प्लेटो(Plato)[४२८ ई.पू. से ३४५ ई.पू.]
सुकरात के परम् मेधावी शिष्य प्लेटो ग्रीस के ही नहीं, वरन् विश्व की विभूति माने जाते हैं। ये सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे। पाश्चात्य जगत् में सर्वप्रथम सुव्यवस्थित दर्शन को जन्म देने वाले प्लेटो ही हैं। इन्होंने मनोविज्ञान, तत्त्व-विज्ञान, नीति-विज्ञान, धर्म शास्त्र, सौन्दर्य-शास्त्र आदि सभी शास्त्रों पर यथोचित विचार किया है। प्लेटो के पूर्व भी ग्रीस में अनेक दार्शनिक हुए, परन्तु उनका दर्शन, केवल दार्शनिक सुझाव तथा संकेत तक ही सीमित था।
प्लेटो ने अपने पूर्ववर्ती सभी दार्शनिको के विचार का अध्ययन कर सभी में से उत्तम विचारों का पर्याप्त संचय किया। उदाहरणार्थ, माइलेशियन का द्रव्य, पाइथागोरस का स्वरूप, हेरेक्लाइटस का परिणाम, पार्मेनाइडीज का परम सत, जेनो का द्वन्द्वात्मक तर्क तथा सुकरात के प्रत्ययवाद आदि उनके दर्शन के स्रोत है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती विचारकों का भी आदर किया। परन्तु उनका दर्शन केवल पूर्व विचारों का संग्रह ही नहीं है। प्लेटो सर्वतोभावेन मौलिक दार्शनिक है। इनकी सभी दार्शनिक समस्याएँ मौलिक हैं तथा उनके समाधान भी मौलिक है। इतना अवश्य है कि प्लेटो के पूर्व सभी दार्शनिक उनके प्रेरणा के स्रोत हैं। प्लेटो ने जिस क्षेत्र में विचार किया है, वह क्षेत्र महत्त्वपूर्ण हो गया।
प्लेटो का जन्म एथेन्स के समीपवर्ती ईजिना नामक द्वीप में हुआ था। उनका परिवार सामन्त था। उनके पिता अरिस्टोन तथा उनकी माता पेरिक्टोन इतिहास प्रसिद्ध कुलीन नागरिक थे। बाल्यावस्था में ही उनके पिता की मृत्यु हो गयी, अतः प्लेटो का पालन-पोषण उनके सौतेले पिता पादरी लेम्पीज ने किया। सर्वप्रथम उन्होंने संगीत, कविता, चित्रकला आदि का अध्ययन किया। ४०४ ई. पू. ये सुकरात के शिष्य बने तथा सुकरात के जीवन के अन्तिम क्षण तक उनके शिष्य बने रहे। सुकरात की मृत्यु के बाद प्रजातन्त्र के प्रति इन्हें घृणा हो गयी। इन्होंने मेगारा, मिस्र, साएरीन, इटली और सिसली आदि देशों की यात्रा की तथा अन्त में एथेन्स लौटकर अकादमी की स्थापना की और अन्त तक इसके प्रधान आचार्य बने रहे। ई. पू. ३४५ में इनका देहान्त हो गया। प्लेटो की प्रमुख कृतियों में इनके संवाद का नाम विशेष उल्लेखनीय है। प्लेटो ने पैंतीस संवादों की रचना की है। इनके संवाद तीन भागों में कि किये जाते हैं:-
१. सुकरात कालीन संवादः इसमें सुकरात की मृत्यु से लेकर मेगारा पर तक की रचनाएँ हैं। इनमें प्रमुख हैं: हिप्पीयस माइनर (Hippis minor) एपोलोजी (Apology), क्रीटो (Crito), प्रोटागोरस (Protagors) आदि।
२. यात्राकालीन संवादः इन संवादों पर सुकरात के साथ-साथ इलियाई मत का भी कुछ प्रभाव है। इस काल के संवाद हैं; क्लाइसिस (Clysis), क्रेटिलस (Cratylus), जॉर्जियस (Georgias) इत्यादि।
३. प्रौढ़कालीन संवादः इस काल के संवादों में विज्ञानवाद की स्थापना मुख्य विषय है। इस काल के संवाद हैं: सिम्पोसियान, फिलेब्रुस, टिमर्यास, रिपब्लिक और फीडो आदि।
