विद्यालय प्रबंधन के कार्य या क्षेत्र

विद्यालय प्रबंधन के कार्य या क्षेत्र | School Management Tasks in Hindi

विद्यालय प्रबंधन के कार्य या क्षेत्र(School Management Tasks)

विद्यालय प्रबंधन के कार्य को बहुत ही बारीकी से समझना पड़ता है। विद्यालय प्रबंधन में विभिन्न प्रकार के कार्यों का प्रबंधन करना पड़ता है। यहाँ पर हम कई प्रकार के विद्यालय प्रबंधन के कार्यों की व्याख्या करेंगें। विद्यालय प्रबंधन के विभिन्न कार्य-

  1. विद्यालय पाठ्यक्रम का प्रबन्धन
  2. पाठ्येत्तर सहगामी कार्यक्रमों का प्रबन्धन
  3. विद्यालय अनुशासन का प्रबन्धन
  4. विद्यालय स्वास्थ्य सेवाओं का प्रबन्धन
  5. शिक्षार्थी कर्मचारी सेवा

 

विद्यालय पाठ्यक्रम का प्रबन्धन(MANAGEMENT OF SCHOOL CURRICULUM)

पाठ्यक्रम शिक्षा का एक अभिन्न अंग है। पाठ्यक्रम के अभाव में शिक्षण कार्य उद्देश्यविहीन एवं अव्यवस्थित हो जायेगा। शिक्षक के समान छात्रों को भी पाठ्यक्रम से लाभ होता है। वे जान जाते हैं कि उन्हें किन विषयों का अध्ययन करना है तथा किन पाठों का अध्ययन किन पुस्तकों के प्रयोग द्वारा करना है। इस जानकारी के अभाव में उनके ज्ञान के अर्जन की गति का एक सा होना असम्भव है। पाठ्यक्रम को क्रिया के विविध रूपों में देखा जाना चाहिए, जो मानवीय आत्मा की विशाल अभिव्यक्तियाँ हैं। इन अभिव्यक्तियों का इस व्यापक जगत के लिए स्थायी महत्त्व है।

 

 

पाठ्यक्रम के प्रकार (Types of Curriculum)

पाठ्यक्रम के मुख्यतः चार प्रकार हैं जो कि पाठ्यक्रम के विभिन्न आधारों पर केन्द्रित हैं। यह प्रकार निम्न हैं-

  1. विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम (Subject Centered Curriculum)-इस प्रकार के पाठ्यक्रम में विषय को आधार मानकर पाठ्क्रम को नियोजित किया जाता है।
  2. बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम (Student Centered Curriculum)- आधुनिक युग में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि विषय केन्द्रित शिक्षा का स्थान बाल केन्द्रित शिक्षा ने ले लिया है। यह पाठयक्रम प्रयोगवादी विचारधारा पर आधारित है। इस प्रकार के पाठयक्रम में बालक की रुचियों, परिवर्तित आवश्यकताओं, अभिप्रायों, संवेगों आदि को आधार बनाया जाता है।
  3. क्रिया केन्द्रित पाठ्यक्रम (Activity Centered Curriculum)-इस पाठ्यक्रम में क्रिया अथवा कार्य को ही आधार बनाया जाता है तथा विभिन्न अनुभवों द्वारा सीखने का उत्तरदायित्व छात्रों पर ही डाला जाता है। अतः इसे अनुभव प्रधान पाठ्यक्रम भी कहा जाता है।
  4. कोर पाठ्यक्रम (Core Curriculum)- यह पाठ्यक्रम इस बात पर बल देता है कि विद्यालय अधिक सामाजिक दायित्वों को ग्रहण करें और सामाजिक रूप से कुशल व्यक्तियों का निर्माण करें। यह पाठ्यक्रम छात्रों के सामान्य विकास पर केन्द्रित है।

 

