हर समय तैयार रहता था।

(2) वह स्वभाव से विनम्र था।

(3) उसम घामिक सहिष्णाता। थी। वह हिन्दुओं के साथ अच्छा व्यवहार करता था परन्तु फिर भी उसका दाष्टकोण अपने पिता के समान व्यापक नहीं था।

(4) वह विद्वान एवं कला-ग्रमी शासक था। उसने उन्हें प्रोत्साहन एवं संरक्षण दिया। उसे चित्रकारी का भारी शोक था।

(5) वह बुद्धिमान, । चतुर एवं प्रभावशाली व्यक्ति था परन्तु उसके दुगुणों के कारण इनको विकसित होने का अवसर नहीं मिला। यदि वह अपने दुर्गुणों का दास न बनता तो यह एक श्रेष्ठ शासनाक रूप में विख्यात होता ।

(6) वह विलासी सम्राट था। उस शराब पीने की बुरी लत थी। वह आराम पसन्द शासक था। उसकी अकर्मण्यता के कारण ही बागडोर नूरजहाँ के हाथ में आ गई थी।

(7) उसमें विरोधी गुणों का सम्मिश्रण था। उसमें क्रूरता और दयालता । बर्बरता और संस्कृति, न्यायप्रियता और स्वेच्छाचारिता का सम्मिश्रण था।

 

राजपूतों के साथ जहाँगीर के सम्बन्ध

 

अकबर आजीवन मेवाड़ से संघर्धरत रहा, किन्तु उसे वह अपने आधीन नहीं कर सका । सम्राट बनने के बाद जहाँगीर ने मेवाड़ पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न जारी रखा। इसके लिए उसने मेवाड़ पर तीन अभियान किये।

मेवाड़ के विरुद्ध दो अभियानों की असफलता के बाद जहाँगीर ने स्वयं मेवाड़ विजय का काम अपने हाथ में लिया । उसने 1613 ई० में आगरा से चलकर अजमेर को अपना केन्द्र बनाकर खुर्रम को सेना का प्रधान बनाया । दो वर्षों के लगातार कठिन संघर्ष के पश्चात् खुर्रम को अपने अभियान में सफलता प्राप्त हुयी । राजपूतों मै मुगलों का सामना बड़ी बीरता और साहस से किया किन्तु वे मुगलों की प्रगति न रोक सके । मुगलों। को उन सभी भूभागों की पुनः प्राप्ति हो गयी, जो उनके हाथ से चले गये थे । लगातार युद्धों से मेवाड़ की दशा सोचनीय हो गयी थी अतः विवश होकर मेवाड़ के राणा अमरसिंह ने 1615 ई० में खुर्रम से संधि कर ली । इस संधि की निम्नलिखित शर्ते थी-

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(1) राणा और उसका पुत्र करण मुगलों के आधीन हो गये तथा उनके साम्राज्य की आधीनता स्वीकार कर ली।

(2) राणा को दरबार में व्यक्तिगत उपस्थिति से मुक्त कर दिया गया।

(3) चित्तौड़ राणा को सौटा दिया गया।

इस तरह अपने तीसरे अभियान में जहाँगीर को मेवाड़ के राजपूतों पर विजय पाने में सफलता मिली । इनके बीच हुवी मुगल-मेथाइ संधि दोनों राज्यों के इतिहास में युग परिवर्तन की सूचक थी। तत्पश्चात् दोनों के मध्य संघर्ष के स्थान पर सहयोग का सूत्रपात हुआ। मुगल सम्राट जहाँगीर ने मेवाड़ के शासक की आधीन बनाकर भी पूरा सम्मान दिया । जहाँगीर के लिए मेवाड़ पर सफलता गौरव की बात दी।

मेवाड़ को उदार शते देकर तथा राजपूतों के प्रति मैत्री नीति अनुसरण करके जहाँगीर ने उन्हें मुगल साम्राज्य का राजभक्त बना दिया । औरंगजेब के समय तक बै मुगल साम्राज्य के प्रति राजभक्त बने रहे।

 

 जहाँगीर की दक्षिण नीति का मूल्यांकन

 

जहाँगीर मै दक्षिण में अपने पिता की साम्राज्यवादी नीति अपनाई । अकबर खानदेश और अहमदनगर के कुछ भागों पर ही अपना अधिकार स्थापित कर पाया था। बीजापुर और गोलकण्डा पूर्णतः स्वतन्त्र थे । अहमदनगर भी पूरी तरह आधीन माह अकबर की मत्य के पश्चात् निजामशाही राजवशक मन्त्री मालक अम्बरन अहमदनगर के खोये प्रदेशों को मुगलों से वापस जीतकर पुनः एक स्वतन्त्र तथा शक्तिशाली राज्यको रूप में अहमदनगर को परिणित कर लिया था।

जहाँगीर ने 16080 में अब्दरहीम खानखाना के नेतृत्व में अहमदनगर पर आक्रमण के लिए भेज दी। बाद में 1610 ई में राजकुमार परवेज को भी अतिरिक्त सेना के साथ वहाँ भेजा गया किन्तु फिर भी उन्हें सफलता नहीं 1616 ई० में दक्षिण अभियान का नेतृत्व खुर्रम को सौंपा गया, तब मुगलों ने अहा तथा कछ अन्य गढ़ों पर अधिकार कर लिया। खुरम की इस सफलता से जहाँगीर ने उसे शाहजहाँ (संसार का राजा) की उपाधि प्रदान की, किन्तु विजय स्थायी न रह सकी।

1620 ई० में मलिक अम्बर ने अहमदनगर तथा बरार का बहुत क्षेत्र पनी लिया । अतः विवश होकर जहाँगीर ने शाहजहाँ को दक्षिण भेजा । शाहजहाँ के युद्ध से घबराकर मलिक अम्बर ने मुगलों से संधि कर ली । इसके बाद बहुत समय तक जहाँगीर, शाहजहाँ और महावत खाँ के विद्रोह के कारण दक्षिण भारत की ओर ध्यान देने का जहाँगीर को अवसर न मिल सका ।

 

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