हम प्लेटो के दर्शन को निम्नलिखित भागों में विभाजित कर सकते है। ज्ञान-मीमांसा, नीति-मीमांसा और भौतिकी।
ज्ञान-मीमांसा(Theory of Knowledge)
प्लेटो का ज्ञान सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विचार है। प्लेटो के अन्य दार्शनिक विचार उनके ज्ञान सिद्धान्त पर ही आधारित हैं। उनके ज्ञान सिद्धान्त के दो पक्ष हैं: विधि पक्ष तथा निषेध पक्ष या मण्डन पक्ष और खण्डन पक्ष। अपने निषेध या खण्डन पक्ष के द्वारा प्लेटो बतलाते हैं कि ज्ञान क्या नहीं है। इस पक्ष में इन्द्रियजन्य ज्ञान का खण्डन है। विधि या मण्डन पक्ष के द्वारा वे बतलाते हैं कि बौद्धिक ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। ज्ञान का निषेध पक्ष विधि पक्ष से अधिक महत्त्वपूर्ण है। ज्ञान क्या है इसे जानने के पूर्व ज्ञान क्या नहीं है जानना आवश्यक है। अतः सर्वप्रथम ज्ञान का निषेध पक्ष ही उपस्थित करना आवश्यक है।
‘ज्ञान इन्द्रिय-जन्य या प्रत्यक्ष है’ का खण्डन
ज्ञान प्रत्यक्ष है, अर्थात् ज्ञान इन्द्रिय जन्य है| यह सिद्धान्त प्रोटागोरस तथा सॉफिस्ट विचारकों का है। उनके अनुसार हमें इन्द्रियों के द्वारा जो भी ज्ञान प्राप्त होता है वही यथार्थ ज्ञान है, अर्थात् प्रत्यक्षात्मक ज्ञान ही प्रमाण है। प्लेटो सॉफिस्ट तथा प्रोटागोरस की मान्यता का निम्नलिखित तर्कों के आधार पर खण्डन करते हैं:-
१. यदि ज्ञान प्रत्यक्ष है या इन्द्रिय जन्य अनुभव ही यथार्थ ज्ञान है तो व्यक्तिगत प्रतीति ही प्रमाण होगी। प्रत्येक व्यक्ति की इन्द्रियाँ भिन्न-भिन्न हैं, अतः उन इन्द्रियों से। जन्य अनुभव भी भिन्न-भिन्न ही होंगे। व्यक्ति को जो कुछ भी अनुभव होता है, वहीं सत्य है, ज्ञान है। परन्तु व्यक्तिगत प्रतीति की प्रामाणिकता भविष्य के लिए सर्वदा सन्दिग्ध है। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति को प्रतीत हो सकता है कि आगामी वर्ष वह मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हो जायेगा, परन्तु इसके बदले में अगले वर्ष वह कारागार (जेल) में भी हो सकता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्तिगत प्रतीति के अनुसार भविष्य की घटनायें नहीं होती। अत: व्यक्तिगत प्रतीति प्रमाण नहीं।
२. प्रत्यक्ष ज्ञान भ्रामक भी होता है तथा भ्रम की अवस्था में हमें वस्तु का बिल्कुल विपरीत परिचय मिलता है। एक ही वस्तु समीप होने पर बड़ी तथा दूर होने पर छोटी दिखलाई पड़ती है। एक ही वस्तु विभिन्न प्रकाश में उजली, हरी और काली प्रतीत होती है। कागज का एक टुकड़ा किसी दृष्टि से आयताकार प्रतीत होता है। इस प्रकार की विरुद्ध या विपरीत प्रतीतियाँ हमें होती हैं। प्रश्न यह है कि इनमें से किस प्रतीति को प्रमाण माना जाय? विभिन्न विरोधी अनुभवों में किसे यथार्थ स्वीकार किया जाय? यदि व्यक्तिगत अनुभव ही प्रमाण हैं तो अनुभव रूप से सभी अनुभव समान ही हैं; अर्थात् अयथार्थ अनुभव भी तो अनुभव ही है। अतः यथार्थ और अयथार्थ अनुभव का निश्चय कैसे हो?