पाठ्यक्रम सम्बन्धी कार्यक्रमों का विद्यालय में विशेष महत्त्व होता है। इन कार्यक्रमों से शैक्षिक, मानसिक तथा ज्ञानात्मक पक्ष का अधिक से अधिक विकास होता है। अतः इनका नियमित रूप से मूल्यांकन होना चाहिए तथा उचित एवं सुनियोजित प्रबन्धन भी अत्यन्त आवश्यक है।

 

 

पाठ्येत्तर सहगामी कार्यक्रमों का प्रबन्धन (MANAGEMENT OF CO-CURRICULAR ACTIVITIES)

पाठ्य-सहगामी कार्यक्रमों से बालकों का बहुमुखी विकास होना चाहिए अर्थात् उनका शारीरिक मानसिक, सामाजिक, सांस्कतिक तथा धार्मिक विकास होना चाहिए। भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षा का विकास पाठ्य सहगामी क्रियाओं के आयोजन से किया जाता है। विद्यालय में खेलकद, एन.सी.सी., एन.एस.एस., स्काउटिंग तथा प्रतियोगिताओं के आयोजन से शारीरिक तथा क्रियात्मक पक्ष का विकास किया जाता है। सांस्कृतिक कार्यक्रम, राष्ट्रीय पर्व, विद्यालय दिवस आदि के आयोजन से भावात्मक पक्ष का विकास होता है।

 

 

विद्यालय अनुशासन का प्रबन्धन (MANAGEMENT OF SCHOOL DISCIPLINE)

विद्यालय एवं विद्यार्थी व्यवहार में अनुशासन सदैव शिक्षकों एवं प्रशासकों के बीच चिन्ता का विषय रहा है। आधुनिक युग में अनुशासन का अर्थ व्यवहार में नियमबद्धता से लिया जाता है। यह नियमबद्धता आत्म नियंत्रण व समुचित प्रशिक्षण से आती है, जिसमें समाज द्वारा स्वीकृत मूल्यों का अनुसरण भी सम्मिलित है। व्यापक दृष्टि से अनुशासन में व्यक्ति के व्यवहार का समाजीकरण, सहयोगपूर्ण ढंग से कार्य करने व रहने का ढंग तथा समूह के लिए वैयक्तिक हितों का त्याग भी सम्मिलित होता है।

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विद्यालय अनुशासन का अर्थ (Meaning of School Discipline)

विद्यालय अनुशासन से तात्पर्य विद्यालय के नियमों के अनुरूप आचरण से लिया जाता है। यह आचरण किसी भी समाज की सांस्कृतिक प्रणाली से सम्बद्ध होता है। इस प्रकार विद्यालय में विद्यार्थियों से अपेक्षित व्यवहार उस समाज की अपेक्षित व्यवहार प्रणाली से प्रभावित होते हैं।

 

विद्यालयी अनुशासन के दृष्टिकोण (Views of School Discipline)

विद्यालयी अनुशासन को बनाए रखने के लिए दो दृष्टिकोण मुख्य हैं-

  1. नियमों द्वारा विद्यार्थी को विद्यालय के अनुशासन में रखना होता है।
  2. बालक को स्वयं नियन्त्रण द्वारा अनुशासित जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करना।

 

 

विद्यालयी उत्तम अनुशासन (Best School Discipline)

विद्यालयी श्रेष्ठ अनुशासन वह है जहाँ अनुशासनहीनता के कारणों को दूर कर दिया गया है। इसमें मुख्य रूप से प्रधानाध्यापक का नेतत्व व शिक्षकों का विद्यालयी कार्यकलापों व लक्ष्यों के प्रति समर्पित और सकारात्मक व्यवहार होता है। यहाँ दोनों सेवा और समर्पण की भावना से मिलकर कार्य करते हैं।

