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शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त और मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त | General Principles of Teaching in Hindi

इस पोस्ट में हम लोग शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त क्या होते है, शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त क्या होते हैं आदि का वर्णन करेेगें।

 

 शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त(General Principles of Teaching)

एक सफल शिक्षण के लिए यह परम आवश्यक है कि शिक्षक को इस बात का ज्ञान होना चाहिये कि वह छात्रों को किन विधियों से पाठ्यवस्तु को समझा सकता है। क्योंकि शिक्षण विधियाँ कछ सिद्धान्तों पर आधारित होती हैं, अत: शिक्षक को शिक्षण देते समय कुछ सामान्य व आधारभूत सिद्धान्तों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। शिक्षण में सिद्धान्तों की आवश्यकता के अनेक कारण हैं :

1.छात्रों के विकास के क्रम की अवस्थाओं में अन्तर होता है,

2. छात्रों में व्यक्तिगत भिन्नता होती है,

3. अधिगम परिस्थितियाँ भी कई प्रकार की होती हैं

4. शिक्षण के अनेक स्तर होते हैं,

5. शिक्षण के अनेक उद्देश्य होते हैं,

6. शिक्षण की परिभाषा विभिन्न तरीके से की जा सकती है: एवं

7. शिक्षण की पाठ्य-सामग्री विभिन्न प्रकार की होती है।

 

इस प्रकार प्रतीत होता है कि विभिन्न विषयों व विभिन्न प्रकरणों को पढ़ाने के लिए शिक्षण विधि में परिवर्तन करना आवश्यक है। लेकिन इन विभिन्नताओं के हो कुछ सामान्य सिद्धान्तों का वर्णन कर सकते हैं, जो हर प्रकार के पाठ व हर प्रकार के प्रकरण में शिक्षक को ध्यान में रखने चाहिये। कुछ सामान्य सिद्धान्त निम्न हैं:

 

1. रुचि जागृत करने का सिद्धान्त :

पिन्सेट ने अपनी पुस्तक ‘दी प्रिन्सीपल्स ऑफटीचिंग मैथड” में कहा है कि “जब तक छात्रों में सक्रिय रुचि नहीं होगी, तब तक शिक्षक का सर्वोत्तम कार्य नहीं होगा।” अतः शिक्षण को उपयोगी तथा प्रभावशाली बनाने के लिए विद्यार्थी की पाठ्य-विषय में रुचि उत्पन्न किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। क्रियाशीलता के सिद्धान्त, प्रेरणा के सिद्धान्त, जीवन से सम्बन्धित करने आदि सिद्धान्तों का अनुसरण करना, विद्यार्थी की जिज्ञासा को जागत करना, उसे पाठ का उद्देश्य स्पष्ट करना, पाठ्य-विषय का विद्यार्थी की क्रियाओं और उद्देश्यों से सम्बन्ध स्थापित करना आदि सिद्धान्तों को अनुसरित कर छात्रों में विषय के प्रति रुचि उत्पन्न की जा सकती है, जैसे हिन्दी साहित्य के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए विद्यालय में पाठ्यक्रम के साथ-साथ वाद-विवाद, अन्त्याक्षरी, निबन्ध लेखन, कविता पाठ आदि प्रतियोगिताएँ भी समय-समय पर आयोजित की जाएँ। विज्ञान और गणित जैसे विषयों में भी रुचि उत्पन्न करने हेतु प्रेरक प्रसंग, रोमाञ्चक घटनाओं को शिक्षण के मध्य प्रयोग में लाया जाना चाहिए।

 

2. क्रियाशीलता का सिद्धान्त :

डब्ल्यू.एम. रायबर्न ने क्रियाशीलता के सिद्धान्त के बारे में कहा है कि “छात्र की क्रियाशीलता का सिद्धान्त सम्पूर्ण शिक्षण में सर्वप्रथम महत्त्व रखता है।” मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाशास्त्रियों ने करके सीखने (Learning by doing) पर विशेष बल दिया है, जिसमें फ्रॉबेल, थॉर्नडाइक आदि महत्त्वपूर्ण हैं। फ्रॉबेल का कथन है कि “बालक क्रिया के द्वारा ही कार्य को सीखता है, अतः जहाँ तक सम्भव हो सके, उसे ‘करके सीखने’ का अवसर दिया जाना चाहिए।” कॉमेनियस ने इसी बात को अपने शब्दों में इस प्रकार कहा है, “विद्यालयों में छात्रों को लिखना, लिख करके,बात करना बात करके गाना गा करके और तर्क करना, तर्क करके सीखने दो।” प्रत्येक बालक जन्म से कुछ मूल प्रवृत्तियों को लेकर पैदा होता है उनमें से ही एक प्रवृत्ति रचना करने की है। इस प्रवृत्ति के आधार पर बालक प्रायः हर समय कुछ न कुछ करता ही रहता है। उसकी इस क्रियाशीलता का जितना अधिक उपयोग शिक्षण में किया जायेगा, शिक्षण उतना ही प्रभावशाली व सुग्राह्य होगा, किन्तु क्रियाशीलता या करके सीखने के सिद्धान्त का अर्थ यह नहीं है, कि केवल विद्यार्थी स्वयं ही नई बात को सीखने के लिए क्रियाशील हो, अपितु इसका अर्थ है कि शिक्षक भी छात्रों को नई-नई बातों को सीखने के लिए क्रियाशील बनायें।