३. यदि प्रत्यक्ष ही प्रमाण है तो बालक और बूढ़े के प्रत्यक्ष, गुरु और शिष्य के प्रत्यक्ष में भेद नहीं; क्योंकि प्रत्यक्ष तो दोनों को होता है। अत: गुरु शिष्य को कुछ सिखा नहीं सकता। तात्पर्य यह है कि यदि छात्र और अध्यापक का अनुभव समान ही है तो अध्यापक का शिक्षा देना व्यर्थ है। दो पक्षों में वाद-विवाद होता है, अन्त में किसी एक पक्ष की विजय होती है। इससे सिद्ध है कि दोनों पक्षों के अनुभव या प्रत्यक्ष समान नहीं।
४. यदि प्रत्यक्ष ही ज्ञान है, प्रतीति ही सत्य है तो मनुष्य सभी पदार्थों का मापदण्ड है क्योंकि वह सभी पदार्थों को प्रत्यक्ष करता है। परन्तु पशु को भी मनुष्य के समान प्रत्यक्ष का ज्ञान होता है। अतः मनुष्य के समान पशु को भी सब पदार्थ का मापदण्ड मानना होगा। प्रोटागोरस ने बतलाया कि मनुष्य सभी पदार्थ का मापदण्ड है, प्लेटो इसका खण्डन करते है।
५. प्रोटागोरस का सिद्धान्त आत्मघाती है। प्रोटागोरस के अनुसार स्वप्रतीति ही प्रमाण है, अर्थात् हमें जो प्रतीत होता है वही हमारे लिए सत्य है। यदि यह सिद्धान्त सत्य है, तो हमें प्रोटागोरस का सिद्धान्त असत्य प्रतीत हो रहा है, अतः उन्हें स्वीकार करना चाहिए कि उनका मत असत्य है। अतः स्वप्रतीति ही प्रमाण नहीं हो सकती। इसकी प्रामाणिकता तो स्वयं अपना विरोध करती है।
६. सॉफिस्ट तथा प्रोटागोरस का सिद्धान्त सत्य को आत्मनिष्ठ बना देता है तथा इसके वस्तुनिष्ठ स्वरूप को समाप्त कर देता है। यदि सत्य वस्तुनिष्ठ (Objective) नहीं है तो सत्य और असत्य का भेद निरर्थक सिद्ध होगा। यदि सत्य आत्मगत है, विषयगत नहीं तो एक ही वस्तु किसी को सत्य तथा किसी को असत्य प्रतीत होगी।। दोनों में भेद करना निश्चय ही कठिन होगा। सत्य और असत्य में भेद इसीलिए सम्भव है कि सत्य सबके लिए सत्य है, अर्थात् सत्य बाह्य, वस्तुनिष्ठ और विषयगत होता है।
7. प्रोटागोरस और सॉफिस्ट लोगों के अनुसार ज्ञान केवल पता प्रत्यक्ष शुद्ध संवेदना है तथा संवेदनायें इन्द्रियजन्य होती हैं। इन्द्रियजन्य है। हम सभी जानते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान की दो अवस्था अर्थ (निर्विकल्प तथा सविकल्प ज्ञान) अर्थविहीन संवेदना अर्थ (निर्विकल्प तथा सविकल्प ज्ञान) अर्थविहीन संवेदना तो विषय का आभास मात्र है, इसे हम प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। अर्थ में तुलना(Comparison) तथा वर्गीकरण (Classification) दोनों सम्मिलित हैं। उदाहरणार्थ, हम कर कागज है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसका विश्लषण करन पर पता चलता सर्वप्रथम हमें एक उजली वस्तु की संवेदना प्राप्त होती है, बाद में हम इसे अन्य कागजों से तुलना करते हैं (साम्य का निश्चय करते हैं) तथा इसे काम रखते हैं। परन्तु तुलना तथा वर्गीकरण तो बौद्धिक कार्य है, अतः सार्थक तो बुद्धि ही बनाती है। परन्तु प्रोटागोरस प्रत्यक्ष को शुद्ध संवेदना बौद्धिक व्यापार का स्पष्ट निषेध करते हैं। तात्पर्य यह है कि उनके पर संवेदना कह सकते हैं प्रत्यक्ष नहीं, क्योंकि सार्थक संवेदना ही प्रत्यक्ष है।
‘ज्ञान धारणा है’ का खण्डन