एक श्रेष्ठ विद्यालयी अनुशासन वह होता है जहा विद्यालय क लक्ष्य स्पष्ट हो तथा उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नेतृत्व व समूह (शिक्षक व शिक्षार्थी) समर्पित भाव से लगे हैं। शिक्षक निष्ठा से पाठ तैयार करते हैं तथा प्रभावी पाठन विधियों का प्रयोग करते हैं। ये विधियाँ विद्यार्थियों को पाठ क विकास में सम्मिलित ही नहीं करतीं वरन उसमें उनकी भागीदारी भी सम्मिलित करती हैं। यह आयाम छात्रों के लिए प्रेरक होते हैं जिनसे उन्हें आत्मसंतुष्टि मिलती है। शिक्षक विद्यार्थियों की समस्याओं को निकटता के कारण जानता है तथा उनकी समस्याओं को परस्पर विश्वास और सौहार्द से हल करता है।

शिक्षक परस्पर समह भावना से कार्य करता है। इससे वे विद्यालय में श्रेष्ठ परम्पराओं का सृजन करते हैं। उक्त परिस्थितियों को उपलब्ध कराने के पश्चात भी यदि अनुशासनहीनता की समस्या होती है तब तर्कसंगत नीति व विद्यार्थियों को उनके दोषों की अनुभूति कराकर परस्पर सहमति से यह हल की जाती है।

 

 

केन्द्रित पाठ्यक्रम-एकरूपता की अवधारणा(CONCEPT OF CENTRALIZED CURRICULUM)

भारत सरकार इसके लिए लम्बे समय से प्रयासरत है कि सम्पूर्ण भारत में शैक्षिक पाठ्यक्रम सभी स्तरों पर केन्द्रिक तत्त्वों से परिपूर्ण हो। इस कार्य के लिए भारत सरकार ने इन केन्द्रिक तत्वों की सूची प्रस्तुत की है, जो प्रारम्भिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय अवबोध में सहायक है। सम्पूर्ण देश के विभिन्न प्रान्तों के पाठ्यक्रमों में आज भी अन्तर है। इस अन्तर को समाप्त करने के लिये एन.सी. ई.आर.टी. तथा विभिन्न शिक्षा समितियों ने समय-समय पर अपने विचारों से अवगत कराया है। इन सब पर विचारोपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम का ढाचा केन्द्रिक पाठ्यक्रम की संकल्पना पर आधारित होना चाहिए। इस पाठ्यक्रम में दस (10) केन्द्रिक तत्त्व विद्यमान होने चाहिए तथा इस प्रारम्भिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप लचीलापन होना चाहिए। पाठ्यक्रम की विविधता के कारण एक प्रान्त से दूसर प्रान्त में छात्र स्थानान्तरण की दशा में पाठ्यक्रमीय अन्तर से छात्र की शिक्षा में हास तथा अवराध उत्पन्न होता है। अतः पाठयक्रम की विविधता को समाप्त कर एकरूपता अवधारणा निर्मित हुई है। ये तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  1. भारत की आजादी का इतिहास,
  2. संवैधानिक दायित्व,
  3. राष्ट्रीय अस्मिता को बढ़ावा देने वाले एवं मजबूत बनाने वाले तत्व,
  4. भारत की समान सांस्कृतिक परम्परा,
  5. समानता, जनतंत्र तथा समाजवाद,
  6. स्त्री-पुरुष में समानता,
  7. पर्यावरण की सुरक्षा,
  8. सामाजिक विषमताओं तथा विभेदों का निराकरण,
  9. छोटे परिवार के सिद्धांत की संकल्पना, तथा 
  10. वैज्ञानिक स्वभाव का निर्माण।
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विद्यालय स्वास्थ्य सेवाओं का प्रबन्धन (MANAGEMENT OF SCHOOL HYGIENE SERVICES)

परिवार के बाद अस्वस्थता की रोकथाम की जिम्मेदारी विद्यालय पर है, क्योंकि व्यक्तित्व के विकास में परिवार के बाद सबसे अधिक प्रभाव विद्यालय का पड़ता है। विद्यालय में सबसे अधिक। महत्त्व विद्यालय के वातावरण का है। बालक के स्वास्थ्य के अन्तर्गत शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य को रखा जाता है।

शारीरिक आरोग्य शरीर को स्वस्थ रखने के नियम तथा उपाय प्रतिपादित करता है तथा मानसिक आरोग्य मन को स्वस्थ रखने के नियम तथा उपाय निकालता है।