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अंग्रेजी शिक्षण करते समय पाठ्यक्रम में निर्धारित नाटक को स्वयं पढ़ाने की अपेक्षा शिक्षक विभिन्न पात्रों की भूमिका छात्रों से ही अदा करवाये जिससे छात्रों का भाषा पर अधिकार हो सके। इस सिद्धान्त में विद्यालय में आयोजित की जाने वाली पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ भी शिक्षक के लिए बहुत सहायक हो सकती हैं।

 

3. प्रेरणा का सिद्धान्त:

प्रेरणा और अधिगम सहचर हैं। जो छात्र जितना अधिक प्रेरित होगा उसका उतना ही अधिक अधिगम होगा। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है, क्योंकि प्रेरणा, रुचि तथा क्रियाशीलता उत्पन्न करती है. अतः बालक को सीखने के लिए प्रेरित करना चाहिए। सामान्यतः यह पाया जाता है कि छात्र कठिन प्रकरणों में रुचि नहीं लेते, उसका मूल कारण उनमें शिक्षक द्वारा दी जाने वाली प्रेरणा की कमी होती है, अत: अध्यापक का कर्तव्य है कि वह पाठ्य-सामग्री को इस तरह प्रस्तुत करे, ताकि छात्रों को प्रेरणा व रुचि मिले। जैसे इतिहास शिक्षण में छात्रों को ऐतिहासिक घटनाओं के ज्ञान में तो रुचि होती है, लेकिन तिथियों को याद करने में उनकी रुचि बहुत कम पाई जाती है, अतः शिक्षक को घटनाओं का वर्णन इस तरह से करना चाहिए कि छात्रों में स्वत: ही तिथियों के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाये।

 

4. जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धान्त :

सामान्यत: छात्र उन विषयों को सरलता से सीख लेते हैं, जिनका सम्बन्ध उनके जीवन से होता है, अतः शिक्षक को चाहिए कि वह अपने शिक्षण में नवीन विषयों का प्रस्तुतिकरण छात्रों के पूर्व अनभवों से जोड़ते हुए करे। ऐसा करने से बालक नये अनुभव व ज्ञान को सरलता से सीखकर अपने जीवन का अभिन्न अंग बना सकता है।

 

5. नियोजन का सिद्धान्त:

किसी भी कार्य को सुव्यवस्थित ढंग से सम्पन्न करने हेतु पूर्वयोजना अत्यन्त आवश्यक होती है, अतः शिक्षक को शिक्षण प्रारम्भ करने से पूर्व निश्चित तथा व्यवस्थित शिक्षण-क्रम की पाठयोजना तैयार करनी चाहिए। इससे वह शिक्षण के समय आने वाली समस्याओं का निवारण कर अपने उद्देश्यों की प्राप्ति सरलता से कर सकता है तथा शिक्षक की समय व शक्ति का अपव्यय नहीं होता तथा शिक्षण भी व्यवस्थित और क्रमबद्ध हो सकता है।

 

6. निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त :

शिक्षण एक सोद्देश्य क्रिया है। प्रतिदिन कक्षा में जाने से पूर्व शिक्षक को अपने पाठ का कोई न कोई निश्चित लक्ष्य व उद्देश्य अवश्य निर्धारित करना चाहिए, क्योंकि उद्देश्य के अभाव में शिक्षक ऐसे नाविक के समान हो जाता है, जिसे अपने गन्तव्य का ही पता नहीं, तथा सीखने वाले विद्यार्थी की दशा उस पतवारविहीन नौका के समान हो जाती है, जो समुद्र की आने वाली लहरों के थपेड़े खाती हुई बह रही हो, अत: पाठ को प्रभावशाली बनाने के लिए निश्चित व स्पष्ट उद्देश्यों का निर्धारण शिक्षक के लिए अत्यावश्यक है।

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7. चयन का सिद्धान्त :