जिस प्रकार ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं, उसी प्रकार ज्ञान धारणा भी नहीं। धारणा भी दो प्रकार की होती है यथार्थ तथा अयथार्थ या सत्य और असत्य। अयथार्थ या मिथ्या धारणा तो ज्ञान नहीं ही है, यथार्थ या सत्य धारणा भी ज्ञान नहीं। कारण यह है कि धारणा तो कल्पना प्रसूत होती है, उसका कोई युक्तिसंगत या तर्कसंगत आधार नहीं होता। उदाहरणार्थ, हमारी धारणा है कि आगामी रविवार को भूकम्प होगा। हो सकता है कि हमारी धारणा सत्य भी हो, अर्थात् आगामी रविवार को भूकम्प हो भी जाय परन्तु इस सत्य धारणा को भी हम ज्ञान नहीं कह सकते। यह धारणा निराधार है, कोरी कल्पना है। प्रायः हम प्रवृत्ति के अनुकूल, अन्तर्बोध से धारणा बना लेते है। इसका कोई कारण नहीं होता। प्लेटो के अनुसार जब तक हम इसका कारण या आधार नहीं जानते तब तक यह ज्ञान का रूप नहीं ले सकता। अतः ज्ञान अकारण काल्पनिक धारणा नहीं, वरन् युक्तसंगत बौद्धिक है। ज्ञान आस्था या विश्वास पर आधारित नहीं, वरन् बुद्धि पर आश्रित होता है। बद्धि पर आश्रित होने के कारण ज्ञान सकारण होता है तथा सकारण होने के कारण सत्य होता है। धारणा, कल्पना या विश्वास पर आधारित होती है, अतः अकारण होती है तथा अकारण हान सम्भाव्य होती है, अर्थात् सत्य-असत्य दोनों हो सकती है।
ज्ञान का विधि या मण्डन पक्ष
उपर्यक्त विवरण से स्पष्ट है कि ज्ञान इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष नहीं तया धारणा भी नहीं| प्रश्न यह है कि ज्ञान क्या है? प्लेटो महात्मा सकरात के कथन की सम्पुष्टि करते है कि ज्ञान प्रत्ययजन्य या प्रत्ययात्मक(All knowledge is Knowledge through concepts) है। ज्ञान को प्रत्ययात्मक मानकर प्लेटो स्पष्टतः जान के संवेदनात्मक स्वरूप (सॉफिस्ट मतानुसार) का निषेध करते हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञान यदि प्रत्ययजन्य है तो वह संवेदनाजन्य नहीं। ज्ञान को संवेदनात्मक मानने के कारण सॉफिस्ट लोग ज्ञान को इन्द्रियजन्य मानते हैं, क्योंकि संवेदना की उपलब्धि इन्टियों द्वारा ही होती है तथा इन्द्रियजन्य मानने के कारण ज्ञान को व्यक्तिगत प्रतीति का विषय मानते हैं।
व्यक्तिगत प्रतीति तक सीमित होने के कारण ज्ञान आत्मगत या आत्मनिष्ठ (Subjective) हो जाता है। प्लेटो के अनुसार ज्ञान सार्वजनीन प्रतीति का विषय है, सत्य तो वस्तुगत या वस्तुनिष्ठ (Objective) होता है। यदि ज्ञान सर्वगत पतीति का विषय है तो यह अवश्य ही प्रत्ययात्मक होगा, क्योंकि प्रत्यय तो वस्तुगत या विषयगत सत्य है। सर्वगत प्रत्ययों की उत्पत्ति तो बुद्धि से ही हो सकती है। अतः ‘ज्ञान प्रत्ययजन्य है’ का अर्थ है कि ज्ञान बुद्धिजन्य है’ अथवा ज्ञान बौद्धिक है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्लेटो महात्मा सुकरात के मत को अधिक पुष्ट, परिष्कृत तथा विस्तृत बनाते हैं। सुकरात के अनुसार प्रत्यय केवल मानसिक है, प्लेटो के अनुसार प्रत्यय वास्तविक हैं। वास्तविक कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्यय केवल मानसिक विचार ही नहीं, वरन् बाह्य वस्तु है। इसे प्लेटो विज्ञान (Idea) कहते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि सुकरात का प्रत्यय ही प्लेटो का विज्ञान रूप धारण कर लेता है। तात्पर्य यह है कि विज्ञान प्रत्ययों का विकसित या परिष्कृत स्वरूप है।