शारीरिक आरोग्य से तात्पर्य शरीर के विभिन्न अगों का सुचारु रूप से कार्य करना तथा मानसिक आरोग्य का शाब्दिक अर्थ मानसिक क्रियाओं से सम्बन्धित निरोग या रोगहीन दशा को कायम रखना है।

उक्त विवरण के आधार पर एक पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति के निम्न लक्षण हैं

  1. जन्मजात तथा अर्जित क्षमताओं की पूर्ण अभिव्यक्ति तथा उनमें परस्पर सन्तुलन स्थापित कर सकने की क्षमता होना।
  2. शरीर के विभिन्न अंगों का तथा मस्तिष्क का सही तालमेल स्थापित करने की क्षमता होना।
  3. जीवन के विभिन्न लक्ष्यों का निर्धारण कर सकना तथा उसी अनुसार योजना बनाना निर्णय लेना तथा कार्य सम्पादित कर अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करना।

 

बालकों के बिगड़ जाने का डर होता है। ऐसे बालकों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए, उनको निर्देशन दिया जाना चाहिए। सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि अलग-अलग बालक को उसके व्यक्तित्व के अनुसार उपयुक्त और पर्याप्त काम दिये जायें। अतः पिछड़े हुए और मेधावी बालकों के लिए विशेष व्यवस्था की आवश्यकता है। शिक्षक बालक के सामने आदर्श होते हैं। अतः उनका चरित्र और व्यवहार अनकरणीय होना चाहिए। विद्यालय में शिक्षार्थियों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए शिक्षार्थी कर्मचारी सेवा का प्रबन्ध होना चाहिए।

 

 

शिक्षार्थी कर्मचारी सेवा(PUPIL PERSONNEL WORK)

कर्मचारी सेवा में कर्मचारियों के कल्याण की सभी बातें जैसे उनके घर, स्वास्थ्य, मनोरंजन, आर्थिक स्थिति, परस्पर सम्बन्धों आदि को ठीक रखना आ जाती हैं।

शिक्षार्थी कर्मचारी सेवा शिक्षार्थियों के सभी तरह के कल्याण के लिए चेष्टा करती है। यह कर्मचारी सेवा का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।

अमेरिकी एजुकेशन के अध्यक्ष श्री विलियमसन के अनुसार, शिक्षार्थी कर्मचारी सेवा वह साधन है जिसके द्वारा शिक्षार्थी की सम्पूर्ण शिक्षा को उसकी शक्ति तथा उसकी योग्यता की सीमा में सर्वोत्तम बनाया जा सके।

इस प्रकार शिक्षार्थी कर्मचारी सेवा शिक्षा के सभी अंगों के विकास की चेष्टा करती है। उसमें शिक्षा का हर पहलू आ जाता है तथा शिक्षार्थी जीवन के सभी पक्ष भी आ जाते हैं।

विद्यालय स्वास्थ्य सेवाओं के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत निम्न बिन्दुओं का विशेष रूप से समावेश होता है-

  1. सामाजिक उत्तरदायित्व को अनुभव करना।
  2. समाज में अपना एक उचित स्थान प्राप्त करना।
  3. अपने घरेलू, सामाजिक तथा व्यावसायिक इत्यादि विभिन्न पक्षों के कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पादित करना।
  4. शिक्षा या काम के प्रति शिक्षार्थी में स्वस्थ दृष्टिकोण उत्पन्न करना।
  5. व्यक्तिगत योग्यतानुसार व्यावसायिक रुचि उत्पन्न करना।
  6. जीविकोपार्जन की सन्तोषजनक व्यवस्था प्राप्त करना। ।
  7. स्वस्थ शारीरिक तथा मानसिक आदतें डालना।
  8. संवेगों को समाज द्वारा स्वीकृत रीति से अभिव्यक्त करना।
  9. जीवन के प्रति आदर्शों की स्थापना तथा उनका पालन करना।
  10. अच्छे विचार तथा मूल्यों का पालन और आदर करना।

 

 

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