आधुनिक शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में शिक्षक के लिए यह सम्भव नहीं कि वह विषय के सभी पक्षों का विस्तृत व गहन ज्ञान सीमित समय में अपने छात्रों को दे सके, अतः शिक्षक का यह परम कर्त्तव्य हो जाता है कि वह केवल उन विषयों तथा पक्षों का चयन करे जो छात्रों के लिए उपयोगी हों।

 

8. विभाजन का सिद्धान्त :

कई बार पाठ्य-सामग्री इतनी जटिल तथा विस्तृत होती है कि छात्रों के समक्ष समग्र रूप में विषय को प्रस्तुत करना सम्भव नहीं होता, अत: पाठ्य-सामग्री को कुछ अन्वितियों अथवा इकाइयों (Units) में बाँट लेना चाहिए। लेकिन इकाइयों का विभाजन करके विद्यार्थियों के समक्ष पाठ को इस तरह प्रस्तुत करना चाहिए, जिससे प्रत्येक इकाई (Unit) अपने में पूर्ण हो तथा दूसरी इकाई तक पहुँचने के लिए छात्रों में जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला भी हो। इस विभाजन से पाठ अत्यन्त सरल हो जाता है और विद्यार्थी इसका ज्ञान बिना किसी कठिनाई के ग्रहण कर लेते हैं।

 

9. वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धान्त :

मनोवैज्ञानिक अनुसन्धानों से यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रत्येक विद्यार्थी स्वभाव, रुचि, आवश्यकता, योग्यता, अभियोग्यता तथा बुद्धि में एक-दूसरे से भिन्न होता है, अतः शिक्षक के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह शिक्षण में वैयक्तिक भिन्नताओं का ध्यान रखे। मन्दबुद्धि तथा पिछड़े हुए छात्रों के साथ शिक्षक को सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

 

10. आवृत्ति का सिद्धान्त :

शिक्षकों को चाहिए कि पढ़ाये गये पाठ की आवृत्ति का अवसर भी छात्रों को प्रदान करें। इसमें इस बात का ध्यान रखा जाये कि जो विषय जितना कठिन है, उसकी आवत्ति उतनी ही अधिक बार करवायी जानी चाहिए। अनुसन्धानों तथा मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से यह बात स्पष्ट हो चकी है कि बिना प्रयोग अथवा अभ्यास के याद किया हुआ विषय विस्मृत (Forgetting) आधार मिलता है। हो जाता है। आवृत्ति से अर्जित ज्ञान को पुनर्बलन तथा आगे के पाठों को सीखने का सुदृढ़ ।

 

11. लोकतन्त्रीय व्यवहार का सिद्धान्त :

शिक्षक को छात्रों के व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वचिन्तन एवं स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अधिकाधिक अवसर प्रदान करने चाहिएँ ताकि वे लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकें। ऐसा करने से छात्रों में आत्मविश्वास, स्वाधीनता, स्वावलम्बन, निर्भीकता, नेतृत्वता, आत्मसम्मान जैसे चारित्रिक गुणों का विकास हो सकेगा।

 

12. मनोरंजन का सिद्धान्त :

इस सिद्धान्त के अनुसार छात्रों से ऐसे क्रियाकलाप करवाये जाते हैं, जो उनमें मनोरंजन के साथ-साथ सृजनात्मकता, विषय के प्रति रोचकता तथा आत्माभिव्यक्ति जैसे गुणों का विकास करते हैं।

 

13. सहसम्बन्ध का सिद्धान्त :

विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विभिन्न विषयों को परस्पर सम्बन्धित करके पढ़ाने से शिक्षण अधिक रोचक व प्रभावकारी बनता है, अत: शिक्षण में सहसम्बन्ध के सिद्धान्त को अधिक से अधिक प्रयोग में लाकर छात्रों में अधिगम-अन्तरण की क्षमता पैदा करनी चाहिए।

 

शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त :

उपर्युक्त वर्णित सामान्य सिद्धान्तों के अतिरिक्त शिक्षण प्रक्रिया के कतिपय ऐसे मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त हैं, जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, वे निम्नलिखित हैं :

1. अभिप्रेरणा एवं रुचि का सिद्धान्त,

2. मनोरंजन का सिद्धान्त,

3. आवृत्ति और अभ्यास का सिद्धान्त,

4. सृजनात्मकता और आत्माभिव्यक्ति का सिद्धान्त,

5. ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करने का सिद्धान्त,

6. सहानुभूति और सहयोग का सिद्धान्त,

7. पुनर्बलन का सिद्धान्त, एवं उपचारात्मक शिक्षण का सिद्धान्त।

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