नीति-मीमांसा (Ethics)
जिस प्रकार प्लेटो की ज्ञान-मीमांसा के दो पक्ष हैं: खण्डन तथा मण्डन, उसी प्रकार उनकी नीति-मीमांसा के भी दो पक्ष हैं। तात्पर्य यह है कि उन्होंने सर्वप्रथम मिथ्या सिद्धान्तों का खण्डन किया है तदनन्तर उन्होंने यथार्थ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। नीतिशास्त्र में सबसे महत्त्वपर्ण प्रश्न है कि सद्गुण क्या है? प्रोटागोरस तथा सॉफिस्ट लोगों के अनुसार सुख ही सदगुण है। सर्वप्रथम प्लेटो इसकी आलोचना करते हैं।
१. जिस प्रकार सत्य तथा ज्ञान को इन्द्रिय-जन्य मानने से सत्य आत्मगत हो जाता है उसी प्रकार सद्गुण को सुख मानने से सद्गुण भी आत्मगत हो जाता है। तथा इसका विषयगत, वस्तुनिष्ठ स्वरूप ही समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार यदि व्यक्तिगत सुख ही सद्गुण है तो जिससे सुख प्राप्त हो वही उसके लिए सद्गुण है। इस प्रकार सद्गुण तथा नैतिकता पूर्णरूप से आत्मनिष्ठ, सापेक्ष हो जाती है। परन्तु नैतिकता का मापदण्ड तो वस्तुनिष्ठ, निरपेक्ष होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि नैतिक मूल्य व्यक्तिनिष्ठ नहीं, वस्तुनिष्ठ होते हैं। यदि मेरे लिये जो सुखकर हो वही सद्गुण हो तो सद्गुण का बाह्य, विषयगत रूप ही समाप्त हो जायेगा।
२. सद्गुण को व्यक्तिगत मानने पर, अर्थात् नैतिक नियमों को आत्मगत मानने पर शुभ और अशुभ का भेद समाप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ, कोई विषय किसी व्यक्ति को सुखकर प्रतीत हो सकता है तथा दूसरे व्यक्ति को दुःखकर प्रतीत हो सकता है। जिसके लिए सुखकर है उसके लिए वह विषय शुभ है तथा जिसके लिए दुःखकर प्रतीत होता है उसके लिए अशुभ है। इस प्रकार एक ही विषय शुभ तथा अशुभ दोनों एक ही समय में प्रतीत हो सकता है। अतः शुभ और अशुभ, अच्छा और बुरा का भेद मिट जाता है।
३. यदि सद्गुण केवल सुख है तो नैतिकता का आधार भावना (Belief) सिद्ध होगी; क्योंकि सुख तो इच्छाओं की तृप्ति है तथा इच्छा तो भावना है। परन्तु भावनाएँ व्यक्तिगत होती हैं तथा व्यक्तिगत भावना विषयगत नैतिकता का आधार नहीं बन सकती। नैतिक संहिता (Moral code) को सामान्य होना चाहिये तथा उसे सामान्य होने के लिए बुद्धि पर आश्रित होना चाहिये, व्यक्तिगत भावना पर आधारित नहीं। तात्पर्य यह है कि नैतिक नियमों को सार्वभौम, सार्वजनीन होना चाहिये जिससे सभी लोग उनका पालन कर सकें।
४. नैतिक नियमों को स्वयं मूल्यवान होना चाहिये, अर्थात् नैतिकता स्वयं अपना साध्य है। नैतिक नियमों का मूल्य आन्तरिक होता है, बाह्य नहीं। नैतिक कर्त्तव्य किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं, वरन् कर्त्तव्य’ के लिए ही हो सकता है। हमें किसी कार्य को स्वयं साध्य मानकर करना चाहिये, न कि किसी फल की प्राप्ति के लिए। नैतिक नियम तो आदेश हैं जिनका पालन किसी शर्त के बिना ही करना चाहिये। परन्तु यदि सद्गुण सुख है तो नैतिक नियम स्वयं साध्य नहीं, क्योंकि हम किसी कार्य को इसलिये करते हैं कि वह हमारे लिये सुखकर है।
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